श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 246 इसतरी पुरख कामि विआपे जीउ राम नाम की बिधि नही जाणी ॥ मात पिता सुत भाई खरे पिआरे जीउ डूबि मुए बिनु पाणी ॥ डूबि मुए बिनु पाणी गति नही जाणी हउमै धातु संसारे ॥ जो आइआ सो सभु को जासी उबरे गुर वीचारे ॥ गुरमुखि होवै राम नामु वखाणै आपि तरै कुल तारे ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमति मिले पिआरे ॥२॥ पद्अर्थ: कामि = काम-वासना में। विआपे = फसे रहते हैं। बिधि = जुगति। सुत = पुत्र। खरे = बहुत। डूबि = डूब के, माया के मोह के सरोवर में नाको नाक फस के। मुए = आत्मिक मौत मर गए। गति = आत्मिक जीवन की हालत। धातु = भटकना। संसारे = संसार में। सभु को = हरेक जीव। जासी = फस जाएगा। उबरे = बच गए। वखाणै = उच्चारता है। घट = हृदय। गुरमति = गुरु की मति ले के।2। अर्थ: (माया के मोह के प्रभाव में) स्त्री और मर्द काम-वासना में फसे रहते हैं, परमात्मा के नाम जपने की विधि नहीं सीखते। (माया के मोह में फसे जीवों को अपने) माता-पिता-पुत्र-भाई (ही) बहुत प्यारे लगते हैं, (जिस सरोवर में) पानी नहीं, (पानी की जगह मोह है उस में) डूब के (नाको नाक फंस के) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। मोह रूपी पानी वाले माया-सरोवर में नाको नाक फंस के जीव आत्मिक मौत ले लेते है और अपने आत्मिक जीवन को नहीं परखते-जाचते। (इस तरह) संसार में (जीवों को) अहंकार की भटकना लगी हुई है। जो भी जीव जगत में (जनम ले के) आता है वह (इस भटकना में) फंस जाता है, (इसमें से वही) बचते हैं जो गुरु के शब्द को अपनी सोच-मण्डल में बसाते हैं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा का नाम उच्चारता है, वह खुद (इस माया-सरोवर से) पार लांघ जाता है, अपनी कुलों को भी पार लंघा लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह गुरु की मति का आसरा ले के प्यारे प्रभु को मिल जाता है।2। राम नाम बिनु को थिरु नाही जीउ बाजी है संसारा ॥ द्रिड़ु भगति सची जीउ राम नामु वापारा ॥ राम नामु वापारा अगम अपारा गुरमती धनु पाईऐ ॥ सेवा सुरति भगति इह साची विचहु आपु गवाईऐ ॥ हम मति हीण मूरख मुगध अंधे सतिगुरि मारगि पाए ॥ नानक गुरमुखि सबदि सुहावे अनदिनु हरि गुण गाए ॥३॥ पद्अर्थ: को = कोई भी। थिरु = सदा कायम रहने वाला। बाजी = खेल। द्रिढ़ = दृढ़, पक्की करके टिका। सची = सदा कायम रहने वाली। वापारा = वणज। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। पाईऐ = हासिल करते हैं। आपु = स्वैभाव। मुगध = मूर्ख। सतिगुरि = सतिगुरु ने। मारगि = रास्ते पर। सुहावे = सुंदर जीवन वाले। अनदिनु = हर रोज।3। अर्थ: हे भाई! ये जगत (परमात्मा की रची हुई एक) खेल है (इस में) परमात्मा के नाम के बिना और कोई सदा कायम रहने वाला नहीं है। हे भाई! परमात्मा का नाम-वणज ही सदा कायम रहने वाला है। अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम-वणज ही सदा कायम रहने वाला धन है, ये धन गुरु की मति पर चलने से मिलता है। प्रभु की सेवा भक्ति, प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़नी - ये सदा कायम रहने वाली (राशि) है (इसकी इनायत से अपने) अंदर से स्वैभाव दूर कर सकते हैं। हम अल्प-बुद्धि वालों को, मूर्खों को, माया के मोह में अंधे हुओं को सतिगुरु ने ही जीवन के सही रास्ते पर डाला है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं, और, वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।3। आपि कराए करे आपि जीउ आपे सबदि सवारे ॥ आपे सतिगुरु आपि सबदु जीउ जुगु जुगु भगत पिआरे ॥ जुगु जुगु भगत पिआरे हरि आपि सवारे आपे भगती लाए ॥ आपे दाना आपे बीना आपे सेव कराए ॥ आपे गुणदाता अवगुण काटे हिरदै नामु वसाए ॥ नानक सद बलिहारी सचे विटहु आपे करे कराए ॥४॥४॥ पद्अर्थ: कराए = (प्रेरणा करके जीवों से) करवाता है। आपे = खुद ही। सबदि = शब्द में (जोड़ के)। सवारे = (जीवों के जीवन) सुंदर बनाता है। जुगु जुगु = हरेक युग में। दाना = समझदार, जानने वाला। बीना = परखने वाला। हिरदै = हृदय में। विटहु = से।4। अर्थ: (पर) हे भाई! (जीवों के वश कुछ नहीं। माया-सर में डूबने से बचाने वाला प्रभु स्वयं ही है) प्रभु खुद ही (प्रेरणा करके जीवों से काम) करवाता है (जीवों में व्यापक हो के) खुद ही (सब कुछ) करता है, प्रभु खुद ही गुरु के शब्द में जोड़ के (जीवों के) जीवन सुंदर बनाता है। प्रभु खुद ही सत्गुरू मिलाता है, खुद ही (गुरु का) शब्द बख्शता है, और खुद ही हरेक युग में अपने भक्तों को प्यार करता है। हरेक युग में हरि अपने भक्तों को प्यार करता है, खुद ही उनके जीवन को सँवारता है, खुद ही (उन्हें) भक्ति में जोड़ता है। वह खुद ही सबके दिल की जानने वाला और पहचानने वाला है, वह खुद ही (अपने भक्तों से अपनी) सेवा-भक्ति करवाता है। (हे भाई!) परमात्मा खुद ही (अपने) गुणों की दाति बख्शता है, (हमारे) अवगुण दूर करता है, और (हमारे) हृदय में (अपना) नाम बसाता है। हे नानक! (कह: मैं) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा से सदके जाता हूँ, वह खुद ही सब कुछ करता है और स्वयं ही सब कुछ कराता है।4।4। गउड़ी महला ३ ॥ गुर की सेवा करि पिरा जीउ हरि नामु धिआए ॥ मंञहु दूरि न जाहि पिरा जीउ घरि बैठिआ हरि पाए ॥ घरि बैठिआ हरि पाए सदा चितु लाए सहजे सति सुभाए ॥ गुर की सेवा खरी सुखाली जिस नो आपि कराए ॥ नामो बीजे नामो जमै नामो मंनि वसाए ॥ नानक सचि नामि वडिआई पूरबि लिखिआ पाए ॥१॥ पद्अर्थ: पिरा जीउ = हे प्यारे जीव! हे प्यारी जिंदे! धिआए = याद कर। मंञहु = मंझहु, अपने आप में से। घरि = हृदय घर में। सहजे = आत्मिक अडोलता में, सहज। सति सुभाए = सदा स्थिर प्रभु के प्यार में टिक के। खरी = बहुत। सुखाली = सुख+आलय, सुख देने वाली। नामो = नाम ही। मंनि = मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। नामि = नाम में (जुड़ने से)। पूरबि = पहले जन्म में।1। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे प्यारी जिंदे! गुरु की सेवा कर (गुरु की शरण पड़, और) परमात्मा का नाम स्मरण कर, (इस तरह) तू अपने आप में से दूर नहीं जाएगी (माया कें मोह की भटकना से बच जाएगी)। (हे जिंदे!) हृदय घर में टिके रहने से परमात्मा मिल जाता है। जो जीव आत्मिक अडोलता में टिक के, सदा स्थिर प्रभु के प्रेम में जुड़ के सदा (प्रभु चरणों में) चित्त जोड़ता है, वह हृदय घर में टिका रह के परमात्मा को ढूँढ लेता है। (सो, हे जिंदे!) गुरु की बताई हुई सेवा बहुत सुख देने वाली है (पर ये सेवा वही मनुष्य करता है) जिससे परमात्मा खुद कराऐ (जिसे खुद प्रेरणा करे)। (वह मनुष्य फिर अपने हृदय खेत में) परमात्मा का नाम ही बीजता है (वहाँ) नाम ही उगता है, वह मनुष्य अपने मन में सदा नाम ही बसाए रखता है। हे नानक! सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के, प्रभु नाम में टिक के (मनुष्य लोक-परलोक में) आदर पाता है, (नाम जपने की इनायत से) पहले जन्म में किए कर्मों के संस्कारों के लेख मनुष्य के अंदर अंकुरित हो जाते हैं।1। हरि का नामु मीठा पिरा जीउ जा चाखहि चितु लाए ॥ रसना हरि रसु चाखु मुये जीउ अन रस साद गवाए ॥ सदा हरि रसु पाए जा हरि भाए रसना सबदि सुहाए ॥ नामु धिआए सदा सुखु पाए नामि रहै लिव लाए ॥ नामे उपजै नामे बिनसै नामे सचि समाए ॥ नानक नामु गुरमती पाईऐ आपे लए लवाए ॥२॥ पद्अर्थ: जा = जब। चाखहि = तू चखेगी। लाए = लगा के। रसना मुये = हे निकर्मण्य जीभ! अन रस साद = और रसों का स्वाद। गवाए = गवा के, दूर कर। हरि भाए = हरि को पसंद आए। सबदि = शब्द में। नामि = नाम में। लिव लाए = लगन लगा के। उपजै = (हरि-रस) पैदा होता है। बिनसे = (अन रस साद) समाप्त हो जाता है। लए लवाए = लगा ले, लाम की लगन पैदा करता है।2। अर्थ: हे प्यारी जिंदे! परमात्मा का नाम मीठा है (पर ये तुम्हें तभी समझ आएगी) जब तू चित्त जोड़ के (ये नाम-रस) चखेगी। हे मेरी निष्कर्मण्य जीभ! परमात्मा के नाम का स्वाद चख, और अन्य रसों के स्वाद त्याग दे। (पर जीभ के भी क्या वश?) जब परमात्मा को ठीक लगे, तभी जीभ सदा परमात्मा के नाम का स्वाद लेती है, और गुरु के शब्द में जुड़ के सुंदर हो जाती है। (हे जिंदे!) जो मनुष्य नाम स्मरण करता है नाम में तवज्जो जोड़े रखता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है, नाम की इनायत से उसके अंदर (नाम-रस की तमन्ना) पैदा होती है, नाम की इनायत से (उसके अंदर से और रसों की पकड़) दूर हो जाती है, नाम जपने की इनायत से वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है। (पर) हे नानक! परमात्मा का नाम गुरु की मति पर चलने से ही मिलता है, परमात्मा खुद ही अपने नाम की लगन पैदा करता है।2। एह विडाणी चाकरी पिरा जीउ धन छोडि परदेसि सिधाए ॥ दूजै किनै सुखु न पाइओ पिरा जीउ बिखिआ लोभि लुभाए ॥ बिखिआ लोभि लुभाए भरमि भुलाए ओहु किउ करि सुखु पाए ॥ चाकरी विडाणी खरी दुखाली आपु वेचि धरमु गवाए ॥ माइआ बंधन टिकै नाही खिनु खिनु दुखु संताए ॥ नानक माइआ का दुखु तदे चूकै जा गुर सबदी चितु लाए ॥३॥ पद्अर्थ: विडाणी = बिगानी, अपने असल साथी प्रभु के बिना किसी और की। चाकरी = नौकरी, खुशामद। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। छोडि = छोड़ के, (घर) छोड़ के, (आंतरिक ठहराव) छोड़ के। परदेसि = पराए देश में, (आत्मिक ठिकाना छोड़ के) जगह-जगह। दूजै = प्रभु के बिना किसी और के प्यार में। बिखिआ = माया। लुभाए = फसता है। भरमि = भटकना में। भुलाए = गलत रास्ते पर जाता है। दुखाली = दुख का घर, दुख देने वाली। आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। बंधन = बंधनों के कारण। चूकै = खत्म होता।3। अर्थ: हे प्यारी जिंदे! (जैसे ये बेगानी नौकरी बड़ी दुखदाई होती है कि मनुष्य अपनी स्त्री को घर छोड़ के परदेस चला जाता है, वैसे ही परमात्मा को विसार के) और खुशामदें (बड़ी दुखदाई हैं क्योंकि) जीव-स्त्री (अपना आंतरिक आत्मिक ठिकाना) छोड़ के जगह-जगह बाहर भटकती फिरती है। हे प्यारी जिंदे! माया के मोह में फंस के किसी ने कभी सुख नहीं पाया। मनुष्य माया के लोभ में फंस जाता है। (जब मनुष्य) माया के लोभ में फंसता है (तब माया की खातिर) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ जाता है (उस हालत में ये) सुख कैसे पा सकता है? (हे जिंदे! माया की खातिर ये दर-दर की खुशामद बहुत दुखदाई है) मनुष्य अपना आत्मिक जीवन (माया के बदले) बेच के अपना कर्तव्य छोड़ बैठता है। माया के (मोह के) बंधनों के कारण मनुष्य का मन (एक जगह) टिकता नहीं, (हरेक किस्म का) दुख इसे हर वक्त कष्ट देता है। हे नानक! माया के मोह से पैदा हुआ दुख तभी खत्म होता है जब मनुष्य गुरु के शब्द में अपना चिक्त जोड़ता है।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |