श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ३ ॥ कामणि हरि रसि बेधी जीउ हरि कै सहजि सुभाए ॥ मनु मोहनि मोहि लीआ जीउ दुबिधा सहजि समाए ॥ दुबिधा सहजि समाए कामणि वरु पाए गुरमती रंगु लाए ॥ इहु सरीरु कूड़ि कुसति भरिआ गल ताई पाप कमाए ॥ गुरमुखि भगति जितु सहज धुनि उपजै बिनु भगती मैलु न जाए ॥ नानक कामणि पिरहि पिआरी विचहु आपु गवाए ॥१॥

पद्अर्थ: कामणि = जीव-स्त्री। रसि = नाम रस में। बेधी = बेधी हुई। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्रेम में। मोहनि = मोहन ने, सुंदर प्रभु ने। दंबिधा = मेर-तेर। वरु = पति प्रभु। रंगु लाए = आत्मिक आनंद भोगती है। कूड़ि = झूठ से। कुसति = कु सत्य से, ठगी फरेब से। गल ताई = गले तक, नाको नाक। पिरहि पिआरी = पति प्रभु की प्यारी। आपु = स्वैभाव।1।

अर्थ: (भाग्यशाली है वह) जीव-स्त्री (जिसका मन) परमात्मा के नाम में बेधा रहता है, जो परमात्मा के प्यार में अडोलता में टिकी रहती है, और जिसके मन को सुंदर प्रभु ने मोह रखा है, (उस जीव-स्त्री की) मेरे तेर आत्मिक अडोलता में खतम हो जाती है, वह जीव-स्त्री प्रभु पति को मिल जाती है, गुरु की मति ले के वह आत्मिक रंग भोगती है।

(माया के मोह में फंस के मनुष्य का) ये शरीर झूठ ठगी फरेब से नाको नाक भरा रहता है और जीव पाप कमाता रहता है, पर गुरु शरण पड़ने से जीव प्रभु की भक्ति करता है, जिसकी इनायत से इसके अंदर आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हो जाती है (और सारे किए पाप विकार दूर हो जाते हैं) प्रभु भक्ति के बगैर (विकारों की) मैल दूर नहीं होती।

हे नानक! (वह) जीव-स्त्री प्रभु पति की प्यारी बन जाती है, जो अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर लेती है।1।

कामणि पिरु पाइआ जीउ गुर कै भाइ पिआरे ॥ रैणि सुखि सुती जीउ अंतरि उरि धारे ॥ अंतरि उरि धारे मिलीऐ पिआरे अनदिनु दुखु निवारे ॥ अंतरि महलु पिरु रावे कामणि गुरमती वीचारे ॥ अम्रितु नामु पीआ दिन राती दुबिधा मारि निवारे ॥ नानक सचि मिली सोहागणि गुर कै हेति अपारे ॥२॥

पद्अर्थ: गुर कै भाइ = गुरु के प्रेम में (टिक के)। रैणि = (प्रभु की याद को) टिकाती है। अनदिनु = हर रोज। रावे = माणती है, भोगती है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। अपारे = बेअंत।2।

अर्थ: जो जीव-स्त्री गुरु के प्रेम-प्यार में टिकी रहती है, वह प्रभु पति को मिल जाती है। वह अपने अंदर अपने हृदय में (प्रभु-पति को) बसाती है और सारी जिंदगी-रूपी रात सुख में गुजारती है। जो जीव-स्त्री अपने अंदर प्रभु का निवास-स्थान ढूँढ लेती है, गुरु की मति ले के (प्रभु के गुणों को) विचारती है, वह प्रभु-पति के मिलाप का आत्मिक आनंद पाती है।

जिस जीव-स्त्री ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस दिन रात पीया है, वह अपने अंदर से मेर-तेर को खत्म कर देती है। हे नानक! गुरु के अथाह प्यार की इनायत से वह जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभु-पति में विलीन रहती है और भाग्यशाली बन जाती है।2।

आवहु दइआ करे जीउ प्रीतम अति पिआरे ॥ कामणि बिनउ करे जीउ सचि सबदि सीगारे ॥ सचि सबदि सीगारे हउमै मारे गुरमुखि कारज सवारे ॥ जुगि जुगि एको सचा सोई बूझै गुर बीचारे ॥ मनमुखि कामि विआपी मोहि संतापी किसु आगै जाइ पुकारे ॥ नानक मनमुखि थाउ न पाए बिनु गुर अति पिआरे ॥३॥

पद्अर्थ: करे = करके। जीउ प्रीतम = हे प्रीतम जी! बिनउ = विनय, विनती। सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम से। सबदि = गुरु के शब्द से। सीगारो = श्रृंगार के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। कामि = काम में। विआपी = फसी हुई। मोहि = मोह में। जाइ = जा के।3।

अर्थ: (भाग्यशाली है वह) जीव-स्त्री जो सदा स्थिर प्रभु के नाम से व गुरु के शब्द से अपने आत्मिक जीवन को सुंदर बना के (प्रभु दर पे) विनती करती है (और कहती है:) हे अति प्यारे प्रीतम जी! मेहर करके (मेरे हृदय में) आ बसो। जो जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभु के नाम से गुरु के शब्द से अपने जीवन को खूबसूरत बना लेती है, वह अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेती है। गुरु की शरण पड़ कर वह अपने सारे कारज सवार लेती है, वह जीव-स्त्री गुरु की दी हुई विचार (के उपदेश) की इनायत से उस परमात्मा के साथ सांझ पा लेती है जो हरेक युग में ही सदा कायम रहने वाला है।

(पर) अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री काम-वासना में दबी रहती है, मोह में फंस के दुखी होती है। वह किस के आगे जा के (अपने दुखों की) पुकार करे? (कोई उसका ये दुख दूर नहीं कर सकता)। हे नानक! अति प्यारे गुरु के बिना अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री (प्रभु-चरणों में) स्थान हासिल नहीं कर सकती।3।

मुंध इआणी भोली निगुणीआ जीउ पिरु अगम अपारा ॥ आपे मेलि मिलीऐ जीउ आपे बखसणहारा ॥ अवगण बखसणहारा कामणि कंतु पिआरा घटि घटि रहिआ समाई ॥ प्रेम प्रीति भाइ भगती पाईऐ सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ सदा अनंदि रहै दिन राती अनदिनु रहै लिव लाई ॥ नानक सहजे हरि वरु पाइआ सा धन नउ निधि पाई ॥४॥३॥

पद्अर्थ: मुंध = मुग्धा, मूर्ख स्त्री। निगुणीआ = गुण विहीन। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। मेलि = अगर मिलाए। घटि घटि = हरेक घट में। भाइ = प्रेम से। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अनंदि = आनंद में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव = लगन। हरि वरु = प्रभु पति। साधन = जीव-स्त्री। नउ निधि = धरती के सारे ही नौ खजाने।4।

अर्थ: (एक तरफ जीव-स्त्री) मूर्ख है अंजान है भोली है (कि विकारों की लपटों से बचना नहीं जानती) और गुण-हीन है, (दूसरी तरफ) प्रभु-पति अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है (ऐसी अवस्था में, ऐसी जीव-स्त्री का प्रभु-पति से मिलाप कैसे हो?)। यदि प्रभु स्वयं ही (जीव-स्त्री को) मिलाए तो मिलाप हो सकता है, वह खुद ही (जीव-स्त्रीयों की भूलें गलतियां) बख्शने वाला है। प्यारा प्रभु-कंत जीव-स्त्री के अवगुण माफ करने के समर्थ है, और वह हरेक शरीर में बस रहा है (इस तरह सब के गुण-अवगुण जानता है)।

सतिगुरु ने ये शिक्षा दी है कि वह कंत-प्रभु, प्रेम-प्रीति से प्राप्त होता है भक्ति भाव से मिलता है। हे नानक! (जो जीव-स्त्री गुरु की इस शिक्षा पर चलती है) वह हर वक्त दिन रात आनंद में रहती है, वह हर समय (प्रभु-चरणों में) तवज्जो जोड़े रखती है, आत्मिक अडोलता में टिक के वह प्रभु-पति से मिल जाती है, उस जीव-स्त्री ने, जैसे, दुनिया के नौ के नौ खजाने हासिल कर लिए हों।4।3।

गउड़ी महला ३ ॥ माइआ सरु सबलु वरतै जीउ किउ करि दुतरु तरिआ जाइ ॥ राम नामु करि बोहिथा जीउ सबदु खेवटु विचि पाइ ॥ सबदु खेवटु विचि पाए हरि आपि लघाए इन बिधि दुतरु तरीऐ ॥ गुरमुखि भगति परापति होवै जीवतिआ इउ मरीऐ ॥ खिन महि राम नामि किलविख काटे भए पवितु सरीरा ॥ नानक राम नामि निसतारा कंचन भए मनूरा ॥१॥

पद्अर्थ: माया सरु = माया (के मोह) का सरोवर। सबलु = बलवान, तगड़ा। वरतै = अपना प्रभाव डाल रहा है। दुतरु = दुस्तर, जिससे पार गुजरना बहुत मुश्किल है। बोहिथा = जहाज। खेवटु = मल्लाह। इन बिधि = इस तरीके से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। इउ = इस तरह। राम नामि = परमात्मा के नाम ने। किलविख = पाप। मनूरा = जला हुआ लोहा, लोहे की मैल। कंचन = सोना।1।

अर्थ: माया (के मोह) का लबालब भरा समुंदर अपना जोर डाल रहा है, इसमें से तैरना बहुत ही मुश्किल है। (हे भाई!) कैसे इसमें से पार लंघा जाए?

हे भाई! परमात्मा के नाम को जहाज बना, गुरु के शब्द को मल्लाह बना के (उस जहाज) में बैठा। यदि मनुष्य परमात्मा के नाम-जहाज में गुरु के शब्द-मल्लाह को बैठा दे, तो परमात्मा स्वयं ही (माया के सरोवर से) पार लंघा देता है। (हे भाई!) इस दुश्वार माया-सरोवर में यूँ ही पार लांघ सकते हैं। गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो जाती है, इस तरह दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए माया की ओर से अछोह हो जाते हैं।

हे नानक! परमात्मा के नाम की इनायत से (सारे) पाप एक छिन में कट जाते हैं। (जिसके काटे जाते हैं, उसका) शरीर पवित्र हो जाता है। परमात्मा के नाम से ही (माया-सरोवर से) पार लांघ सकते हैं औार लोहे की मैल (जंग लगा लोहे) (जैसा नकारा हुआ मन) सोना बन जाता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh