श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 247 मनमुख मुगध गावारु पिरा जीउ सबदु मनि न वसाए ॥ माइआ का भ्रमु अंधु पिरा जीउ हरि मारगु किउ पाए ॥ किउ मारगु पाए बिनु सतिगुर भाए मनमुखि आपु गणाए ॥ हरि के चाकर सदा सुहेले गुर चरणी चितु लाए ॥ जिस नो हरि जीउ करे किरपा सदा हरि के गुण गाए ॥ नानक नामु रतनु जगि लाहा गुरमुखि आपि बुझाए ॥४॥५॥७॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगध = मूर्ख। गावारु = उजड्ड। मनि = मन में। भ्रमु = चक्कर, भटकना। अंधु = अंधा। मारगु = रास्ता। आपु = अपने आप को। गणाए = बड़ा जाहिर करता है। चाकर = सेवक। सुहेले = सुखी। लाए = लगा के। जिस नो = जिस पर। जगि = जगत में। लाहा = लाभ। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ के। आपि = (परमात्मा) स्वयं।4। अर्थ: हे प्यारी जिंदे! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य मूर्ख और उजड्ड ही रहता है, वह गुरु के शब्द को अपने मन में नहीं बसाता। हे जिंदे! माया (के मोह) का चक्कर उसे (सही जीवन-राह से) अंधा कर देता है (इस वास्ते वह) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता नहीं ढूँढ सकता। गुरु की मर्जी के मुताबिक चले बिना मनुष्य हरि के मिलाप का रास्ता नहीं ढूँढ सकता (क्योंकि) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा अपने आप को बड़ा प्रगट करता रहता है (और उसके अंदर सेवक वाली निम्रता नहीं आ सकती)। (दूसरी तरफ) परमात्मा के सेवक-भक्त गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ के सदा सुखी रहते हैं। (पर, हे जिंदे! किसी के वश की बात नहीं) जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं दया करता है, वही सदा परमात्मा के गुण गाता है। हे नानक! परमात्मा का नाम ही जगत में (असल) कमाई है, इस बात की सूझ परमात्मा स्वयं ही (मनुष्य को) गुरु की शरण में ला के देता है।4।5। रागु गउड़ी१ छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरै मनि बैरागु भइआ जीउ किउ देखा प्रभ दाते ॥ मेरे मीत सखा हरि जीउ गुर पुरख बिधाते ॥ पुरखो बिधाता एकु स्रीधरु किउ मिलह तुझै उडीणीआ ॥ कर करहि सेवा सीसु चरणी मनि आस दरस निमाणीआ ॥ सासि सासि न घड़ी विसरै पलु मूरतु दिनु राते ॥ नानक सारिंग जिउ पिआसे किउ मिलीऐ प्रभ दाते ॥१॥ पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। बैरागु = उत्सुक्ता, उतावलापन, जल्दबाजी। देखा = मैं देखूँ। प्रभ = हे प्रभु! दाते = हे दातार! सखा = साथी। बिधाते = हे विधाता! स्री = श्री, लक्ष्मी। स्रीधरु = श्रीधर, लक्ष्मी का आसरा। मिलह = हम मिलें। उडीणीआ = व्याकुल। कर = हाथों से। करहि = (जो) करती हैं। आस दरस = दर्शन की आस। सासि सासि = हरेक श्वास से। मूरतु = महूरत, दो घड़ी का समय। सारंगि = पपीहा।1। अर्थ: हे मेरे दातार प्रभु! हे मेरे मित्र! हे मेरे साथी! हे हरि! हे सबसे बड़े! हे सर्व व्यापक! हे विधाता जीउ! (तेरे दर्शन के बिना) मेरे मन में व्याकुलता पैदा हो रही है। (बता) मैं तुझे कैसे देखूँ? तू सर्व-व्यापक है, तू सबको पैदा करने वाला है, तू ही लक्ष्मी-पति है (तुझसे विछुड़ के) हम व्याकुल हो रही हैं, (बता) हम तुझे कैसे मिलें? (हे जिंदे! जो जीव-स्त्रीयां) अहं त्याग के (अपने) हाथों से सेवा करती हैं, (अपना) सिर (गुरु के) चरणों में रखती हैं, और (अपने) मन में (प्रभु के) दर्शन की आस रखती हैं, उन्हें हरेक साँस के साथ (वह याद रहता है) उन्हें दिन रात (किसी भा समय) एक घड़ी भर, एक पल भर, एक महूरत भर वह प्रभु नहीं भूलता। हे नानक! (कह:) हे दातार प्रभु! (हम जीव तेरे बिना) प्यासे पपीहे की तरह (तड़प रहे) हैं, (बता) तुझे कैसे मिलें?।1। इक बिनउ करउ जीउ सुणि कंत पिआरे ॥ मेरा मनु तनु मोहि लीआ जीउ देखि चलत तुमारे ॥ चलता तुमारे देखि मोही उदास धन किउ धीरए ॥ गुणवंत नाह दइआलु बाला सरब गुण भरपूरए ॥ पिर दोसु नाही सुखह दाते हउ विछुड़ी बुरिआरे ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु घरि आवहु नाह पिआरे ॥२॥ पद्अर्थ: बिनउ = विनती। करउ = करूँ, मैं करती हूँ। कंत = हे कंत! देखि = देख के। चलत = चरित्र, चमत्कार। मोही = मैं ठगी गई हूँ। धन = जीव-स्त्री। धीरए = धैर्य हासिल करे। नाह = हे नाथ! हे पति! बाला = सदा जवान रहने वाला। पिर = हे पति! हउ = मैं (खुद)। बुरिआरे = मंद कर्मण। घरि = हृदय घर में।2। अर्थ: हे प्यारे कंत जीउ! सुन, मैं एक विनती करती हूँ। तेरे चमत्कार-तमाशे देख-देख के मैं ठगी गई हूँ। (तेरे चमत्कार-तमाशों ने) मेरा मन मोह लिया है मेरा तन (हरेक इंद्रिय) मोहे गए हैं। (पर अब ये) जीव-स्त्री (इन चमत्कार-तमाशों से) उदास हो गई है, (तेरे मिलाप के बिना इसे) धैर्य नहीं आ सकता। हे सब गुणों के मालिक पति-प्रभु! तू दया का घर है, तू सदा जवान है, तू सारे गुणों से भरपूर है। हे सारे सुखों के दाते पति! (तेरे में कोई) दोश नहीं, मैं मंद-कर्मण्य स्वयं ही तुझसे विछुड़ी हुई हूँ। हे नानक! (कह:) हे प्यारे पति! (ये जीव-स्त्री) विनती करती है, तू मेहर कर के इसके हृदय घर में आ बस।2। हउ मनु अरपी सभु तनु अरपी अरपी सभि देसा ॥ हउ सिरु अरपी तिसु मीत पिआरे जो प्रभ देइ सदेसा ॥ अरपिआ त सीसु सुथानि गुर पहि संगि प्रभू दिखाइआ ॥ खिन माहि सगला दूखु मिटिआ मनहु चिंदिआ पाइआ ॥ दिनु रैणि रलीआ करै कामणि मिटे सगल अंदेसा ॥ बिनवंति नानकु कंतु मिलिआ लोड़ते हम जैसा ॥३॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। अरपी = मैं अर्पित करता हूँ। सभि = सारे। प्रभ सदेसा = प्रभु (के मिलाप का) संदेश। सुथानि = सुंदर स्थान में, साधु-संगत में (बैठ के)। पहि = पास। माहि = में। मनहु चिंदिआ = मन में चितवा हुआ, मन इच्छित। रैणि = रात। रलीआ = मौजें। कामणि = (जीव) स्त्री। अंदेसा = चिन्ता फिक्र।3। अर्थ: जो मुझे प्रभु से मिलाप कराने वाला संदेशा दे, मैं उस मित्र-प्यारे को अपना मन भेट कर दूँ, अपना शरीर (हृदय) अर्पित कर दूँ, (ये) सारे देश (ज्ञानेंद्रियां) भेट कर दूँ, अपना सिर उसके हवाले कर दूँ। (जिस जीव-स्त्री ने) साधु-संगत की इनायत से अपना सिर गुरु के हवाले कर दिया, गुरु ने उसे हृदय में बस रहा परमात्मा दिखला दिया; एक छिन में ही उस जीव-स्त्री का सारा ही (प्रभु से विछोड़े का) दुख दूर हो गया, (क्योंकि) उसे मन की मुराद मिल गई। वह जीव-स्त्री (प्रभु चरणों में जुड़ के) दिन रात आत्मिक आनंद पाती है, उसके सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं। नानक विनती करता है: (जो जीव-स्त्री साधु-संगत का आसरा ले के अपने आप को गुरु के हवाले करती है उसे) पति प्रभु मिल जाता है और वह पति प्रभु ऐसा है, जैसा हम सारे जीव (सदा) ढूँढते रहते हैं, (वही है जिससे हम सारे मिलने की चाहत रखते हैं)।3। मेरै मनि अनदु भइआ जीउ वजी वाधाई ॥ घरि लालु आइआ पिआरा सभ तिखा बुझाई ॥ मिलिआ त लालु गुपालु ठाकुरु सखी मंगलु गाइआ ॥ सभ मीत बंधप हरखु उपजिआ दूत थाउ गवाइआ ॥ अनहत वाजे वजहि घर महि पिर संगि सेज विछाई ॥ बिनवंति नानकु सहजि रहै हरि मिलिआ कंतु सुखदाई ॥४॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। अनद = चाव। वधाई = वह आत्मिक हालत जब दिख प्रफुल्लित होता है, जब दिल को खुशी का हुलारा आता है। वजी = अपनी पूरी ताकत में आ रही है (जैसे ढोल बजने से अन्य छोटी-मोटी आवाजें मद्यम पड़ जाती हैं)। घरि = हृदय घर में। तिखा = तृखा, माया की तृष्णा। गुपालु = सृष्टि का पालणहार। सखी = सखियों ने, सहेलियों ने, ज्ञानेंद्रियों ने। मंगलु = खुशी के गीत। बंधप = सन्बंधी। हरखु = खुशी, चाव। दूत थाउ = दूतों की जगह, कामादिक वैरियों के नाम निशान। अनहत = अन+आहत, बिना बजाए, एक रस, लगातार। वजहि = बजते हैं। संगि = साथ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुखदाई = सुख देने वाला।4। अर्थ: हे सहेलियो! (जब का) मेरे हृदय घर में सुंदर प्यारा प्रभु पति आ बसा है, मेरी सारी (माया की) तृष्णा मिट गई है, मेरे मन में (अब) चाव बना रहता है, मेरे अंदर वह आत्मिक हालत प्रबल बनी हुई है कि मेरा दिल हुलारे ले रहा है। (जबसे) सोहणा प्यारा ठाकुर गोपाल मुझे मिला है, मेरी सहेलियों ने (मेरे ज्ञानेंद्रियों ने) खुशी के गीत गाना शुरू कर दिए हैं। मेरे इन मित्रों-संबन्धियों को (मेरी ज्ञानेंद्रियों को) चाव चढ़ा रहता है और (मेरे अंदर से) कामादिक वैरियों का नाम-निशान मिट गया है। मैंने प्रभु पति के साथ सेज बिछा ली है, (मैंने अपने दिल को प्रभु की याद के साथ जोड़ दिया है), अब मेरे हृय में बिन बजाए बाजे बज रहे हैं (मेरे हृदय में लगातारवह उल्लास बना रहता है जो बजते बाजों को सुन के अनुभव करते हैं।) नानक विनती करता है: जिस जीव-स्त्री को सारे सुखों का दाता प्रभु पति मिल जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है।4।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |