श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 244 धन एकलड़ी जीउ बिनु नाह पिआरे ॥ दूजै भाइ मुठी जीउ बिनु गुर सबद करारे ॥ बिनु सबद पिआरे कउणु दुतरु तारे माइआ मोहि खुआई ॥ कूड़ि विगुती ता पिरि मुती सा धन महलु न पाई ॥ गुर सबदे राती सहजे माती अनदिनु रहै समाए ॥ नानक कामणि सदा रंगि राती हरि जीउ आपि मिलाए ॥३॥ पद्अर्थ: भाइ = प्यार में। मुठी = ठगी गई। करारे = तगड़े। दुतरु = दुष्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल हो। मोहि = मोह में। खुआई = खुंझी हुई, वंचित। कूड़ि = झूठ में, झूठे मोह में। विगुती = ख्वार हुई, परेशान हुई। पिरि = पिर ने, पति ने। मुती = छोड़ दी। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त।3। अर्थ: हे जीउ! जो जीव-स्त्री प्यारे पति प्रभु के बिना अकेली (सूना जीवन व्यतीत कर रही) है, वह गुरु के सहारा देने वाले शब्द के बिना और ही प्यार में ठगी जा रही है। गुरु के शब्द के बिना और कोई नहीं जो उसे दुष्तर (संसार समुंदर) से पार लंघा सकता है, वह माया के मोह में (फसी) परेशान होती रहती है। जब जीव-स्त्री (माया के) झूठे मोह में परेशान होती है, तब (समझो कि) पति प्रभु से वह त्यागी हुई पड़ी है, वह जीव-स्त्री परमात्मा पति का ठिकाना नहीं ढूँढ सकती। (पर) जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द में रंगी रहती है, वह आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है, वह हर वक्त (प्रभु चरणों में) लीन रहती है। हे नानक! वह जीव-स्त्री सदा (प्रभु पति के) प्रेम रंग में रंगी रहती है, उसे परमात्मा खुद (अपने चरणों में) मिलाए रखता है।3। ता मिलीऐ हरि मेले जीउ हरि बिनु कवणु मिलाए ॥ बिनु गुर प्रीतम आपणे जीउ कउणु भरमु चुकाए ॥ गुरु भरमु चुकाए इउ मिलीऐ माए ता सा धन सुखु पाए ॥ गुर सेवा बिनु घोर अंधारु बिनु गुर मगु न पाए ॥ कामणि रंगि राती सहजे माती गुर कै सबदि वीचारे ॥ नानक कामणि हरि वरु पाइआ गुर कै भाइ पिआरे ॥४॥१॥ पद्अर्थ: भरमु = मन की भटकना। चुकाए = दूर करे। माए = हे माँ! घोर अंधारु = घुप अंधेरा। मगु = रास्ता। वरु = पति। भाइ = प्यार में।4। अर्थ: हे जीउ! (प्रभु चरणों में) तब ही मिल सकते हैं, अगर प्रभु खुद ही मिला ले। परमात्मा के बिना (उसके चरणों में) और कौन मिला सकता है? (क्योंकि,) हे जीउ! अपने प्रीतम गुरु के बिना और कोई (हमारे मन की) भटकना दूर नहीं कर सकता। हे माँ! अगर गुरु (जीव-स्त्री के मन की) भटकना दूर कर दे, तो इस तरह (प्रभु चरणों में) मिल सकते हैं, तभी जीव-स्त्री आत्मिक आनंद पाती है। गुरु की शरण पड़े बिना उसे (जीवन का सही) रास्ता नहीं मिल सकता। हे नानक! जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द की इनायत से (प्रभु पति के गुणों को) अपने सोच-मण्डल में टिकाती है, वह प्रभु के प्रेम रंग में रंगी रहती है, और आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है। गुरु के प्रेम में गुरु के प्यार में टिकने के कारण उस जीव-स्त्री का प्रभु पति से मिलाप हो जाता है।4।1। नोट: पाठक सज्जन इस छंत में और गुरु नानक देव जी के पहले दो छंतों में शब्दों की गहरी समानता देखें, जो बा-सबब ही नहीं हो गई। गुरु नानक देव जी की वाणी गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थी। उदाहरण के तौर पर कुछ समान शब्द यहां दिए जा रहे हैं; साधन, नानक साधन मिलै मिलाई, ऐकलड़ी, नाह। गउड़ी महला ३ ॥ पिर बिनु खरी निमाणी जीउ बिनु पिर किउ जीवा मेरी माई ॥ पिर बिनु नीद न आवै जीउ कापड़ु तनि न सुहाई ॥ कापरु तनि सुहावै जा पिर भावै गुरमती चितु लाईऐ ॥ सदा सुहागणि जा सतिगुरु सेवे गुर कै अंकि समाईऐ ॥ गुर सबदै मेला ता पिरु रावी लाहा नामु संसारे ॥ नानक कामणि नाह पिआरी जा हरि के गुण सारे ॥१॥ पद्अर्थ: खरी = बहुत। निमाणी = गरीब। किउ जीवा = मैं कैसे जी सकती हूँ? मेरे अंदर आत्मिक जीवन नहीं आ सकता। माई = हे माँ! नीद = सुख की नींद, शांति। कापड़ु = कपड़ा। तनि = शरीर पर। कापरु = कपड़ा। जा = जब। पिर भावै = पति को पसंद आती है। अंकि = अंक में, गोद में। सबदै = शब्द द्वारा। रावी = मिल सकती हूँ। लाहा = लाभ। संसारे = जगत में। कामणि = जीव-स्त्री। नाह = नाथ, पति। सारे = संभालती है।1। अर्थ: हे मेरी माँ! पति प्रभु के मिलाप के बिना मेरी जीवात्मा बहुत कंगाल सी रहती है, प्रभु पति से मेल के बिना मेरे अंदर आत्मिक जीवन नहीं आ सकता। (हे माँ!) प्रभु पति के बिना मेरे अंदर शांति नहीं आती, मुझे अपने शरीर पर कोई कपड़ा नहीं सुहाता। (हे माँ!) कपड़ा शरीर पर तभी सुहाता है जब मैं प्रभु पति को भा जाऊँ। (पर, हे माँ!) गुरु की मति पर चलने से ही प्रभु में चिक्त जुड़ सकता है। जब जीव-स्त्री गुरु की शरण पड़ती है, तब वह सदा वास्ते भाग्यशाली बन जाती है। (इस वास्ते, हे माँ!) गुरु की गोद में टिके रहना चाहिए। (हे माँ!) जब गुरु के शब्द में (मेरा चिक्त) जुड़ता है, तब मैं प्रभु पति को मिल पड़ती हूँ। (हे माँ!) प्रभु का नाम ही जगत में (असल) कमाई है। हे नानक! जीव-स्त्री जब परमात्मा के गुण अपने हृदय में बसाती है, तब वह प्रभु पति को प्यारी लगने लग पड़ती है।1। सा धन रंगु माणे जीउ आपणे नालि पिआरे ॥ अहिनिसि रंगि राती जीउ गुर सबदु वीचारे ॥ गुर सबदु वीचारे हउमै मारे इन बिधि मिलहु पिआरे ॥ सा धन सोहागणि सदा रंगि राती साचै नामि पिआरे ॥ अपुने गुर मिलि रहीऐ अम्रितु गहीऐ दुबिधा मारि निवारे ॥ नानक कामणि हरि वरु पाइआ सगले दूख विसारे ॥२॥ पद्अर्थ: साधन = जीव-स्त्री। अहि = दिन। निसि = रात। वीचारे = विचारती है, सोच मण्डल में टिकाती है। इन बिधि = इस तरीके से। सोहागणि = अच्छे भाग्यों वाली। रंगि = प्रेम रंग में। साचै नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। गहीऐ = प्राप्त कर लेते हैं। दुबिधा = मेर-तेर। निवारे = दूर कर लेती है। वरु = पति। सगले = सारे।2। अर्थ: (हे मेरी माँ!) जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द को अपने सोच मण्डल में टिकाती है, वह दिन रात प्रभु पति के प्रेम रंग में रंगी रहती है। वह जीव-स्त्री अपने प्रभु पति के मिलाप में आत्मिक आनंद भोगती है (क्योंकि) गुरु के शब्द को विचार मण्डल में संभालती है वह अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेती है। (हे सत्संगी सहेलियो! तुम भी) इस प्रकार प्रभु प्यारे को मिलो। (हे माँ!) वह जीव-स्त्री हमेशा भाग्यशाली है, सदा प्रभु पति के प्रेम रंग में रंगी रहती है, जो सदा स्थिर प्रभु के नाम में प्रेम करती है। हे सहेलियो! अपने गुरु को मिल के रहना चाहिए (गुरु से ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल ले सकते हैं। (जिसे ये नाम-जल मिल जाता है वह अपने अंदर से) मेर-तेर को समाप्त कर देती है। हे नानक! उस जीव-स्त्री ने पति प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया, उसने सारे दुख भुला लिए।2। कामणि पिरहु भुली जीउ माइआ मोहि पिआरे ॥ झूठी झूठि लगी जीउ कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥ कूड़ु निवारे गुरमति सारे जूऐ जनमु न हारे ॥ गुर सबदु सेवे सचि समावै विचहु हउमै मारे ॥ हरि का नामु रिदै वसाए ऐसा करे सीगारो ॥ नानक कामणि सहजि समाणी जिसु साचा नामु अधारो ॥३॥ पद्अर्थ: पिरहु = पति से। मोहि = मोह में। झूठि = झूठ में, झूठे जगत के मोह में। मुठी = लूटी हुई। कूड़िआरे = झूठे पदार्थों की बंजारन। सारे = संभालती है। जूऐ = जूए में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। रिदै = हृदय में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अधारो = आसरा।3। अर्थ: (हे माँ!) जो जीव-स्त्री प्रभु पति (की याद) से टूट जाती है, वह माया के मोह में (फंस के और पदार्थों को) प्यार करने लग पड़ती है। वह झूठे और कूड़ पदार्थों की वणजारन झूठे मोह में लगी रहती है, झूठे मोह में ठगी जाती है। पर जो जीव-स्त्री गुरु की मति को (अपने हृदय में) संभालती है, वह झूठे मोह को (अपने अंदर से) दूर कर लेती है, (और इस तरह) अपना जन्म व्यर्थ नहीं गवाती। वह जीव-स्त्री गुरु के शब्द को संभालती है, सदा स्थिर प्रभु में लीन हो जाती है और अपने अंदर से अहंकार को खत्म कर देती है, वह परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसा लेती है - वह ऐसा आत्मिक श्रृंगार करती है। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम जिस जीव-स्त्री का जीवन आसरा है, वह जीव-स्त्री आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है।3। मिलु मेरे प्रीतमा जीउ तुधु बिनु खरी निमाणी ॥ मै नैणी नीद न आवै जीउ भावै अंनु न पाणी ॥ पाणी अंनु न भावै मरीऐ हावै बिनु पिर किउ सुखु पाईऐ ॥ गुर आगै करउ बिनंती जे गुर भावै जिउ मिलै तिवै मिलाईऐ ॥ आपे मेलि लए सुखदाता आपि मिलिआ घरि आए ॥ नानक कामणि सदा सुहागणि ना पिरु मरै न जाए ॥४॥२॥ पद्अर्थ: मै = मुझे। नैणी = आँखों में। भावै = अच्छा लगता है। हावै = हाहुके में। करउ = मैं करती हूँ। घरि = घर में। आए = आ के।4। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु जी! मुझे मिल, तेरे बिना मैं बहुत आजिज हूँ। (हे प्रीतम जी!) तेरे बिना मेरे आँखों में नींद नहीं आती। मुझे ना अन्न अच्छा लगता है ना पानी। (हे माँ! प्रीतम प्रभु के विछोड़े में) अन्न-पानी अच्छा नहीं लगता, सिसकियों में जिंद दुखी रहती है, पति प्रभु के बिना आत्मिक आनंद प्राप्त नहीं होता। (हे माँ!) मैं गुरु के आगे विनती करती हूँ - हे गुरु! अगर तुझे मेरी विनती ठीक लगे, तो जैसे भी हो सके मुझे (प्रीतम-प्रभु) मिला। (हे माँ!) सारे सुखों का देने वाला प्रीतम प्रभु (जिसको मिलाता है) स्वयं ही मिला लेता है, उसके हृदय घर में खुद ही आ के मिल लेता है। हे नानक! वह जीव-स्त्री सदा के लिए भाग्यशाली हो जाती है क्योंकि उसका (ये प्रभु-) पति ना कभी मरता है ना ही उससे विछुड़ता है।4।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |