श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 235 मन करहला वडभागीआ हरि एक नदरि निहालि ॥ आपि छडाए छुटीऐ सतिगुर चरण समालि ॥४॥ पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = देखे। छडाए = माया के जाल से बचाए। छुटीऐ = (जाल से) खलासी मिल सकती है।4। अर्थ: हे बे-मुहार मन! वह मनुष्य बहुत भाग्यशाली बन जाता है जिस पर परमात्मा मिहर की निगाह करता है। अगर परमात्मा स्वयं ही (माया के जाल में) से खलासी कराए तो ही गुरु के चरणों को (हृदय में) संभाल के (इस जाल में से) निकल सकते हैं।4। मन करहला मेरे पिआरिआ विचि देही जोति समालि ॥ गुरि नउ निधि नामु विखालिआ हरि दाति करी दइआलि ॥५॥ पद्अर्थ: देही = शरीर। समालि = संभाल के रख। गुरि = गुरु ने। नउ निधि = (दुनिया के सारे) नौ खजाने। दइआलि = दयालु ने।5। अर्थ: हे मेरे प्यारे मन! हे बे-मुहार मन! (तेरे) शरीर में (ईश्वरीय) ज्योति (बस रही है, इसे) संभाल के रख। परमात्मा का नाम (मानो, जगत के सारे) नौ खजाने (हैं) जिसे गुरु ने ये नाम दिखा दिया है, दयालु परमात्मा ने उस मनुष्य पर (नाम की यह) बख्शिश कर दी है।5। मन करहला तूं चंचला चतुराई छडि विकरालि ॥ हरि हरि नामु समालि तूं हरि मुकति करे अंत कालि ॥६॥ पद्अर्थ: विकरालि = डरावने (कूएं) में। अंतकालि = आखिरी समय।6। अर्थ: हे बे-मुहार मन! तू कभी कहीं टिक के नहीं बैठता, ये चंचलता ये चालाकी छोड़ दे, (ये चतुराई) भयानक (कूएं) में (गिरा देगी)। (हे बे-मुहार मन!) परमात्मा का नाम सदा याद रख, परमात्मा (का नाम) ही अंत समय (माया के मोह के जाल से) खलासी दिलवाता है।6। मन करहला वडभागीआ तूं गिआनु रतनु समालि ॥ गुर गिआनु खड़गु हथि धारिआ जमु मारिअड़ा जमकालि ॥७॥ पद्अर्थ: गुर गिआनि = गुरु का दिया हुआ ज्ञान। खड़गु = तलवार। हथि = हाथ में। जम कालि = जम काल ने, जम के काल ने, आत्मिक मौत को समाप्त करने वाले (ज्ञान-खड़ग) ने।7। अर्थ: हे बे-मुहार मन! परमात्मा के साथ गहरी सांझ (एक) रत्न (है, इसे) तू संभाल के रख, और बहुत भाग्यशाली बन। गुरु का दिया हुआ ज्ञान (गुरु के द्वारा परमात्मा के साथ डाली हुई गहरी सांझ, एक) तलवार है (खड़ग है), (जिस मनुष्य ने ये तलवार अपने) हाथ में पकड़ ली, उसने (आत्मिक) मौत को मारने वाले (इस ज्ञान-खड़ग) के द्वारा जम को (मौत के सहम को, आत्मिक मौत को) मार डाला।7। अंतरि निधानु मन करहले भ्रमि भवहि बाहरि भालि ॥ गुरु पुरखु पूरा भेटिआ हरि सजणु लधड़ा नालि ॥८॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। भ्रमि = भटकना में (पड़ कर)। भेटिआ = मिल पड़ा।8। अर्थ: हे बे-मुहार मन! (परमात्मा का नाम-) खजाना (तेरे) अंदर है, पर तू भटकना में पड़ के बाहर ढूँढता फिरता है। (हे मन!) परमात्मा का रूप गुरु जिस मनुष्य को मिल जाता है, वह मनुष्य सज्जन परमात्मा को अपने साथ बसता (अंदर ही) ढूँढ लेता है।8। रंगि रतड़े मन करहले हरि रंगु सदा समालि ॥ हरि रंगु कदे न उतरै गुर सेवा सबदु समालि ॥९॥ पद्अर्थ: रंगि = दुनिया के रंग तमाशे में। रतड़े = मस्त। समालि = संभाल के रख।9। अर्थ: (माया के मोह के) रंग में रंगे हुए हे बे-मुहारे मन! परमात्मा का प्रेम रंग सदा (अपने अंदर) संभाल के रख, परमात्मा (के प्यार) का (ये) रंग फिर कभी फीका नहीं पड़ता, (इस वास्ते ये रंग प्राप्त करने के लिए) तू गुरु की शरण पड़, तू गुरु का शब्द अपने हृदय में संभाल।9। हम पंखी मन करहले हरि तरवरु पुरखु अकालि ॥ वडभागी गुरमुखि पाइआ जन नानक नामु समालि ॥१०॥२॥ पद्अर्थ: पंखी = पक्षी। अकालि = अकाल ने।10। अर्थ: हे बे-मुहारे मन! हम जीव पक्षी हैं। अकाल पुरख ने (हमें जगत में भेजा है जैसे कोई वृक्ष पक्षियों के रैन-बसेरा के लिए आसरा होता है, वैसे ही) वह सर्व-व्यापक हरि (हम जीव-पक्षियों का आसरा-) वृक्ष है। हे दास नानक! (कह: हे मन!) गुरु के द्वारा परमात्मा का नाम हृदय में संभाल के बहुत भाग्यशाली (जीव-पक्षियों) ने वह आसरा हासिल किया है।10।2। नोट: गुरु रामदास साहिब जी के ये दो “करहले” अष्टपदियों में ही शामिल हैं। इन अष्टपदियों का शीर्षक उन्होंने ‘करहले’ रखा है क्योंकि इनके हरेक बंद में सतिगुरु जी ने मन को ‘करहल’ से उपमा दे के संबोधन किया है। रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५ असटपदीआ जब इहु मन महि करत गुमाना ॥ तब इहु बावरु फिरत बिगाना ॥ जब इहु हूआ सगल की रीना ॥ ता ते रमईआ घटि घटि चीना ॥१॥ पद्अर्थ: जब = जब। इहु = ये जीव। गुमाना = मान, अहंकार। बावरु = झल्ला, कमला। बिगाना = बेगाना। रीना = चरणों की धूल। ता ते = तब से। रमईआ = सोहणा राम। चीना = पहचान लिया। घटि घटि = हरेक शरीर में।1। अर्थ: (हे भाई!) जब मनुष्य (अपने) मन में (बड़े होने का) मान करता है तब (वह अहंकार में) बावरा (हुआ) मनुष्य (सब लोगों से) अलग अलग हो के चलता फिरता है, पर जब ये सब लोगों की चरणधूड़ हो गया, तब इसने सोहणे राम को हरेक शरीर में देख लिया।1। सहज सुहेला फलु मसकीनी ॥ सतिगुर अपुनै मोहि दानु दीनी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सुहेला = आसान, सुखी। मसकीनी = गरीबी स्वभाव, आजजी। अपुनै = अपने ने। मोहि = मुझे।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मेरे गुरु ने मुझे (गरीबी स्वभाव की) दाति बख्शी। उस गरीबी स्वभाव का फल ये हुआ है कि मुझे आत्मिक अडोलता मिल गई, मैं सुखी हूँ।1। रहाउ। जब किस कउ इहु जानसि मंदा ॥ तब सगले इसु मेलहि फंदा ॥ मेर तेर जब इनहि चुकाई ॥ ता ते इसु संगि नही बैराई ॥२॥ पद्अर्थ: किस कउ = किसी को। सगले = सारे (मनुष्य)। फंदा = जाल, फरेब। इनहि = इसने। चुकाई = खत्म कर दी। बैराई = वैर।2। अर्थ: जब तक मनुष्य हर किसी को बुरा समझता है तब तक (इसे ऐसा प्रतीत होता है कि) सारे लोग इसके वास्ते (ठगी के) जाल बिछा रहे हैं, पर जब इसने (अपने अंदर से) भेद भाव दूर कर दिया, तब (इसे) यकीन बन जाता है कि (कोई) इसके साथ वैर नहीं कर रहा।2। जब इनि अपुनी अपनी धारी ॥ तब इस कउ है मुसकलु भारी ॥ जब इनि करणैहारु पछाता ॥ तब इस नो नाही किछु ताता ॥३॥ पद्अर्थ: इनि = इस ने। धारी = मन में टिकाव के लिए। अपुनी अपनी-अपनी ही गर्ज (मतलब)। इस कउ = इसे, इस को। ताता = जलन ईष्या।3। नोट: ‘इस कउ’ मे शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘कउ’ के कारण हट गई है। ‘इस नो’ में से शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। अर्थ: जब तक मनुष्य के (मन में) अपना ही मतलब टिकाए रखा, तब तक इसे बड़ी मुश्किल बनी रहती है। पर जब इसने (हर जगह) विधाता को ही (बसता) पहिचान लिया, तब इसे (किसी से) कोई जलन नहीं रह जाती।3। जब इनि अपुनो बाधिओ मोहा ॥ आवै जाइ सदा जमि जोहा ॥ जब इस ते सभ बिनसे भरमा ॥ भेदु नाही है पारब्रहमा ॥४॥ पद्अर्थ: बाधिओ = बाँध लिया, पक्का कर लिया। जमि = यम ने। आत्मिक मौत ने। जोहा = निगाह में रखा। इस ते = इससे। भेदु = फर्क।4। नोट: ‘इस ते’ में से शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई। अर्थ: जब तक इस मनुष्य ने (दुनिया से) अपना मोह पक्का किया हुआ है, तब तक ये भटकता रहता है, आत्मिक मौत ने (तब तक) सदा इसे अपनी ताक में रखा हुआ है। पर जब इसके अंदर से सारी भटकने खत्म हो जाती हैं, तब इसमें और परमात्मा में कोई दूरी नहीं रह जाती।4। जब इनि किछु करि माने भेदा ॥ तब ते दूख डंड अरु खेदा ॥ जब इनि एको एकी बूझिआ ॥ तब ते इस नो सभु किछु सूझिआ ॥५॥ पद्अर्थ: भेदा = दूरियां, अलगाव। अरु = और (शब्द ‘अरु’ व ‘अरि’)। खेदा = कष्ट। एको एकी = एक परमात्मा को ही। सभ किछु = हरेक ठीक जीवन जुगति।5। अर्थ: जब तक इस मनुष्य ने (दूसरों से) कोई दूरियां मिथ रखीं हैं, तब तक इसकी आत्मा को दुखों-कष्टों की सजाएं मिलती रहती हैं, पर जब इसने (हर जगह) एक परमात्मा को ही बसता समझ लिया, तब इसे (सही जीवन जुगति का) हरेक तरीका समझ आ जाता है।5। जब इहु धावै माइआ अरथी ॥ नह त्रिपतावै नह तिस लाथी ॥ जब इस ते इहु होइओ जउला ॥ पीछै लागि चली उठि कउला ॥६॥ पद्अर्थ: धावै = दौड़ता है। अरथी = जरूरतमंद (हो के), मुथाज। तिस = तृष्णा। जउला = परे, अलग। कउला = माया लक्ष्मी।6। अर्थ: जब तक ये मनुष्य माया का मुहताज हो के (हर तरफ) भटकता फिरता है, तब तक ये तृप्त नहीं होता। इसकी माया वाली तृष्णा खत्म नहीं होती। जब ये मनुष्य माया के मोह से अलग हो जाता है, तब माया इसके पीछे पीछे चल पड़ती है। (माया इसकी दासी बन जाती है)।6। करि किरपा जउ सतिगुरु मिलिओ ॥ मन मंदर महि दीपकु जलिओ ॥ जीत हार की सोझी करी ॥ तउ इसु घर की कीमति परी ॥७॥ पद्अर्थ: जउ = जब। दीपक = दीया। जलिओ = जल पड़ा। कीमति = कद्र।7। अर्थ: जब (किसी मनुष्य को) गुरु मेहर करके मिल जाता है, उसके मन में ज्ञान हो जाता है, जैसे घर में दीपक जल पड़ता है (और घर की हरेक चीज दिखाई देने लग पड़ती है) तब मनुष्य को समझ आ जाती है कि मानव जन्म में दरअसल जीत क्या है और हार क्या, तब इसे अपने शरीर की कद्र मालूम हो जाती है (और इसे विकारों में नहीं बर्बाद करता)।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |