श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 236 करन करावन सभु किछु एकै ॥ आपे बुधि बीचारि बिबेकै ॥ दूरि न नेरै सभ कै संगा ॥ सचु सालाहणु नानक हरि रंगा ॥८॥१॥ पद्अर्थ: एको = एक परमात्मा ही। आपे = स्वयं ही। बीचारि = विचार के। बिबेकै = परखता है। रंगा = सब चोज तमाशे करने वाला।8। अर्थ: हे नानक! (जीव बिचारे के क्या वश?) सिर्फ परमात्मा ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) सब कुछ कर रहा है और वह प्रभु खुद ही (हरेक जीव को) अक्ल (बख्शता है), खुद ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) विचार के (जीवन जुगति को) परखता है। वह परमात्मा किसी से दूर नहीं बसता, सब के नजदीक बसता है, सब के साथ बसता है। वह प्रभु सदा स्थिर रहने वाला है, वही सब चोज तमाशे करने वाला है, वही सराहनीय है।8।1। गउड़ी महला ५ ॥ गुर सेवा ते नामे लागा ॥ तिस कउ मिलिआ जिसु मसतकि भागा ॥ तिस कै हिरदै रविआ सोइ ॥ मनु तनु सीतलु निहचलु होइ ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से, साथ। गुर सेवा ते = गुरु की सेवा से, गुरु की शरण पड़ने से। नामे = नाम में। जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। हिरदै = हृदय में। सोइ = वह परमात्मा। निहचलु = अडोल।1। अर्थ: (पर, हे मेरे मन!) वह मनुष्य ही परमात्मा के नाम में जुड़ता है जो गुरु की शरण पड़ता है (गुरु की शरण पड़ा मनुष्य हरि नाम में जुड़ता है, और गुरु) उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे के भाग्य जाग जाएं। (फिर) उस मनुष्य के हृदय में वह परमात्मा आ बसता है, उसका मन और शरीर (हृदय) ठण्डा ठार हो जाता है, विकारों की तरफ से अडोल हो जाता है।1। ऐसा कीरतनु करि मन मेरे ॥ ईहा ऊहा जो कामि तेरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! ईहा = इस जिंदगी में। ऊहा = परलोक में। तेरै कामि = तेरे काम, तेरे वास्ते लाभदायक।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! तू परमात्मा की ऐसी महिमा करता रह, जो तेरी इस जिंदगी में भी काम आए, और परलोक में भी तेरे काम आए।1। रहाउ। जासु जपत भउ अपदा जाइ ॥ धावत मनूआ आवै ठाइ ॥ जासु जपत फिरि दूखु न लागै ॥ जासु जपत इह हउमै भागै ॥२॥ पद्अर्थ: जासु जपत = जिसका नाम जपते हुए। अपदा = मुसीबत, बिपदा। धावत = विकारों की ओर दौड़ता। ठाइ = जगह पर, ठिकाने। न लागै = छू नहीं सकता।2। अर्थ: (हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जप के हरेक किस्म का डर दूर हो जाता है, हरेक बिपदा टल जाती है, विकारों की तरफ दौड़ता मन ठहर जाता है, जिसका नाम जपने से फिर कोई दुख छू नहीं सकता, और अंदर से अहंकार दूर हो जाता है।2। जासु जपत वसि आवहि पंचा ॥ जासु जपत रिदै अम्रितु संचा ॥ जासु जपत इह त्रिसना बुझै ॥ जासु जपत हरि दरगह सिझै ॥३॥ पद्अर्थ: वसि = काबू में। संचा = एकत्र कर लेते हैं। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सिझै = कामयाब हो जाता है।3। अर्थ: जिसका नाम जपने से (कामादिक) पाँचों विकार काबू आ जाते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हृदय में इकट्ठा कर सकते हैं, माया की प्यास बुझ जाती है और परमात्मा की दरगाह में भी कामयाब हो जाते हैं।3। जासु जपत कोटि मिटहि अपराध ॥ जासु जपत हरि होवहि साध ॥ जासु जपत मनु सीतलु होवै ॥ जासु जपत मलु सगली खोवै ॥४॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। साध = भले मनुष्य। सगली = सारी। खोवै = नाश कर लेता है।4। अर्थ: (हे भाई! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जपने से (पिछले किए हुए) करोड़ों पाप मिट जाते हैं, तथा (आगे के लिए) भले मनुष्य बन जाते हैं, जिसका नाम जपने से मन (विकारों की तपश से) ठण्डा शीतल हो जाता है और अपने अंदर की (विकारों की) सारी मैल दूर कर लेता है।4। जासु जपत रतनु हरि मिलै ॥ बहुरि न छोडै हरि संगि हिलै ॥ जासु जपत कई बैकुंठ वासु ॥ जासु जपत सुख सहजि निवासु ॥५॥ पद्अर्थ: बहुरि = दुबारा, फिर कभी। हिल = गिझ जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में।5। अर्थ: जिस का जाप करने से मनुष्य को हरि नाम रत्न प्राप्त हो जाता है, (नाम जपने की इनायत से) मनुष्य परमात्मा के साथ इतना रच-मिच जाता है कि (प्राप्त किए हुए उस नाम-रत्न को) दुबारा नहीं छोड़ता, जिसका नाम जपने से आत्मिक आनंद मिलता है आत्मिक अडोलता में ठिकाना मिल जाता है, तथा, मानो जैसे, अनेक बैकुंठों का निवास हासिल हो जाता है।5। जासु जपत इह अगनि न पोहत ॥ जासु जपत इहु कालु न जोहत ॥ जासु जपत तेरा निरमल माथा ॥ जासु जपत सगला दुखु लाथा ॥६॥ पद्अर्थ: कालु = मौत, आत्मिक मौत, मौत का सहम। जोहत = देख सकता। निरमल = साफ, रौशन।6। अर्थ: (हे भाई! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जपने से तृष्णा की आग छू नहीं सकेगी, मौत का सहम नजदीक नहीं फटकेगा (आत्मिक मौत अपना जोर नहीं डाल पाएगी), हर जगह तू उज्जवल-मुख रहेगा, और तेरा हरेक किस्म का दुख दूर हो जाएगा।6। जासु जपत मुसकलु कछू न बनै ॥ जासु जपत सुणि अनहत धुनै ॥ जासु जपत इह निरमल सोइ ॥ जासु जपत कमलु सीधा होइ ॥७॥ पद्अर्थ: सुणि = सुने, सुनता है। अनहत = (अन+आहत् = बिनाबजाए बजने वाली) एक रस, लगातार। धुनै = धुनि, आवाज, आत्मिक आनंद की लहर। सोइ = शोभा। कमलु = कमल फूल रूपी हृदय। सीधा = सीधा।7। अर्थ: (हे भाई! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जपने से (मनुष्य के जीवन सफर में) कोई मुश्किल नहीं बनती, मनुष्य एक-रस आत्मिक आनंद के गीत की धुनि सुनता रहता है (मनुष्य के अंदर हर वक्त आत्मिक आनंद की लहर चली रहती है), जिसका नाम जपने से मनुष्य का कमल रूपी हृदय (विकारों से पलट के, परमात्मा की याद की तरफ) सीधा हो जाता है, और मनुष्य (लोक-परलोक में) पवित्र शोभा कमाता है।7। गुरि सुभ द्रिसटि सभ ऊपरि करी ॥ जिस कै हिरदै मंत्रु दे हरी ॥ अखंड कीरतनु तिनि भोजनु चूरा ॥ कहु नानक जिसु सतिगुरु पूरा ॥८॥२॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। द्रिसटि = दृष्टि, नजर। सभ ऊपरि = सब से बढ़िया। मंत्रु दे हरी = हरि के नाम का मंत्र देता है। तिनि = उस मनुष्य ने। चूरा = चूरी, चूरमा।8। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! गुरु) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम जपने का उपदेश बसाता है उस मनुष्य पर गुरु ने (जैसे) सबसे बढ़िया किस्म की मेहर की नजर कर दी। जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल पड़ा, उसने परमात्मा की एक-रस महिमा को अपनी आत्मा के लिए स्वादिष्ट भोजन बना लिया।8।2। गउड़ी महला ५ ॥ गुर का सबदु रिद अंतरि धारै ॥ पंच जना सिउ संगु निवारै ॥ दस इंद्री करि राखै वासि ॥ ता कै आतमै होइ परगासु ॥१॥ पद्अर्थ: रिद अंतरि = हृदय में। संगु = साथ। निवारै = हटा लेता है। वासि = वश में। परगासु = प्रकाश।1। अर्थ: वह मनुष्य अपने हृदय में गुरु का शब्द बसाता है, कामादिक पाँचों विकारों से अपना साथ हटा लेता है, दसों ही इंद्रियों को अपने काबू में कर लेता हैऔर उसकी आत्मा में प्रकाश हो जाता है (उसे आत्मिक जीवन की समझ आ जाती है)।1। ऐसी द्रिड़ता ता कै होइ ॥ जा कउ दइआ मइआ प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: द्रिढ़ता = दृढ़ता, मजबूती, मानसिक ताकत। ता कै = उस मनुष्य के अंदर। जा कउ = जिससे।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा की दया होती है, कृपा होती है, उस मनुष्य के हृदय में ऐसा आत्मिक बल पैदा होता है, कि।1। रहाउ। साजनु दुसटु जा कै एक समानै ॥ जेता बोलणु तेता गिआनै ॥ जेता सुनणा तेता नामु ॥ जेता पेखनु तेता धिआनु ॥२॥ पद्अर्थ: दुसटु = वैरी। जेता = जितना भी। तेता = उतना ही। पेखनु = देखना।2। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को अपने हृदय में मित्र और वैरी एक जैसे ही प्रतीत होते हैं, जितना कुछ वह बोलता है, आत्मिक जीवन की सूझ के बारे में बोलता है, जितना कुछ सुनता है, परमात्मा की महिमा ही सुनता है, जितना कुछ देखता है, परमात्मा में तवज्जो जोड़ने के कारण ही बनता है।2। सहजे जागणु सहजे सोइ ॥ सहजे होता जाइ सु होइ ॥ सहजि बैरागु सहजे ही हसना ॥ सहजे चूप सहजे ही जपना ॥३॥ पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में। सोइ = सोता है। होता जाइ = होता जाता है। बैरागु = शक पैदा करने वाली घटना। चूप = चुप। जपना = बोलना।3। अर्थ: वह मनुष्य चाहे जागता है, चाहे सोया हुआ है, वह सदा आत्मिक अडोलता में ही टिका रहता है; परमात्मा की रजा में जो कुछ होता है, उसे ठीक मानता है, और आत्मिक अडोलता में ही लीन रहता है; कोई गमी की घटना हो जाए, चाहे खुशी का कारण बने, वह आत्मिक अडोलता में ही रहता है; अगर वह चुप बैठा है तो भी अडोलता में है और अगर बोल रहा है तो भी अडोलता में है।3। सहजे भोजनु सहजे भाउ ॥ सहजे मिटिओ सगल दुराउ ॥ सहजे होआ साधू संगु ॥ सहजि मिलिओ पारब्रहमु निसंगु ॥४॥ पद्अर्थ: दुराउ = छुपाना, कपट भाव। निसंगु = प्रत्यक्ष।4। अर्थ: आत्मिक अडोलता में टिका हुआ ही वह खाने-पीने का व्यवहार करता है, आत्मिक अडोलता में ही वह दूसरों के साथ प्रेम भरा सलूक करता है; आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उसके अंदर से सारा कपट-भाव मिट जाता है; आत्मिक अडोलता में ही उसे गुरु का मिलाप हो जाता है, और प्रत्यक्ष तौर पर उसे परमात्मा मिल जाता है।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |