श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 233 गउड़ी महला ३ ॥ मन ही मनु सवारिआ भै सहजि सुभाइ ॥ सबदि मनु रंगिआ लिव लाइ ॥ निज घरि वसिआ प्रभ की रजाइ ॥१॥ पद्अर्थ: मनही = मनि ही, मन में ही, अंतरात्मे ही, अंदर ही अंदर। सवारिआ = सुंदर बना लिया। भै = (परमात्मा के) डर अदब में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में। सबदि = गुरु शब्द के द्वारा। लाइ = लगा के। निजघरि = अपने घर में, प्रभु चरणों में। रजाइ = रजा में।1। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द द्वारा (प्रभु के चरणों में) तवज्जो जोड़ के (अपने) मन को (प्रभु के प्रेम रंग में) रंग लिया है, उसने प्रभु के डर-अदब में टिक के, आत्मिक अडोलता में टिक के, प्रभु प्रेम में जुड़ के अपने मन को अंतरात्मे ही सुंदर बना लिया है, (गृहस्थ त्याग के कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं पड़ी)। वह मनुष्य प्रभु-चरणों में टिका रहता है, वह मनुष्य प्रभु-रजा में राजी रहता है।1। सतिगुरु सेविऐ जाइ अभिमानु ॥ गोविदु पाईऐ गुणी निधानु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सेवीऐ = अगर सेवा करे, अगर शरण पड़ें। गुणी निधान = गुणों का खजाना।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने से (मन में से) अहंकार दूर हो जाता है और गुणों का खजाना परमात्मा मिल जाता है।1। रहाउ। मनु बैरागी जा सबदि भउ खाइ ॥ मेरा प्रभु निरमला सभ तै रहिआ समाइ ॥ गुर किरपा ते मिलै मिलाइ ॥२॥ पद्अर्थ: बैरागी = बैरागवान, माया के मोह से बचा हुआ। जा = जब। भउ = डर, ये डर कि परमात्मा सर्व-व्यापक और अंतरयामी है। खाइ = खाता है, आत्मिक खुराक बनाता है। सभतै = हर जगह। ते = से, साथ।2। अर्थ: (हे भाई!) जब (कोई मनुष्य इस) डर को (कि परमात्मा हरेक के अंदर बस रहा है और हरेक के दिल की जानता है, अपनी आत्मा की) खुराक बनाता है, (उस का) मन माया के मोह से उपराम हो जाता है, उसे पवित्र स्वरूप प्यारा प्रभु हर जगह व्यापक दिखाई देता है। वह मनुष्य गुरु की कृपा से (गुरु का) मिलाया हुआ (परमात्मा को) मिल जाता है।2। हरि दासन को दासु सुखु पाए ॥ मेरा हरि प्रभु इन बिधि पाइआ जाए ॥ हरि किरपा ते राम गुण गाए ॥३॥ पद्अर्थ: को = का। इन बिधि = इस तरीके से। ते = से। गाए = गाता है।3। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के सेवकों का सेवक बन जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है। (हे भाई!) इस तरीके से (ही) प्यारे परमात्मा का मेल प्राप्त होता है। वह मनुष्य परमात्मा की मेहर से परमात्मा के गुण गाता रहता है।3। ध्रिगु बहु जीवणु जितु हरि नामि न लगै पिआरु ॥ ध्रिगु सेज सुखाली कामणि मोह गुबारु ॥ तिन सफलु जनमु जिन नामु अधारु ॥४॥ पद्अर्थ: बहु जीवन = लंमी उमर, (प्राणयाम आदि से बढ़ाई हुई) लंबी उम्र। जितु = जिससे, यदि उसके द्वारा। नामि = नाम में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। कामणि = स्त्री। सुखाली = सुख देने वाली, सुखदाई (सुख+आलय)। गुबार = घुप अंधेरा। अधारु = आसरा।4। अर्थ: (हे भाई! प्राणयाम आदि द्वारा बढ़ाई गयी) लम्बी उम्र (बल्कि) धिक्कारयोग्य है, अगर उससे परमात्मा के नाम में (उस लंबी उम्र वाले का) प्यार नहीं बनता। (दूसरी तरफ, हे भाई! सुंदर) स्त्री की सुखदाई सेज (भी) धिक्कारयोग्य है (अगर वह) मोह का गुबार (घोर अंधेरा) (पैदा करती) है। (हे भाई! सिर्फ) उन मनुष्यों का जन्म ही कामयाब है, जिन्होंने परमात्मा के नाम को (अपनी जिंदगी का) आसरा बनाया है।4। ध्रिगु ध्रिगु ग्रिहु कुट्मबु जितु हरि प्रीति न होइ ॥ सोई हमारा मीतु जो हरि गुण गावै सोइ ॥ हरि नाम बिना मै अवरु न कोइ ॥५॥ पद्अर्थ: ग्रिहु = गृहस्थ जीवन, घर। कुटंबं = परिवार।5। अर्थ: (हे भाई!) वह गृहरथ जीवन धिक्कारयोग्य है, वह परिवार (वाला जीवन) धिक्कार योग्य है, जिससे परमात्मा की प्रीति नहीं बनती। (हे भाई!) हमारा तो मित्र वही मनुष्य है, जो उस परमात्मा के गुण गाता है (और हमें भी महिमा के लिए प्रेरित करता है)। (हे भाई!) परमात्मा के नाम के बगैर मुझे और कोई (सदा साथ निभने वाला साथी) नहीं दिखता।5। सतिगुर ते हम गति पति पाई ॥ हरि नामु धिआइआ दूखु सगल मिटाई ॥ सदा अनंदु हरि नामि लिव लाई ॥६॥ पद्अर्थ: ते = से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत।6। अर्थ: (हे भाई!) गुरु से हम उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर सकते हैं (जिसकी इनायत से हर जगह) इज्जत मिलती है। (गुरु की शरण में आ के जिसने) परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसने अपना हरेक किस्म का दुख दूर कर लिया है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के सदा आनंद पाता है।6। गुरि मिलिऐ हम कउ सरीर सुधि भई ॥ हउमै त्रिसना सभ अगनि बुझई ॥ बिनसे क्रोध खिमा गहि लई ॥७॥ पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। सरीर सुधि = शरीर की सूझ, शरीर को पवित्र रखने की सूझ, शरीर को विकारों से बचा के रखने की समझ। बुझई = समझ गई। गहि लई = पकड़ ली।7। अर्थ: (हे भाई!) अगर गुरु मिल जाए तो हम अपने शरीर को विकारों से बचा के रखने की समझ भी हासिल कर लेते हैं। (जो मनुष्य गुरु की शरण में आता है उसके अंदर से) अहम् व तृष्णा की सारी आग बुझ जाती है, (उसके अंदर से) क्रोध खत्म हो जाता है, वह सदैव क्षमा धारण किए रखता है।7। हरि आपे क्रिपा करे नामु देवै ॥ गुरमुखि रतनु को विरला लेवै ॥ नानकु गुण गावै हरि अलख अभेवै ॥८॥८॥ पद्अर्थ: अलख = जिसका स्वरूप समझ में ना आ सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।8। अर्थ: (पर, हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही कृपा करता है, और अपना नाम बख्शता है, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर ये नाम-रत्न पल्ले बाँधता है। नानक (तो गुरु की कृपा से ही) उस अलख व अभेव परमात्मा के गुण सदा गाता है।8।8। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सतिगुर ते जो मुह फेरे ते वेमुख बुरे दिसंनि ॥ अनदिनु बधे मारीअनि फिरि वेला ना लहंनि ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। जो = जो लोग। ते = वह लोग। दिसंनि = दिखते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बधे = (माया के मोह के बंधनों में) बंधे हुए। मारीअनि = मारे जाते हैं, मोह की चोटें खाते हैं। वेला = समय (इन चोटों से बच निकलने के वास्ते)। लहंनि = लेते, ढूँढ सकते।1। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु से मुंह फेरे रखते हैं, गुरु की ओर से बे-मुख हुए वो मनुष्य (देखने को ही भले) बुरे दिखते हैं। (माया के मोह के बंधनों में) बंधे हुए वह मनुष्य हर समय मोह की चोटें खाते रहते हैं, (इन चोटों से बचने के लिए) उन्हें दुबारा समय हाथ नहीं लगेगा, (अर्थात, मार भी खाते रहते हैं, फिर भी ये मोह इतना प्यारा लगता है कि इसमें से निकलने को जीअ नहीं करता)।1। हरि हरि राखहु क्रिपा धारि ॥ सतसंगति मेलाइ प्रभ हरि हिरदै हरि गुण सारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि = हे हरि! धारि = धरण करके। प्रभ = हे प्रभु! सारि = मैं संभालूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे हरि! हे हरि! मेहर कर, (मुझे माया के पँजे से) बचा के रख। हे हरि! हे प्रभु! मुझे साधु-संगत में मिला के रख, ता कि मैं तेरे गुण अपने हृदय में संभाल के रखूँ।1। रहाउ। से भगत हरि भावदे जो गुरमुखि भाइ चलंनि ॥ आपु छोडि सेवा करनि जीवत मुए रहंनि ॥२॥ पद्अर्थ: (भगत: वहुवचन)। भाइ = प्रेम में। चलंनि = चलते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। आपु = स्वै भाव। मुए = विकारों की ओर से अछोह।2। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा को वह भक्त प्यारे लगते हैं, जो गुरु की शरण पड़ कर गुरु के दर्शाए मुताबिक जीवन व्यातीत करते हैं, जो (गुरु के हुक्म अनुसार) स्वैभाव (स्वार्थ) छोड़ के सेवा भक्ति करते हैं और दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी माया के मोह की ओर से अछोह रहते हैं।2। जिस दा पिंडु पराण है तिस की सिरि कार ॥ ओहु किउ मनहु विसारीऐ हरि रखीऐ हिरदै धारि ॥३॥ पद्अर्थ: पिंडु = शरीर। पराण = जिंद, जीवात्मा। सिरि = सिर पर। कार = हकूमत। मनहु = मन से।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का दिया हुआ ये शरीर है, जिस परमात्मा की दी हुई ये जिंद है, उसी का हुक्म (ही) हरेक के शरीर पर चल रहा है। उसे किसी भी हालत में अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। उस परमात्मा को अपने हृदय में बसा के रखना चाहिए।3। नामि मिलिऐ पति पाईऐ नामि मंनिऐ सुखु होइ ॥ सतिगुर ते नामु पाईऐ करमि मिलै प्रभु सोइ ॥४॥ पद्अर्थ: नामि मिलिऐ = यदि नाम मिल जाए। पति = इज्जत। नामि मंनिऐ = अगर मन नाम में पतीज जाए। ते = से। करमि = मेहर से।4। अर्थ: (हे भाई!) अगर परमात्मा का नाम मिल जाए तो (हर जगह) इज्जत मिलती है, अगर परमात्मा के नाम से मन लग जाए तो आत्मिक आनंद हासिल होता है, (पर, हे भाई!) गुरु से ही परमात्मा का नाम मिलता है, अपनी मेहर से ही वह परमात्मा मिलता है।4। सतिगुर ते जो मुहु फेरे ओइ भ्रमदे ना टिकंनि ॥ धरति असमानु न झलई विचि विसटा पए पचंनि ॥५॥ पद्अर्थ: भ्रमदे = भटकते। झलई = बर्दाश्त करना, सहारा देना। पचंनि = दुखी होते हैं, जलते हैं, आत्मिक जीवन जला लेते हैं।5। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की ओर से मुंह मोड़े रखते हैं, वो मनुष्य (माया के मोह में सदैव) भटकते फिरते हैं, उन्हें कभी आत्मिक शांति नहीं मिलती। उन्हें ना धरती ना ही आसमान झेल सकता है (सारी सृष्टि में कोई अन्य जीव उन्हें आत्मिक सहारा नहीं दे सकता) वे माया के मोह की गंदगी में पड़े हुए ही आत्मिक जीवन जलाते रहते हैं।5। इहु जगु भरमि भुलाइआ मोह ठगउली पाइ ॥ जिना सतिगुरु भेटिआ तिन नेड़ि न भिटै माइ ॥६॥ पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। भुलाइआ = कुराहे डाला हुआ है। ठगउली = ठग-बूटी, ठग-मूरी। भेटिआ = मिला। माइ = माया। भिटै = फिट बैठती है, ठीक लगती है।6। अर्थ: (हे भाई! माया ने) इस जगत को (अपने मोह की) भटकना में (डाल के) मोह की ठग-बूटी खिला के गलत जीवन-राह पर डाला हुआ है। (पर, हे भाई!) जिन्हें सतिगुरु मिल जाता है, ये माया उनके नजदीक भी नहीं फटकती (उन पर अपने मोह का जादू नहीं चला सकती)।6। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |