श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 232 त्रै गुण कालै की सिरि कारा ॥ नामु न चेतहि उपावणहारा ॥ मरि जमहि फिरि वारो वारा ॥२॥ पद्अर्थ: सिरि कारा = सिर पर दबाव। कालै की = मौत की, आत्मिक मौत की। वारो वारा = बार बार।2। अर्थ: (हे भाई!) माया के पसारे में दिलचस्पी रखने वालों के सिर पर (सदा) आत्मिक मौत का हुक्म चलता है, वे विधाता परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते, वह बार बार (जगत में) पैदा होते हैं, मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं।2। अंधे गुरू ते भरमु न जाई ॥ मूलु छोडि लागे दूजै भाई ॥ बिखु का माता बिखु माहि समाई ॥३॥ पद्अर्थ: ते = से, के द्वारा। मूलु = जगत का मूल प्रभु। दूजै भाई = माया के प्यार में। बिखु = जहर (माया का मोह जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है)।3। अर्थ: (पर, हे भाई! माया के मोह में खुद) अंधे हुए गुरु से (शरण आए सेवक के मन की) भटकना दूर नहीं हो सकती। (ऐसे गुरु की शरण पड़ के तो मनुष्य बल्कि) जगत के मूल कर्तार को छोड़ के माया के मोह में फसते हैं। (आत्मिक मौत पैदा करने वाली माया के) जहर में मस्त हुआ मनुष्य उस जहर में ही मस्त रहता है।3। माइआ करि मूलु जंत्र भरमाए ॥ हरि जीउ विसरिआ दूजै भाए ॥ जिसु नदरि करे सो परम गति पाए ॥४॥ पद्अर्थ: मूलु = आसरा। करि = कर के, ठान के। जंत्र = जीव। गति = आत्मिक अवस्था। परम गति = सबसे ऊँची अवस्था।4। नोट: ‘जंत्र’ है ‘जंतु’ का बहुवचन। अर्थ: (अभागी) मनुष्य माया को (जिंदगी का) आसरा बना के (माया की खातिर ही) भटकते रहते हैं, माया के प्यार के कारण उन्हें परमात्मा भूला रहता है। (पर, हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है (जहाँ माया का मोह छू नहीं सकता)।4। अंतरि साचु बाहरि साचु वरताए ॥ साचु न छपै जे को रखै छपाए ॥ गिआनी बूझहि सहजि सुभाए ॥५॥ पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। बाहरि = जगत से बरतण-बर्ताव करते हुए। साचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्रेम में।5। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, गुरु उस के) हृदय में सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का प्रकाश कर देता है। जगत से बरतते हुए भी सारे जगत में उसको सदा स्थिर प्रभु दिखा देता है। (जिस मनुष्य के अंदर-बाहर प्रभु का प्रकाश हो जाए), वह जो इस (मिली दात) को छुपा के रखने का यत्न करे, तो भी सदा-स्थिर प्रभु (का प्रकाश) छुपता नहीं। परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले मनुष्य आत्मिक अडोलता में (टिक के) प्रभु प्रेम में जुड़ के (इस अस्लियत को) समझ लेते हैं।5। गुरमुखि साचि रहिआ लिव लाए ॥ हउमै माइआ सबदि जलाए ॥ मेरा प्रभु साचा मेलि मिलाए ॥६॥ पद्अर्थ: साचि = सदा स्थिर प्रभु में। सबदि = शब्द के द्वारा। मेलि = मेल में।6। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में अपनी तवज्जो जोड़े रखता है, गुरु के शब्द की इनायत से वह (अपने अंदर से) अहंकार और माया (का मोह) जला लेता है। (इस तरह) सदा स्थिर रहने वाला प्यारा प्रभु उसे अपने चरणों में मिलाए रखता है।6। सतिगुरु दाता सबदु सुणाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते सोझी पाए ॥७॥ पद्अर्थ: धावतु = (माया के पीछे) दौड़ते मन को। ठाकि = रोक के। ते = से।7। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के नाम की) दाति देने वाला सतिगुरु जिस मनुष्य को अपना शब्द सुनाता है, वह माया के पीछे भटकते अपने मन को (माया के मोह से) बचा लेता है, रोक के काबू कर लेता है।7। आपे करता स्रिसटि सिरजि जिनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ नानक गुरमुखि बूझै कोई ॥८॥६॥ पद्अर्थ: स्रिसटि = सृष्टि, दुनिया। सिरजि = पैदा करके। गोई = नाश की। जिनि = जिस (कर्तार) ने।8। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने वाला कोई (विरला भाग्यशाली) मनुष्य ये समझ लेता है कि उस परमात्मा के बगैर कोई अन्य (सदा स्थिर रहने वाला) नहीं है जो स्वयं ही सृजक है जिस ने स्वयं ये सृष्टि पैदा करके स्वयं ही (अनेक बार) नाश की।8।6। गउड़ी महला ३ ॥ नामु अमोलकु गुरमुखि पावै ॥ नामो सेवे नामि सहजि समावै ॥ अम्रितु नामु रसना नित गावै ॥ जिस नो क्रिपा करे सो हरि रसु पावै ॥१॥ पद्अर्थ: अमोलक = जो किसी भी मूल्य में ना मिल सके। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नामो = नाम ही। नामि = नाम के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता मे। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। रसना = जीभ से।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम किसी भी मूल्य में मिल नहीं सकता। वही मनुष्य हासिल करता है जो गुरु की शरण पड़ता है। वह (हर वक्त) नाम ही स्मरण करता है और नाम से ही आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। पर, वही मनुष्य हरि नाम का रस पाता है जिस पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है।1। अनदिनु हिरदै जपउ जगदीसा ॥ गुरमुखि पावउ परम पदु सूखा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। हिरदै = हृदय में। जपउ = मैं जपता हूँ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं हर समय अपने हृदय में जगत के मालिक परमात्मा का नाम जपता हूँ। गुरु की शरण पड़ कर मैंने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया है, मैं आत्मिक आनंद ले रहा हूँ।1। रहाउ। हिरदै सूखु भइआ परगासु ॥ गुरमुखि गावहि सचु गुणतासु ॥ दासनि दास नित होवहि दासु ॥ ग्रिह कुट्मब महि सदा उदासु ॥२॥ पद्अर्थ: परगासु = प्रकाश। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। गुणतास = गुणों का खजाना। ग्रिह = घर। कुटंब = परिवार।2। अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर गुणों के खजाने सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं, उनके हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है, उनके अंदर प्रकाश पैदा हो जाता है, वह सदा परमात्मा के सेवक बने रहते हैं, वह मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहते हुए परिवार में रहते हुए भी (माया के मोह से) उपराम रहते हैं।2। जीवन मुकतु गुरमुखि को होई ॥ परम पदारथु पावै सोई ॥ त्रै गुण मेटे निरमलु होई ॥ सहजे साचि मिलै प्रभु सोई ॥३॥ पद्अर्थ: मुकतु = माया के बंधनों से आजाद। को = कोई विरला। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिक के। साचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़े रहने करके)।3। अर्थ: (हे भाई!) कोई विरला मनुष्य जो गुरु की शरण पड़ता है दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी माया के बंधनों से आजाद होता है, वही मनुष्य सारे पदार्थों से श्रेष्ठ नाम-पदार्थ हासिल करता है, वह मनुष्य (अपने अंदर से माया के) तीन गुणों का प्रभाव मिटा लेता है और पवित्रात्मा बन जाता है। आत्मिक अडोलता में सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़े रहने के कारण उसे वह प्रभु मिल जाता है।3। मोह कुट्मब सिउ प्रीति न होइ ॥ जा हिरदै वसिआ सचु सोइ ॥ गुरमुखि मनु बेधिआ असथिरु होइ ॥ हुकमु पछाणै बूझै सचु सोइ ॥४॥ पद्अर्थ: कुटंब सिउ = कुटंब के साथ। जा = जब। बेधिआ = बेधा जाता है। असथिरु = स्थिर, शांत, अडोल, टिका हुआ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।4। अर्थ: (हे भाई! जब किसी मनुष्य के हृदय में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा आ बसता है, तो उसका अपने परिवार से) वह मोह प्यार नहीं रहता (जो त्रैगुणी माया में फसाता है)। गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य का मन (परमात्मा की याद में) बेधा जाता है और अडोल हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा की रजा को पहिचानता है (परमात्मा के स्वभाव से अपना स्वभाव मिला लेता है) वह मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु को समझ लेता है।4। तूं करता मै अवरु न कोइ ॥ तुझु सेवी तुझ ते पति होइ ॥ किरपा करहि गावा प्रभु सोइ ॥ नाम रतनु सभ जग महि लोइ ॥५॥ पद्अर्थ: सेवी = सेवा करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। ते = से। पति = इज्जत। करहि = तू करे। गावा = गाऊँ, मैं गाता रहूँ। लोइ = प्रकाश।5। अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य का मन परमात्मा की याद में बेधित हो जाता है, वह ऐसे अरदास करता है: हे प्रभु!) तू ही जगत का पैदा करने वाला है, मुझे तेरे बिना कोई आसरा नहीं दिखता, मैं सदा तेरा ही स्मरण करता हूँ, मुझे तेरे दर से ही इज्जत मिलती है। अगर तू खुद मेहर करे, तो ही मैं तेरी महिमा कर सकता हूँ। तेरा नाम ही मेरे वास्ते सबसे श्रेष्ठ पदार्थ है, तेरा नाम ही जगत में (आत्मिक जीवन के लिए) प्रकाश (पैदा करने वाला) है।5। गुरमुखि बाणी मीठी लागी ॥ अंतरु बिगसै अनदिनु लिव लागी ॥ सहजे सचु मिलिआ परसादी ॥ सतिगुरु पाइआ पूरै वडभागी ॥६॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। अंतरु = हृदय। अंतरि = अंदर। अंतरु = अंदर का हृदय। बिगसे = खिल पड़ता है। परसादी = प्रसादि, (गुरु की) कृपा से। पूरे वडभागी = पूरे बड़े भाग्यों से।6। नोट: शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतरु’ का फर्क ध्यान रखने योग्य है। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के जिस मनुष्य को परमात्मा की महिमा की वाणी मीठी लगने लग पड़ती है, उसका हृदय खिल जाता है, उसकी तवज्जो हर वक्त (प्रभु चरणों में) जुड़ी रहती है। गुरु की कृपा से आत्मिक अडोलता द्वारा उसे सदा स्थिर प्रभु मिल जाता है। (पर, हे भाई!) गुरु पूरे भाग्यों से बड़े भाग्यों से ही मिलता है।6। हउमै ममता दुरमति दुख नासु ॥ जब हिरदै राम नाम गुणतासु ॥ गुरमुखि बुधि प्रगटी प्रभ जासु ॥ जब हिरदै रविआ चरण निवासु ॥७॥ पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। दुरमति = खोटी बुद्धि। दुख नास = दुखों का नाश। प्रभ जासु = प्रभु का यश। रविआ = स्मरण किया।7। अर्थ: (हे भाई!) जब हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है गुणों का खजाना प्रभु आ बसता है, तब अंदर से अहंकार का, अपनत्व का, दुर्मति का, दुखों का नाश हो जाता है। (हे भाई!) जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ के अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण करता है, जब प्रभु के चरणों में टिकता है, प्रभु की महिमा सुनता है तो इसकी बुद्धि उज्जवल हो जाती है।7। जिसु नामु देइ सोई जनु पाए ॥ गुरमुखि मेले आपु गवाए ॥ हिरदै साचा नामु वसाए ॥ नानक सहजे साचि समाए ॥८॥७॥ पद्अर्थ: देइ = देता है। आपु = स्वैभाव।8। अर्थ: हे नानक! वही मनुष्य परमात्मा का नाम हासिल करता है, जिसे परमात्मा स्वयं अपना नाम बख्शता है। जिस मनुष्य को गुरु की शरण पा के प्रभु अपने साथ मिलाता है, वह मनुष्य अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर देता है, वह मनुष्य अपने हृदय में सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम बसाता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में जुड़ा रहता है।8।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |