श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 231 मनमुख अगिआनि कुमारगि पाए ॥ हरि नामु बिसारिआ बहु करम द्रिड़ाए ॥ भवजलि डूबे दूजै भाए ॥३॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। अगिआनि = ज्ञान हीनता के कारण। कुमारगि = कुमार्ग, गलत रास्ते पर। बहु करम = अनेक (निहित हुए धार्मिक) कर्म। भवजल = संसार समुंदर में। दूजै भाइ = माया के प्यार में।3। अर्थ: (हे भाई! वे लोग ब्रहमा की रची हुई वाणी पढ़ते हैं, पर) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य परमात्मा के साथ जान-पहिचान से वंचित रहने के कारण गलत जीवन-राह पर पड़े रहते हैं। वे परमात्मा का नाम तो भुला देते हैं, पर (अन्य व्रत-नेम आदिक) अनेक कर्म करने पर जोर देते रहते हैं। ऐसे मनुष्य परमात्मा के बिना और प्यार में फंसे रहने के कारण संसार समुंदर में डूबे रहते हैं (विकारों में फंसे रहते हैं)।3। माइआ का मुहताजु पंडितु कहावै ॥ बिखिआ राता बहुतु दुखु पावै ॥ जम का गलि जेवड़ा नित कालु संतावै ॥४॥ पद्अर्थ: मुहताजु = जरूरतमंद। बिखिआ = माया। राता = लीन हुआ, मगन। गलि = गले में। जेवड़ा = जंजीर, फाही, रस्सा। कालु = मौत, आत्मिक मौत।4। अर्थ: (हे भाई! ब्रह्मा की रची वाणी का विद्वान मनुष्य) माया का तृष्णालु रहता हुआ भी (अपने आप को) पंडित कहलवाता है। माया के मोह में फंसा वह (अंतरात्मे) बहुत दुख सहता रहता है, उसके गले में आत्मिक मौत का फंदा पड़ा रहता है, आत्मिक मौत उसे सदैव दुखी रखती है।4। गुरमुखि जमकालु नेड़ि न आवै ॥ हउमै दूजा सबदि जलावै ॥ नामे राते हरि गुण गावै ॥५॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। दूजा = माया का प्यार। सबदि = शब्द द्वारा। नामे = नामि ही, नाम में ही।5। अर्थ: (पर, हे भाई!) आत्मिक मौत गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के नजदीक नहीं फटकती, वह गुरु के शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) अहंकार जला देता है, वह परमात्मा के नाम में ही रंगा रह के परमात्मा के गुण गाता रहता है।5। माइआ दासी भगता की कार कमावै ॥ चरणी लागै ता महलु पावै ॥ सद ही निरमलु सहजि समावै ॥६॥ पद्अर्थ: महलु = प्रभु चरणों में जगह। सद = सदा ही। सहिज = आत्मिक अडोलता में।6। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करते हैं, माया उनकी दासी बनी रहती है, और उनकी जरूरतें पूरी करती है। जो मनुष्य उन भक्त जनों की चरणों में लगता है, वह भी प्रभु चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लेता है। वह भी सदा ही पवित्र मन वाला हो जाता है और आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।6। हरि कथा सुणहि से धनवंत दिसहि जुग माही ॥ तिन कउ सभि निवहि अनदिनु पूज कराही ॥ सहजे गुण रवहि साचे मन माही ॥७॥ पद्अर्थ: सुणहि = सुनते हैं। से = वे लोग। दिसहि = दिखते हैं। जुग माही = जिंदगी में, संसार में। कउ = को। सभि = सारे। कराही = करते हैं। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। रवहि = याद करते हैं।7। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा की महिमा की बातें सुनतें हैं, वह जगत में (प्रत्यक्ष) धनवान दिखते हैं (वे माया की तृष्णा में नहीं भटकते फिरते), सारे लोग उनके आगे नत्मस्तक होते हैं, और हर वक्त उनका आदर-सत्कार करते हैं (क्योंकि वह मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिक के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण अपने मन में याद करे रखते हैं।7। पूरै सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ त्रै गुण मेटे चउथै चितु लाइआ ॥ नानक हउमै मारि ब्रहम मिलाइआ ॥८॥४॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। चउथै = चौथे दर्जे में, उस अवस्था में जहाँ माया के तीन गुण अपना असर नहीं डाल सकते। मारि = मार के।8। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने परमात्मा की महिमा की वाणी सुनाई है, उसने अपने अंदर से (माया के) तीनों गुणों का प्रभाव मिटा लिया है, उसने अपना मन उस आत्मिक अवस्था में टिका लिया है जहाँ माया के तीन गुण अपना असर नहीं डाल सकते, (गुरु ने उसके अंदर से) अहंकार मार के उसको परमात्मा के साथ जोड़ दिया है।8।4। गउड़ी महला ३ ॥ ब्रहमा वेदु पड़ै वादु वखाणै ॥ अंतरि तामसु आपु न पछाणै ॥ ता प्रभु पाए गुर सबदु वखाणै ॥१॥ पद्अर्थ: ब्रहमा वेद = ब्रह्मा का उच्चारा हुआ वेद। पढ़ै = (पंडित) पढ़ता है। वादु = झगड़ा, बहस, चर्चा। वखाणै = कहता है, सुनता है। तामसु = तमोगुण वाला स्वभाव, अंधेरा, आत्मिक जीवन की ओर से अंधकार। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। ता = तब।1। अर्थ: (हे भाई! पंडित उस) वेद को पढ़ता है (जिसे वह) ब्रह्मा का उच्चारा हुआ (समझता है, उसके आसरे) बहिस (की बातें) सुनाता है, पर उसके अपने अंदर आत्मिक जीवन वाला अंधेरा ही रहता है, क्योंकि वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता ही नहीं। जब मनुष्य गुरु का शब्द (जो प्रभु की महिमा से भरपूर है) उच्चारता है, तभी प्रभु का मिलाप हासिल करता है।1। गुर सेवा करउ फिरि कालु न खाइ ॥ मनमुख खाधे दूजै भाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। काल = मौत, आत्मिक मौत। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दूजै भाइ = माया के प्यार में।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं (तो) गुरु की सेवा करता हूँ (मैं तो गुरु की शरण पड़ा हूँ। जो मनुष्य गुरु का प्रभाव लेता है उसे) फिर कभी आत्मिक मौत नहीं खाती (आत्मिक मौत उसके आत्मिक जीवन को तबाह नहीं करती)। (पर) जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं, माया के प्यार में (फंसने के कारण) उनके आत्मिक जीवन खत्म हो जाते हैं।1। रहाउ। गुरमुखि प्राणी अपराधी सीधे ॥ गुर कै सबदि अंतरि सहजि रीधे ॥ मेरा प्रभु पाइआ गुर कै सबदि सीधे ॥२॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सीधे = सिझ जाते हैं। सबदि = शब्द द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रीधे = रीझ गए।2। अर्थ: (हे भाई!) पापी मनुष्य भी गुरु की शरण पड़ कर अपना जीवन सफल कर लेते हैं, गुरु के शब्द की इनायत से वह आत्मिक अडोलता में टिक जाते हैं, उनके अंदर प्रभु मिलाप की रीझ पैदा हो जाती है, वह प्रभु को मिल जाते हैं, गुरु के शब्द द्वारा वे सफल जीवन वाले हो जाते हैं।2। सतिगुरि मेले प्रभि आपि मिलाए ॥ मेरे प्रभ साचे कै मनि भाए ॥ हरि गुण गावहि सहजि सुभाए ॥३॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। प्रभि = प्रभु ने। कै मनि = के मन में। भाए = अच्छे लगे। गावहि = गाते हैं। सुभाए = प्रेम से।3। अर्थ: (हे भाई!) जिन्हें गुरु ने (अपने शब्द में) जोड़ा है, उन्हें प्रभु ने अपने चरणों में मिला लिया है, वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के मन में प्यारे लगने लग पड़ते हैं, वे आत्मिक अडोलता में प्रेम में जुड़ के प्रभु के गुण गाते हैं।3। बिनु गुर साचे भरमि भुलाए ॥ मनमुख अंधे सदा बिखु खाए ॥ जम डंडु सहहि सदा दुखु पाए ॥४॥ पद्अर्थ: भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाए = गलत रास्ते पड़ गए। बिखु = जहर। जम डंडु = जम की सजा।4। अर्थ: (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के रूप गुरु से विछुड़ के भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं। माया के मोह में अंधे हुए हुये वे सदा (इस मोह का) जहर ही खाते रहते हैं जिस कारण वे आत्मिक मौत की सजा ही सहते हैं और सदा दुख पाते हैं।4। जमूआ न जोहै हरि की सरणाई ॥ हउमै मारि सचि लिव लाई ॥ सदा रहै हरि नामि लिव लाई ॥५॥ पद्अर्थ: जमूआ = बिचारा जम। न जोहै = देख नहीं सकता। मारि = मार के। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव = लगन। नामि = नाम में।5। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा की शरण पड़ा रहता है विचारा जम उसकी तरफ देख भी नहीं सकता (आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती)। वह मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में तवज्जो जोड़े रखता है, वह सदा परमात्मा के नाम में लगन लगाए रखता है।5। सतिगुरु सेवहि से जन निरमल पविता ॥ मन सिउ मनु मिलाइ सभु जगु जीता ॥ इन बिधि कुसलु तेरै मेरे मीता ॥६॥ पद्अर्थ: सेवहि = सेवा करते हैं। मन सिउ = (गुरु के) मन से। मिलाइ = जोड़ के। कुसलु = सुख। तेरै = तेरे अंदर। मीता = हे मीत!।6। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे पवित्र और स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं, वह गुरु के मन के साथ अपना मन जोड़ के (गुरु की रजा में चल के) सारे जगत को जीत लेते हैं (कोई विकार उनके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता)। हे मेरे मित्र! (अगर तू भी गुरु की शरण पड़े, तो) इस तरीके से तेरे अंदर भी आनंद बना रहेगा।6। सतिगुरू सेवे सो फलु पाए ॥ हिरदै नामु विचहु आपु गवाए ॥ अनहद बाणी सबदु वजाए ॥७॥ पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। हिरदै = हृदय में। आपु = स्वैभाव। अनहद = अन+आहत्, बिना बजाए, एक रस, लगातार, सदा ही। बाणी वजाए = वाणी बजाता है, वाणी का प्रबल प्रभाव डाले रखता है (जिस करके विकारों की प्रेरणा सुनी नहीं जा सकती)।7। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (यह) फल हासिल करता है (कि) उसके हृदय में परमात्मा का नाम बस पड़ता है, वह अपने अंदर से स्वैभाव (अहम्-अहंकार) दूर कर लेता है। (जैसे ढोल बजने पर कोई छोटी मोटी आवाज सुनाई नहीं देती) वह मनुष्य (अपने अंदर) एक रस महिमा की वाणी, महिमा का शब्द उजागर करता है (जिसकी इनायत से) कोई अन्य बुरी प्रेरणा असर नहीं डाल सकती।7। सतिगुर ते कवनु कवनु न सीधो मेरे भाई ॥ भगती सीधे दरि सोभा पाई ॥ नानक राम नामि वडिआई ॥८॥५॥ पद्अर्थ: ते = से। सीधो = सीझा, सफल हुआ। भाई = हे भाई! दरि = दर पर। नामि = नाम से।8। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे भाई! गुरु की शरण पड़ने से कौन कौन सा मनुष्य (जीवन में) कामयाब नहीं होता? (जो भी मनुष्य गुरु का पल्ला पकड़ता है, उसकी जिंदगी सफल हो जाती है)। (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की भक्ति की इनायत से मनुष्य कामयाब जीवन वाले हो जाते हैं, प्रभु के दर पर उन्हें शोभा मिलती है। परमात्मा के नाम की इनायत से उन्हें (हर जगह बड़ाई) आदर, शोभा मिलती है।8।5। गउड़ी महला ३ ॥ त्रै गुण वखाणै भरमु न जाइ ॥ बंधन न तूटहि मुकति न पाइ ॥ मुकति दाता सतिगुरु जुग माहि ॥१॥ पद्अर्थ: त्रैगुण वखाणै = माया के तीनों गुणों की बातें करता है, माया के पसारे की बातों में दिलचस्पी रखता है। भरमु = भटकना। मुकति = (माया के मोह से) आजादी। जुग माहि = जगत में, जिंदगी में।1। अर्थ: (पर, हे भाई!) जो मनुष्य माया के पसारे की बातों में दिलचस्पी रखता है, उसके मन की भटकना दूर नहीं हो सकती, उसके (माया के मोह के) बंधन नहीं टूटते। उसे (माया के मोह से) आजादी प्राप्त नहीं होती। (हे भाई!) जगत में माया के मोह से निजात देने वाला (सिर्फ) गुरु (ही) है।1। गुरमुखि प्राणी भरमु गवाइ ॥ सहज धुनि उपजै हरि लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह अपने मन की भटकना दूर कर लेता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हो जाती है (क्योंकि, गुरु की कृपा से) वह परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |