श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 226 पर घरि चीतु मनमुखि डोलाइ ॥ गलि जेवरी धंधै लपटाइ ॥ गुरमुखि छूटसि हरि गुण गाइ ॥५॥ पद्अर्थ: पर घरि = पराए घर में। गलि = गले में। जेवरी = जंजीर, रस्सी, फांसी।5। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पराए घर में अपने चिक्त को डुलाता है (नतीजा ये निकलता है कि विकारों के) जंजाल में वह फंसता है और उसके गले में विकारों की जंजीर (पक्की होती जाती है)। जो मनुष्य गुरु के बताए रास्ते पर चलता है, वह परमात्मा की महिमा करके इस जंजाल में से बच निकलता है।5। जिउ तनु बिधवा पर कउ देई ॥ कामि दामि चितु पर वसि सेई ॥ बिनु पिर त्रिपति न कबहूं होई ॥६॥ पद्अर्थ: पर कउ = पराए (मनुष्य) को। कामि = काम में। दामि = दाम (के लालच) में। सेई = वही, वह विधवा। त्रिपति = शांति।6। अर्थ: जैसे विधवा अपना शरीर पराए मनुष्य के हवाले करती है, काम-वासना में (फंस के) पैसे (के लालच) में (फंस के) वह अपना मन (भी) पराए मनुष्य के वश में करती है, पर पति के बिना उसे कभी भी शांति नसीब नहीं हो सकती (ऐसे ही पति प्रभु को भुलाने वाली जीव-स्त्री अपना आप विकारों के अधीन करती है, पर पति प्रभु के बिना आत्मिक सुख कभी नहीं मिल सकता)।6। पड़ि पड़ि पोथी सिम्रिति पाठा ॥ बेद पुराण पड़ै सुणि थाटा ॥ बिनु रस राते मनु बहु नाटा ॥७॥ पद्अर्थ: थाटा = बनावट, रचना। नाटा = नाटक, चंचलता की बातें।7। अर्थ: (विद्वान पंडित) वेद-पुराण-स्मृतियां आदिक धर्म पुस्तकें बारंबार पढ़ता है, उनकी (काव्य) रचना बार बार सुनता है, पर जब तक उसका मन परमात्मा के नाम रस का रसिया नहीं बनता, तब तक (माया के हाथों पर ही) नाच करता है।7। जिउ चात्रिक जल प्रेम पिआसा ॥ जिउ मीना जल माहि उलासा ॥ नानक हरि रसु पी त्रिपतासा ॥८॥११॥ पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। उलासा = खुश। पी = पी कर। त्रिपतासा = तृप्त होता है, संतुष्ट होता है।8। अर्थ: जैसे पपीहे का (वर्षा-) जल से प्रेम है, (वर्षा-) जल की उसे प्यास है। जैसे मछली पानी में बहुत प्रसन्न रहती है, वैसे ही, हे नानक! परमात्मा का भक्त परमात्मा का नाम-रस पी के तृप्त हो जाता है।8।11। गउड़ी महला १ ॥ हठु करि मरै न लेखै पावै ॥ वेस करै बहु भसम लगावै ॥ नामु बिसारि बहुरि पछुतावै ॥१॥ पद्अर्थ: करि = करके। मरै = मरता है, दुखी होता है। लेखै = लेखे में। न लेखै पावै = किसी गिनती में नहीं गिना जाता। वेस = धार्मिक वेष। भसम = राख। बिसारि = विसार के। बहुरि = दुबारा, अंत को।1। अर्थ: (अगर कोई मनुष्य मन का हठ करके धूणियां आदि तपा के) शारीरिक मुश्कलें बर्दाश्त करता है, तो उसका ये कष्ट सहना किसी गिनती में नहीं गिना जाता। अगर कोई मनुष्य (शरीर पर) राख मलता है और (योग आदि के) कई भेस करता है (ये भी व्यर्थ जाते हैं)। परमात्मा का नाम भुला के वह अंत को पछताता है (कि इन उद्यमों में जीवन व्यर्थ गवाया)।1। तूं मनि हरि जीउ तूं मनि सूख ॥ नामु बिसारि सहहि जम दूख ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनि = मन में (बसा लो)।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) तू (अपने) मन में प्रभु जी को (बसा ले, और इस तरह) तू (अपने) मन में (आत्मिक) आनंद (ले)। (याद रख) परमात्मा के नाम को भुला के तू जमों के दुख सहेगा।1। रहाउ। चोआ चंदन अगर कपूरि ॥ माइआ मगनु परम पदु दूरि ॥ नामि बिसारिऐ सभु कूड़ो कूरि ॥२॥ पद्अर्थ: चोआ = इत्र। कपूरि = कपूर (आदि के इस्तेमाल) में (मगन)। मगन = मस्त। परम पदु = सब से ऊँची आत्मिक अवस्था। नामि बिसारिऐ = अगर (परमात्मा का) नाम बिसार दिया जाए। कूड़ो = झूठ ही, व्यर्थ ही। कूरि = झूठ में, व्यर्थ प्रयत्नों में।2। अर्थ: (दूसरी तरफ अगर कोई मनुष्य) इत्र, चंदन, अगर, कपूर (आदि सुगंधियों के प्रयोग में) मस्त है, माया के मोह में मस्त है, तो उच्च आत्मिक अवस्था (उससे भी) दूर है। अगर प्रभु का नाम भुला दिया जाए, तो ये सारा (दुनिया वाली ऐश भी) व्यर्थ है (सुख नहीं मिलता, मनुष्य सुख के) व्यर्थ प्रयत्नों में रहता है।2। नेजे वाजे तखति सलामु ॥ अधकी त्रिसना विआपै कामु ॥ बिनु हरि जाचे भगति न नामु ॥३॥ पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। अधकी = बहुत। विआपै = जोर डालता है। जाचे = मांगने से।3। अर्थ: (अगर कोई मनुष्य राजा भी बन जाए) तख्त पर (बैठे हुए को) नेजा-बरदार फौजी व बाजे वाले सलामें करें, तो भी माया की तृष्णा ही बढ़ती है, काम-वासना जोर डालती है (इनमें आत्मिक सुख नहीं है! सुख है केवल प्रभु के नाम में भक्ति में)। पर प्रभु के दर से मांगे बिना ना तो भक्ति मिलती है ना ही नाम मिलता है।3। वादि अहंकारि नाही प्रभ मेला ॥ मनु दे पावहि नामु सुहेला ॥ दूजै भाइ अगिआनु दुहेला ॥४॥ पद्अर्थ: वादि = झगड़े मे। अहंकारि = अहंकार में। दे = दे कर। पावहि = तू हासिल करेगा। सुहेला = सुख+आलय, सुख का घर, सुख का श्रोत। दुहेला = दुख+आलय, दुखों का घर, दुखदाई।4। अर्थ: (विद्या के बल पर धार्मिक पुस्तकों की चर्चा के) झगड़े में (पड़ने से) (व विद्या के) अहंकार में (भी) परमात्मा का मिलाप नहीं होता। (हे भाई!) अपना मन दे के (ही, अहंकार गवा के ही) सुखों का श्रोत प्रभु नाम प्राप्त करेगा। (प्रभु को बिसार के) और ही प्यार में रहने से दुखद अज्ञान ही बढ़ेगा।4। बिनु दम के सउदा नही हाट ॥ बिनु बोहिथ सागर नही वाट ॥ बिनु गुर सेवे घाटे घाटि ॥५॥ पद्अर्थ: दम = धन-पदार्थ। बोहिथ = जहाज। सागर वाट = समुंदर का सफर। घाटे घाटि = घाटे में ही, नुकसान में ही।5। अर्थ: जैसे रास पूंजी के बिना दुकान का सौदा नहीं लिया जा सकता, वैसे ही जहाज के बिना समुंदर का सफर नहीं हो सकता, वैसे ही गुरु की शरण पड़े बिना (जीवन सफर में आत्मिक राशि-पूंजी की तरफ से) घाटे ही घाटे में रहना पड़ता है।5। तिस कउ वाहु वाहु जि वाट दिखावै ॥ तिस कउ वाहु वाहु जि सबदु सुणावै ॥ तिस कउ वाहु वाहु जि मेलि मिलावै ॥६॥ पद्अर्थ: वाहु वाहु = धन्य धन्य (कहो)। जि = जो (गुरु)। मेलि = (प्रभु के) मिलाप में।6। अर्थ: (हे भाई!) उस पूरे गुरु को धन्य-धन्य कह जो सही जीवन-राह दिखाता है, जो परमात्मा की महिमा के शब्द सुनाता है, और (इस तरह) जो परमात्मा के मिलाप में मिला देता है।6। वाहु वाहु तिस कउ जिस का इहु जीउ ॥ गुर सबदी मथि अम्रितु पीउ ॥ नाम वडाई तुधु भाणै दीउ ॥७॥ पद्अर्थ: तिस कउ = उस (परमातमा) को। जीउ = जीवातमा, जिंद। मथि = मंथन करके, रिड़क के, अच्छी तरह विचार के। तुधु = तुझे। भाणै = अपनी रजा में। दीउ = देगा।7। अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा की महिमा कर जिसकी (दी हुई) ये जिंद है। गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के गुणों को) बार बार विचार के आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस पी। वह प्रभु तुझे अपनी रजा में नाम जपने का बड़प्पन देगा।7। नाम बिना किउ जीवा माइ ॥ अनदिनु जपतु रहउ तेरी सरणाइ ॥ नानक नामि रते पति पाइ ॥८॥१२॥ पद्अर्थ: जीवा = जीऊँ, मैं जी सकूँ। माइ = हे माँ! अनदिनु = हररोज। जपतु रहउ = जपता रहूँ। नामि = नाम में। नामि रहे = अगर नाम (रंग) में रंगे रहें। पति = इज्जत।8। अर्थ: हे मेरी माँ! परमात्मा के नाम के बिना मैं (आत्मिक जीवन) जी नहीं सकता। हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, (मेहर कर) मैं दिन रात तेरा ही नाम जपता रहूँ। हे नानक! अगर प्रभु के नाम-रंग में रंगे रहें, तभी (लोक-परलोक में) आदर-मान मिलता है।8।12। गउड़ी महला १ ॥ हउमै करत भेखी नही जानिआ ॥ गुरमुखि भगति विरले मनु मानिआ ॥१॥ पद्अर्थ: हउमै = “हउ हउ, मैं मैं”, “मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा बन जाऊँ”। करत = करते हुएं। भेखी = धार्मिक भेषों से। जानिआ = परमात्मा के साथ सांझ डाली। मानिआ = मान गया, पतीज गया, गिझ गया।1। अर्थ: (“मैं धर्मी हूँ मैं धर्मी हूँ” ये) मैं मैं करते हुए (निरे) धार्मिक वेष से कभी किसी ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं डाली। गुरु की शरण पड़ कर ही (भाव, गुरु के आगे स्वैभाव त्याग के ही) परमात्मा की भक्ति में मन रमता है। पर, ऐसा स्वैभाव त्यागने वाला कोई एक-आध ही होता है।1। हउ हउ करत नही सचु पाईऐ ॥ हउमै जाइ परम पदु पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।1। रहाउ। अर्थ: (मैं बड़ा धर्मी हूँ, मैं बड़ा राजा हूँ, ऐसी) मैं मैं करते हुए (कभी) सदा कायम रहने वाला परमात्मा मिल नहीं सकता। जब ये अहंकार दूर हो, तब ही सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर सकते हैं।1। रहाउ। हउमै करि राजे बहु धावहि ॥ हउमै खपहि जनमि मरि आवहि ॥२॥ पद्अर्थ: करि = करके, के कारण। धावहि = (एक दूसरे पर) हमले करते हैं। खपहि = खुआर होते हैं।2। अर्थ: (‘हम बड़े राजा है”, इसी) अहंकार के कारण ही राजे एक दूसरे के (देशों पर) कई बार हमले करते रहते हैं अपने बड़प्पन के गुमान में दुखी होते हैं (नतीजा ये निकलता है कि प्रभु की याद भुला के) जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।2। हउमै निवरै गुर सबदु वीचारै ॥ चंचल मति तिआगै पंच संघारै ॥३॥ पद्अर्थ: निवरै = दूर होती है। पंच = कामादिक पाँचों को। संघारै = नाश करता है, मारता है।3। अर्थ: जो (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु का शब्द विचारता है (अपने सोच मण्डल में टिकाता है) उसका अहंकार दूर हो जाता है, वह (भटकना में डालने वाली अपनी) होछी मति त्यागता है, और कामादिक पाँचों वैरियों का नाश करता है।3। अंतरि साचु सहज घरि आवहि ॥ राजनु जाणि परम गति पावहि ॥४॥ पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु। सहज घरि = सहज के घर में, शांत अवस्था में। राजनु = सारी सृष्टि का राजा प्रभु। जाणि = सांझ डाल के। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: जिस लोगों के हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा (बसता) है, वे अडोल आत्मिक अवस्था में टिके रहते हैं। सारी सृष्टि के मालिक प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल के वे सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल करते हैं।4। सचु करणी गुरु भरमु चुकावै ॥ निरभउ कै घरि ताड़ी लावै ॥५॥ पद्अर्थ: निरभउ कै घरि = निर्भय प्रभु के स्वरूप में। ताड़ी लावै = तवज्जो जोड़ता है।5। अर्थ: जिस मनुष्य के मन की भटकन गुरु दूर करता है, सदा स्थिर प्रभु का स्मरण उस का नित्य कर्म बन जाता है, वह निर्भव प्रभु के चरणों में सदा अपनी तवज्जो जोड़े रखता है।5। हउ हउ करि मरणा किआ पावै ॥ पूरा गुरु भेटे सो झगरु चुकावै ॥६॥ पद्अर्थ: मरणा = आत्मिक मौत लेना। किआ पावै = कोई आत्मिक गुण प्राप्त नहीं होता। भेटे = मिले। झगरु = अहंकार के मसले।6। अर्थ: “हउ हउ, मैं मैं” के कारण आत्मिक मौत ही मिलती है, इससे और कोई आत्मिक गुण नहीं मिलता। जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, वह अहंकार के इस मसले को अंदर से खत्म कर लेता है।6। जेती है तेती किहु नाही ॥ गुरमुखि गिआन भेटि गुण गाही ॥७॥ पद्अर्थ: जेती है = अहंकार के आसरे जितनी भी दौड़ भाग है। तेती = ये सारी दौड़ भाग। किहु नाही = कुछ भी नहीं, कोई आत्मिक लाभ नहीं पहुँचाती, व्यर्थ जाती है। गिआन भेटि = ज्ञान को प्राप्त करके।7। अर्थ: अहंकार के आसरे जितनी भी दौड़ भाग है ये सारी दौड़भाग कोई आत्मिक लाभ नहीं पहुँचाती। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (गुरु से) ज्ञान प्राप्त करके परमात्मा के गुण गाते हैं।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |