श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 225 आपे सतिगुरु सबदु बीचारे ॥ दूजै भाइ दैत संघारे ॥ गुरमुखि साचि भगति निसतारे ॥८॥ पद्अर्थ: दूजै भाइ = प्रभु को त्याग के किसी और के प्रेम में।8। अर्थ: (इस सारी खेल का मालिक परमात्मा) खुद ही गुरु रूप हो के अपनी महिमा की वाणी को विचारता है, खुद ही दैत्यों को माया के मोह में फंसा के मारता है, खुद ही गुरु की शरण पड़े लोगों को अपने स्मरण में अपनी भक्ति मेुं जोड़ के (संसार समुंदर से) पार लंघाता है।8। बूडा दुरजोधनु पति खोई ॥ रामु न जानिआ करता सोई ॥ जन कउ दूखि पचै दुखु होई ॥९॥ पद्अर्थ: पति = इज्जत। दुरजोधनु = धृतराष्ट् का बड़ा बेटा जो बड़ा अहंकारी व लोभी था। इसी ने पांडवों से जूए में दगा-फरेब से राज छीना था। आखिर पांडवों के हाथों युद्ध में मारा गया।9। अर्थ: दुर्योधन (अहंकार में) डूबा, और अपनी इज्जत गवा बैठा। (अहंकार में आ के) उसने परमात्मा को कर्तार को याद ना रखा (इस हद तक गिरा कि अनाथ द्रोपदी को बेआबरू करने पर उतर आया)। पर जो परमात्मा के दास को (दुख देता है वह उस) दुख के कारण खुद ही खुआर होता है। उसे खुद ही वह दुख (मार) देता है।9। जनमेजै गुर सबदु न जानिआ ॥ किउ सुखु पावै भरमि भुलानिआ ॥ इकु तिलु भूले बहुरि पछुतानिआ ॥१०॥ पद्अर्थ: जनमेजै = (जनमेजा) परीक्षित का पुत्र, एक प्रसिद्ध राजा था। इसके पिता परीक्षित को तक्शक साँप ने डस लिया था। जनमेजा साँपों का वैरी बना। सर्पमेध यज्ञ करके अनेक साँप मारे। ब्यास इसका गुरु था। एक बार अश्वमेध यज्ञ इसने किया। इसकी स्त्री बहुत ही बारीक वस्त्रों में वहाँ आई। भोजन खाने आए अठारह ब्राहमण ये देख के हस पड़े। राजा ने कत्ल करा दिए। ब्रहम् हत्या के कारण, कुष्ठ हो गया। महाभारत की कथा सुनी। कुष्ठ हटता गया। जब ये सुना कि भीम ने जो हाथी आकाश में फेंके थे अभी तक वापस नहीं गिरे तो जनमेजे ने शक किया। कुष्ठ अंगूठे पर ही टिक गया।10। अर्थ: राजा जनमेजा ने अपने गुरु की शिक्षा को ना समझा (अपने धन और अक्ल पर गुमान किया। अहंकार के कारण) भुलेखे में पड़ के गलत राह पड़ गया, फिर सुख कहाँ मिलता? (गुरु ने समझा के कुष्ठ की भारी बिपदा से बचाने का उद्यम किया, पर फिर भी) थोड़ा सा थिरक गया, और फिर पछताया। (अहंकार बड़े बड़े समझदारों की अक्ल को चक्कर में डाल देता है)।10। कंसु केसु चांडूरु न कोई ॥ रामु न चीनिआ अपनी पति खोई ॥ बिनु जगदीस न राखै कोई ॥११॥ पद्अर्थ: कंसु = उग्रसेन का पुत्र, कृष्ण का मामा। कृष्ण जी के हाथों मारा गया। केसु = केसी, कंस का पहलवान। कृष्ण जी ने मारा था। चांडूरु = कंस का योद्धा, कृष्ण जी ने मारा था।11। अर्थ: कंस, केसी और चांडूर (महान योद्धा थे, शूरबीरता में इनके बराबर का) और कोई नहीं था। (पर अपने ताकत के अहंकार में) इन्होंने परमात्मा की लीला को नहीं समझा और अपनी इज्जत गवा ली। (अपनी शक्ति का मान झूठा है। ये ताकत कोई मदद नहीं करती) ईश्वर के बिना और कोई (किसी की) रक्षा नहीं कर सकता।11। बिनु गुर गरबु न मेटिआ जाइ ॥ गुरमति धरमु धीरजु हरि नाइ ॥ नानक नामु मिलै गुण गाइ ॥१२॥९॥ पद्अर्थ: नाइ = नाम में जुड़ने से।12। अर्थ: (अहंकार बड़ा बलशाली है) गुरु की शरण पड़े बिना इस अहंकार को (अंदर से) मिटाया नहीं जा सकता। जो मनुष्य गुरु की शिक्षा धारण करता है वह (अहंकार मिटा के) धीरज धारता है। (धैर्य बहुत ऊँचा) धर्म है। हे नानक! गुरु की शिक्षा पर चलने से ही परमात्मा का नाम प्राप्त होता है, और जीव परमात्मा की महिमा करता है।12।9। गउड़ी महला १ ॥ चोआ चंदनु अंकि चड़ावउ ॥ पाट पट्मबर पहिरि हढावउ ॥ बिनु हरि नाम कहा सुखु पावउ ॥१॥ पद्अर्थ: चोआ = इत्र। अंकि = शरीर पर। चढ़ावउ = (अगर) मैं लगा लूँ। पाट = रेशम। पटंबर = (पट+अंबर; पट = रेशम; अंबर = कपड़े) रेशम के कपड़े। पहिरि = पहिन के। पावउ = मैं पाऊँ, मैं पा सकता हूँ।1। अर्थ: अगर मैं इत्र और चंदन अपने तन पर लगा लूँ, अगर मैं रेशम व रेशमी कपड़े पहनूँ, (फिर भी) अगर मैं परमात्मा के नाम से वंचित हूँ, तो कहीं भी मुझे सुख नहीं मिल सकता।1। किआ पहिरउ किआ ओढि दिखावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु पावउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किआ पहिरउ = बढ़िया कपड़े पहनने से क्या लाभ? ओढि = पहन के। जगदीस = जगत का मालिक।1। रहाउ। अर्थ: बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनने और पहन कर दूसरों को दिखाने से क्या लाभ है? परमात्मा (के चरणों में जुड़े) बिनां कहीं और सुख नहीं मिल सकता।1। रहाउ। कानी कुंडल गलि मोतीअन की माला ॥ लाल निहाली फूल गुलाला ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु भाला ॥२॥ पद्अर्थ: कानी = कानों में। गलि = गले में। लाल निहाली = लाल रंग की तुलाई (गद्दा)। फूल गुलाला = गुलाल के फूल।2। अर्थ: अगर मैं अपने कानों में कुण्डल डाल लूँ, गले में मोतियों की माला पहन लूँ, मेरे लाल रंग गद्दे पर गुलाल के फूल (बिखरे हुए) हों, (फिर भी) परमात्मा के स्मरण के बिना मुझे कहीं भी सुख नहीं मिल सकता।2। नैन सलोनी सुंदर नारी ॥ खोड़ सीगार करै अति पिआरी ॥ बिनु जगदीस भजे नित खुआरी ॥३॥ पद्अर्थ: नैन = आँखें। सलोनी = सुंदर लोइण वाली, सुंदर आँखों वाली। खोड़ = सोलह। बिनु भजे = स्मरण के बिना।3। अर्थ: अगर सुंदर आँखों वाली खूबसूरत मेरी स्त्री हो, वह सोलह तरह के हार-श्रृंगार करती हो, और मुझे बहुत प्यारी लगती हो; फिर भी जगत के मालिक प्रभु का स्मरण किए बगैर सदा ख्वारी ही होती है।3। दर घर महला सेज सुखाली ॥ अहिनिसि फूल बिछावै माली ॥ बिनु हरि नाम सु देह दुखाली ॥४॥ पद्अर्थ: महला = महल माढ़ीयां। सुखली = सुख देने वाली। अहि = दिन। निसि = रात। दुखाली = दुखों का घर।4। अर्थ: अगर मेरे पास बसने के लिए महिल-माढ़ियां हों, सुख देने वाला मेरा पलंघ हो, उस पर माली दिन रात फूल बिछाता रहे, (फिर भी) परमात्मा के नाम स्मरण के बगैर ये शरीर दुखों का घर ही बना रहता है।4। हैवर गैवर नेजे वाजे ॥ लसकर नेब खवासी पाजे ॥ बिनु जगदीस झूठे दिवाजे ॥५॥ पद्अर्थ: हैवर = हय+वर, बढ़िया घोड़े। गैवर = (गज+वर) बढ़िया हाथी। नेब = नायब। खवासी = शाही नौकर। पाजे = पाज, दिखावा। दिवाजे = दिखावे।5। अर्थ: अगर मेरे पास बढ़िया घोड़े हाथी हों, शस्त्रों से लेस फौजें हों, लश्कर हों, हायब हों, शाही नौकर हों, ये सारा दिखावा हो, (फिर भी) जगत के मालिक परमात्मा का स्मरण किए बिना ये (शक्ति के) दिखावे नाशवान ही हैं।5। सिधु कहावउ रिधि सिधि बुलावउ ॥ ताज कुलह सिरि छत्रु बनावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सचु पावउ ॥६॥ पद्अर्थ: सिधु = करामाती योगी। कहावउ = अगर मैं कहलाऊँ। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। कुलह = टोपी। सिरि = सिर पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला (राज-भाग)।6। अर्थ: अगर मैं (अपने आप को) करामाती साधु कहला लूँ, (जब चाहूँ) चमत्कारी शक्तियों को (अपने पास) बुला सकूँ। मेरे सिर पर ताज की टोपी हो, मैं अपने सिर पर (शाही) छत्र झुला सकूँ, (फिर भी) जगत के मालिक प्रभु के स्मरण के बिना सदा टिके रहने वाली (आत्मिक) शक्ति कहीं से हासिल नहीं कर सकता।6। खानु मलूकु कहावउ राजा ॥ अबे तबे कूड़े है पाजा ॥ बिनु गुर सबद न सवरसि काजा ॥७॥ पद्अर्थ: मलूक = बादशाह। अबे तबे = नौकरों को झिड़कें। कूड़े = झूठे, नाशवान। काजा = जीवन उद्देश्य।7। अर्थ: यदि मैं अपने आप को खान कहलवा लूँ, बादशाह कहलवाऊँ, राजा कहलाऊँ, नौकरों चाकरों को डांट-फटकार भी दे सकूँ, (ताकत का सारा ये) दिखावा नाश हो जाने वाला है। गुरु के शब्द का आसरा लिए बिना मानव जीवन का उद्देश्य सिरे नहीं चढ़ता।7। हउमै ममता गुर सबदि विसारी ॥ गुरमति जानिआ रिदै मुरारी ॥ प्रणवति नानक सरणि तुमारी ॥८॥१०॥ पद्अर्थ: ममता = मल्कियत की तमन्ना। सबदि = शब्द से। गुरमति = गुरु की शिक्षा से। मुरारी = मुर+अरि, परमात्मा।8। अर्थ: मैं बड़ा बन जाऊँ, और मेरी बहुत सारी मल्कियतें हों -ये चाहत गुरु के शब्द में जुड़ने से ही मन से भूलती हैं। गुरु की मति पर चलने से ही परमात्मा हृदय में टिका पहचाना जा सकता है। (पर, ये सब कुछ तभी हो सकता है अगर परमात्मा की अपनी मेहर हो। इस वास्ते) नानक प्रभु-दर पे विनती करता है - (हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ।8।10। गउड़ी महला १ ॥ सेवा एक न जानसि अवरे ॥ परपंच बिआधि तिआगै कवरे ॥ भाइ मिलै सचु साचै सचु रे ॥१॥ पद्अर्थ: एक = एक परमात्मा की। परपंच = सृष्टि। बिआधि = रोग। कवरे = कड़वे। भाइ = प्रेम में। साचै = सदा स्थिर प्रभु को। रे = हे भाई!।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भक्त एक परमात्मा की सेवा (भक्ति) करता है, किसी और को वह (परमात्मा के बराबर का) नहीं समझता। संसार के रोग (पैदा करने वाले भोगों) को वह कड़वा जान के त्याग देता है। (परमात्मा के) प्रेम में जुड़ के वह सदा स्थिर परमात्मा (के चरणों) में मिल जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु का रूप हो जाता है।1। ऐसा राम भगतु जनु होई ॥ हरि गुण गाइ मिलै मलु धोई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राम भगतु = परमात्मा का भक्त। गाइ = गा के।1। रहाउ। अर्थ: परमात्मा का भक्त परमात्मा का सेवक इस तरह का होता है, वह परमात्मा के गुण गा के (उसके चरणों में) मिलता है और (अपने मन के विकारों की) मैल धो लेता है।1। रहाउ। ऊंधो कवलु सगल संसारै ॥ दुरमति अगनि जगत परजारै ॥ सो उबरै गुर सबदु बीचारै ॥२॥ पद्अर्थ: ऊंधो = उलटा, उध्र्व (परमात्मा की याद से बेमुख हुआ)। संसारै = संसार का। परजारै = अच्छी तरह जलाती है। सो = वह मनुष्य।2। अर्थ: सारे जगत (के जीवों) का हृदय कमल (परमात्मा के नाम जपने की ओर से) उल्टा हुआ है। इस बुरी अनुचित मति की आग संसार (के जीवों के आत्मिक जीवन) को अच्छी तरह जला रही है। (इस आग में से) वही मनुष्य बचता है जो गुरु के शब्द को विचारता है।2। भ्रिंग पतंगु कुंचरु अरु मीना ॥ मिरगु मरै सहि अपुना कीना ॥ त्रिसना राचि ततु नही बीना ॥३॥ पद्अर्थ: भ्रिंग = भृंग, भंवरा। कुंचरु = हाथी। अरु = और। मीना = मछली। मिरग = हिरन। सहि = सह के। राचि = रच के, फस के। ततु = अस्लियत। बीना = पहचाना, देखा।3। अर्थ: भंवरा, पतंगा, हाथी, मछली और हिरन - हरेक अपना अपना किया पा के मर जाते हैं। (इसी तरह दुरमति का मारा मनुष्य) तृष्णा में फंस के अपने असल (परमात्मा) को नहीं देखता (और आत्मिक मौत मरता है)।3। कामु चितै कामणि हितकारी ॥ क्रोधु बिनासै सगल विकारी ॥ पति मति खोवहि नामु विसारी ॥४॥ पद्अर्थ: चितै = चितवता है। हितकारी = हित करने वाला, प्रेमी। कामणि = स्त्री। विकारी = विकारियों को। पति = इज्जत। विसारी = बिसार के, भुला के।4। अर्थ: (दुरमति के अधीन हो के) स्त्री का प्रेमी मनुष्य सदा काम-वासना ही चितवता है। (फिर) क्रोध सारे विकारियों (के आत्मिक जीवन) को तबाह करता है। ऐसे मनुष्य प्रभु का नाम भुला के अपनी इज्जत और अक्ल गवा लेते हैं।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |