श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 227 हउमै बंधन बंधि भवावै ॥ नानक राम भगति सुखु पावै ॥८॥१३॥ पद्अर्थ: बंधन बंधि = बंधनों में बंध के।8। अर्थ: अहंकार (जीवों को मोह के) बंधनों में बाँध के जनम मरण के चक्कर में डालती है। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है (वह अहंकार से बचा रहता है, और) सुख पाता है।8।13। गउड़ी महला १ ॥ प्रथमे ब्रहमा कालै घरि आइआ ॥ ब्रहम कमलु पइआलि न पाइआ ॥ आगिआ नही लीनी भरमि भुलाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: प्रथमे = सबसे पहले। कालै घरि = काल के घर में, मौत के सहम में। पइआलि = पाताल में। ब्रहम कमलु = विष्णु का कमल, विष्णु की नाभि में से उगे हुए कमल का अंत। भरमि = भटकना में। भुलाइआ = गलत रास्ते पड़ गया।1। अर्थ: (और जीवों की तो बात ही क्या करनी है) सबसे पहले ब्रहमा ही आत्मिक मौत की जंजीर में फंस गया। उसने अपने गुरु की आज्ञा पर गौर ना किया, (इस अहंकार में आ के मैं इतना बड़ा हूँ कि मैं कैसे कमल की डंडी में से पैदा हो सकता हूँ) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ गया (विष्णु की नाभि से उगे हुए जिस कमल में से ब्रहमा पैदा हुआ था, उस का अंत लेने के लिए) पाताल में (जा पहुँचा) पर ब्रहम् कमल (का अंत) ना ढूँढ सका (और शर्मिंदा होना पड़ा। ये अहंकार ही मौत है)।1। जो उपजै सो कालि संघारिआ ॥ हम हरि राखे गुर सबदु बीचारिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उपजै = पैदा होता है। सो = उसे। कालि = काल ने, मौत (के सहम) ने। संघारिआ = मारा है, आत्मिक जीवन की ओर से मारा। हम = मुझे। राखे = आत्मिक मौत से बचा लिया।1। रहाउ। अर्थ: (जगत में) जो जो जीव जनम लेता है (और गुरु का शब्द अपने हृदय में नहीं बसाता) मौत (के सहम) ने उस उस का आत्मिक जीवन प्रफुल्लित नहीं होने दिया। मेरे आत्मिक जीवन को परमात्मा ने खुद बचा लिया, (क्योंकि उसकी मेहर से) मैंने गुरु के शब्द को अपने हृदय में बसा लिया।1। रहाउ। माइआ मोहे देवी सभि देवा ॥ कालु न छोडै बिनु गुर की सेवा ॥ ओहु अबिनासी अलख अभेवा ॥२॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। कालु = मौत का सहम।2। अर्थ: सारे देवियां और देवते माया के मोह में फंसे हुए हैं (यही है आत्मिक मौत, ये आत्मिक) मौत गुरु की बताई हुई सेवा किए बिना खलासी नहीं करती। (इस आत्मिक) मौत से बचा हुआ सिर्फ एक परमातमा है जिसके गुण बयान नहीं हो सकते, जिसका भेद पाया नहीं जा सकता।2। सुलतान खान बादिसाह नही रहना ॥ नामहु भूलै जम का दुखु सहना ॥ मै धर नामु जिउ राखहु रहना ॥३॥ पद्अर्थ: नामहु = नाम से। भूले = वंचित रहता है। मै = मुझे। धर = आसरा।3। अर्थ: (वैसे तो) सुल्तान हों, खान हों, बादशाह हों, किसी ने भी सदा यहाँ टिके नहीं रहना, पर परमातमा के नाम से जो जो वंचित रहता है वह जम का दुख सहता है (वह अपनी आत्मिक मौत भी सहेड़ लेता है, इस करके, हे प्रभु!) मुझे तेरा नाम ही सहारा है (मैं यही अरदास करता हूँ) जैसे हो सके मुझे अपने नाम में जोड़े रख, मैं तेरे नाम में ही टिका रहूँ।3। चउधरी राजे नही किसै मुकामु ॥ साह मरहि संचहि माइआ दाम ॥ मै धनु दीजै हरि अम्रित नामु ॥४॥ पद्अर्थ: मुकामु = पक्का ठिकाना। मरहि = मरते हैं। संचहि = इकट्ठा करते हैं। दाम = पैसे, धन।4। अर्थ: चौधरी हों, राजे हों, किसी का भी यहाँ पक्का डेरा नहीं है। पर (जो) शाह निरी माया ही जोड़ते हैं, सिर्फ पैसे ही एकत्र करते हैं, वे आत्मिक मौत मर जाते हैं। हे हरि! मुझे आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम-धन बख्श।4। रयति महर मुकदम सिकदारै ॥ निहचलु कोइ न दिसै संसारै ॥ अफरिउ कालु कूड़ु सिरि मारै ॥५॥ पद्अर्थ: महर = रहनुमा। मुकदम = चौधरी। सिकदार = सरदार। संसारै = संसार में। अफरिओ = बली, अमोड़। कूड़ु = माया का मोह। सिरि = (उसके) सिर पर। मारै = मारता है, आत्मिक मौत मरता है, आत्मिक जीवन को प्रफुल्लित नहीं होने देता।5। अर्थ: प्रजा, प्रजा के रहनुमा, चौधरी, सरदार - कोई भी ऐसा नहीं दिखता जो संसार में सदा टिका रह सके। पर बली काल उसके सिर पर चोट मारता है (उसे आत्मिक मौत मारता है) जिसके हृदय में माया का मोह है।5। निहचलु एकु सचा सचु सोई ॥ जिनि करि साजी तिनहि सभ गोई ॥ ओहु गुरमुखि जापै तां पति होई ॥६॥ पद्अर्थ: निहचलु = अटल, सदा स्थिर। जिनि = जिस (परमातमा) ने। तिनहि = उसी (प्रभु) ने। गोई = ले कर दी। सभ = सारी सृष्टि। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। ओह = वह परमात्मा। पति = इज्जत।6। अर्थ: सदा अटल रहने वाला केवल एक ही एक परमात्मा ही है, जिस ने यह सारी सृष्टि रची बनाई है, वह खुद ही इसे (अपने अंदर) लय कर लेता है। जब गुरु की शरण पड़ने से वह परमात्मा हर जगह दिखाई दे जाए (तो जीव का आत्मिक जीवन प्रफुल्लित होता है) तब (इसे प्रभु की हजूरी में) आदर मिलता है।6। काजी सेख भेख फकीरा ॥ वडे कहावहि हउमै तनि पीरा ॥ कालु न छोडै बिनु सतिगुर की धीरा ॥७॥ पद्अर्थ: तनि = तन में। पीरा = पीड़ा। धीरा = धीरज, सहारा।7। अर्थ: काजी कहलाएं, शेख कहलवाएं, बड़े बड़े भेषों वाले फ़कीर कहलाएं, (दुनिया में अपने आप को) बड़े बड़े कहलवाएं; पर अगर शरीर में अहंकार की पीड़ा है, तो मौत खलासी नहीं करती (आत्मिक मौत खलासी नहीं करती, आत्मिक जीवन प्रफुल्लित नहीं होता)। सतिगुरु से मिले (नाम-) आधार के बिना (ये आत्मिक मौत टिकी ही रहती है)।7। कालु जालु जिहवा अरु नैणी ॥ कानी कालु सुणै बिखु बैणी ॥ बिनु सबदै मूठे दिनु रैणी ॥८॥ पद्अर्थ: जिहवा = जीभ से। नैणी = आँखों से। कानी = कानों से। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाले। बैणी = वचन। मूठे = लूटे जाते हैं।8। अर्थ: (निंदा आदि के कारण) जीभ से, (पराया रूप देखने के कारण) आँखों द्वारा, और कानों से (क्योंकि जीव) आत्मिक मौत लाने वाले (निंदा आदि के) वचन सुनता है आत्मिक मौत (का) जाल (जीवों के सिर पर सदैव तना रहता है)। गुरु के शब्द (का आसरा लिए) बिना जीव दिन रात (आत्मिक जीवन के गुणों से) लूटे जा रहे हैं।8। हिरदै साचु वसै हरि नाइ ॥ कालु न जोहि सकै गुण गाइ ॥ नानक गुरमुखि सबदि समाइ ॥९॥१४॥ पद्अर्थ: नाइ = नाम में। न जोहि सकै = देख नहीं सकता, सहम नहीं डाल सकता, आत्मिक जीवन को मार नहीं सकता। सबदि = शब्द द्वारा।9। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर प्रभु (सदा) बसा रहता है, जो मनुष्य परमात्मा के नाम में (सदा) टिका रहता है, आत्मिक मौत (मौत का सहम) उसकी तरफ कभी देख भी नहीं सकती (क्योंकि वह सदा प्रभु के) गुण गाता है। हे नानक! वह मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के गुरु के शब्द के द्वारा (प्रभु के चरणों में सदा) लीन रहता है।9।14। गउड़ी महला १ ॥ बोलहि साचु मिथिआ नही राई ॥ चालहि गुरमुखि हुकमि रजाई ॥ रहहि अतीत सचे सरणाई ॥१॥ पद्अर्थ: बोलहि = बोलते हैं। साचु = सदा अटल रहने वाला बोल। मिथिआ = झूठ। राई = रत्ती भर। हुकमि रजाई = रजा के मालिक प्रभु के हुक्म में। अतीत = माया के प्रभाव से परे।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के रजा के मालिक प्रभु के हुक्म में चलते हैं, वे सदा स्थिर प्रभु की शरण में रह के माया के प्रभाव से ऊपर रहते हैं। इस वास्ते वो रत्ती भर भी झूठ नहीं बोलते, वे सदा अटल रहने वाले बोल ही बोलते हैं।1। सच घरि बैसै कालु न जोहै ॥ मनमुख कउ आवत जावत दुखु मोहै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सच घरि = सच के घर में, सदा स्थिर प्रभु के चरणों में। बैसे = (जो) बैठता है। कालु = मौत का सहम, आत्मिक मौत। मोहै = मोह के कारण। आवत जावत = पैदा होने मरने का।1। रहाउ। अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के चरणों में टिका रहता है, उसे मौत का सहम छू नहीं सकता (उसके आत्मिक जीवन को कोई खतरा नहीं होता) पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को मोह (में फंसे होने) के कारण जनम मरण का दुख (दबाए रखता) है।1। रहाउ। अपिउ पीअउ अकथु कथि रहीऐ ॥ निज घरि बैसि सहज घरु लहीऐ ॥ हरि रसि माते इहु सुखु कहीऐ ॥२॥ पद्अर्थ: अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पीअउ = बेशक कोई भी पक्ष पीए। कथि = कह के, महिमा करके। रहीऐ = रह सकते हैं, (निज घर में टिके) रह सकते हैं। बैसि = बैठ के, टिक के। सहज घरु = आत्मिक अडोलता देने वाला घर। लहीऐ = प्राप्त कर सकते हैं। रसि = रस में। माते = मस्त होने से। कहीऐ = कह सकते हैं।2। अर्थ: कोई भी जीव नाम-रस पीए (और पी के देख ले), बेअंत गुणों के मालिक प्रभु की महिमा करके (“निज घर में”) टिके रह सकते हैं, और उस स्वै-स्वरूप में बैठ के आत्मिक अडोलता का ठिकाना ढूँढ सकते हैं। हरि-नाम-रस में मस्त होने से ये कह सकते हैं कि यही है असल आत्मिक सुख।2। गुरमति चाल निहचल नही डोलै ॥ गुरमति साचि सहजि हरि बोलै ॥ पीवै अम्रितु ततु विरोलै ॥३॥ पद्अर्थ: चाल = जीवन चाल, जिंदगी की जुगति। निहचल = जिसे माया का मोह हिला नहीं सकता। साचि = सदा स्थिर प्रभु में (टिक के)। विरोलै = मथना, मंथन करके, मथ के ढूँढ लेता है।3। अर्थ: गुरु की मति पर चलने वाली जीवन-जुगति (ऐसी है कि इसे) माया का मोह हिला नहीं सकता, माया के मोह में ये डोल नहीं सकती। जो मनुष्य गुरु की मति धारण करके नाम-रस पीता है, वह अस्लियत को मथ कर तलाश लेता है।3। सतिगुरु देखिआ दीखिआ लीनी ॥ मनु तनु अरपिओ अंतर गति कीनी ॥ गति मिति पाई आतमु चीनी ॥४॥ पद्अर्थ: दीखिआ = शिक्षा। अरपिओ = अर्पित किया, हवाले किया। अंतर गति = आंतरिक आत्मिक हालत। गति = परमात्मा की आत्मिक अवस्था। मिति = परमात्मा का बड़प्पन। आतमु = आपना आप।4। अर्थ: जिस मनुष्य ने (पूरे) गुरु के दर्शन कर लिए और गुरु की शिक्षा ग्रहण कर ली, अपने अंतरात्मे बसा ली और (उस शिक्षा की खातिर) अपना मन और अपना तन भेट कर दिया, (और जिस मनुष्य ने इस शिक्षा की इनायत से सदा स्थिर प्रभु के चरणों में जुड़ना आरम्भ कर दिया) उसने अपनी अस्लियत को पहिचान लिया, उसे समझ आ गई कि परमात्मा सबसे उच्च आत्मिक अवस्था वाला है और बेअंत वडियाई वाला है।4। भोजनु नामु निरंजन सारु ॥ परम हंसु सचु जोति अपार ॥ जह देखउ तह एकंकारु ॥५॥ पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। परम = सब से बड़ा। सचु = सदा स्थिर। देखउ = बेशक वह देख ले।5 अर्थ: जो मनुष्य (सदा स्थिर प्रभु के चरणों में जुड़ता है) निरंजन के श्रेष्ठ नाम को अपनी आत्मिक खुराक बनाता है, वह सदा स्थिर रहने वाला परम हंस बन जाता है। बेअंत (प्रभु) की ज्योति (उसके अंदर चमक पड़ती है)। बेशक किसी भी तरफ वह देख ले, उसे हर जगह वह एक परमात्मा ही दिखाई देता है।5। रहै निरालमु एका सचु करणी ॥ परम पदु पाइआ सेवा गुर चरणी ॥ मन ते मनु मानिआ चूकी अहं भ्रमणी ॥६॥ पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप। करणी = नित्य आचरण। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक दर्जा। मन ते = मन से, अंदर ही। अहं = अहंकार। भ्रमणी = भटकना।6। अर्थ: (‘सच घर’ में बैठने वाला) वह मनुष्य माया (के प्रभाव) से निर्लिप रहता है, सदा स्थिर प्रभु का नाम जपना ही उसकी नित्य की करनी हो जाती है। गुरु की बताई सेवा करके गुरु के चरणों में टिका रह के वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। अंदर अंदर से उसका मन स्मरण में रच-मिच जाता है, अहंकार वाली उसकी भटकना समाप्त हो जाती है।6। इन बिधि कउणु कउणु नही तारिआ ॥ हरि जसि संत भगत निसतारिआ ॥ प्रभ पाए हम अवरु न भारिआ ॥७॥ पद्अर्थ: जसि = यश ने। भारिआ = ढूँढा।7। अर्थ: (‘सच घर’ में बैठे रहने की) इस विधी ने किस किस को (संसार समुंदर से) पार नहीं लंघाया? परमात्मा की महिमा ने सारे संतों को भक्तों को पार लंघा दिया है। जिस जिस ने यश किया, उसे प्रभु जी मिल गए। (मैं भी प्रभु की महिमा ही करता हूँ और) उसके बिना किसी और को नहीं ढूँढता।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |