श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु गउड़ी असटपदीआ महला १ गउड़ी गुआरेरी
ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥

निधि सिधि निरमल नामु बीचारु ॥ पूरन पूरि रहिआ बिखु मारि ॥ त्रिकुटी छूटी बिमल मझारि ॥ गुर की मति जीइ आई कारि ॥१॥

पद्अर्थ: निधि = खजाना। सिधि = सिद्धि, करामाती ताकत। बिखु = माया, जहर। त्रिकुटी = (त्रि+कुटी = तीन टेढ़ी लकीरें) मन की खिझ।

नोट: माथे पर लकीरें तब पड़ती हैं, जब मन में खिझ हो। सो, त्रिकुटी का अर्थ है, ‘मन की खिझ’।

बिमल = साफ, पवित्र। मझारि = बीच में। जीइ = जीअ में, अंतर आत्मे। कारि = कारी, रास आना, लाभदायक।1।

अर्थ: गुरु की दी हुई मति मेरे चिक्त को रास आ गई है (लाभदायक साबित हुई है)। (उस मति की इनायत से) पवित्र हरि नाम में लीन रहने से मेरी अंदर की खिझ समाप्त हो गई है, मैंने माया के जहर को (अपने अंदर से) मार लिया है। अब मुझे परमात्मा हर जगह व्यापक दिखाई दे रहा है। परमात्मा का निर्मल नाम मेरे वास्ते (आत्मिक) खजाना है। परमातमा के गुणों की विचार ही मेरे वास्ते रिद्धियां (-सिद्धियां) हैं।1।

इन बिधि राम रमत मनु मानिआ ॥ गिआन अंजनु गुर सबदि पछानिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मानिआ = मान गया। अंजन = सुरमा।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के शब्द में जुड़ के मैंने वह (आत्मिक) सुरमा ढूँढ लिया है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल देता है। परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के मेरा मन (स्मरण में) इस प्रकार रम गया है (कि अब) स्मरण के बिना रह ही नहीं सकता।1। रहाउ।

इकु सुखु मानिआ सहजि मिलाइआ ॥ निरमल बाणी भरमु चुकाइआ ॥ लाल भए सूहा रंगु माइआ ॥ नदरि भई बिखु ठाकि रहाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। भरमु = भटकना। नदरि = मेहर की नजर।2।

अर्थ: (परमात्मा की महिमा वाली) पवित्र वाणी ने मेरी भटकना समाप्त कर दी है। मुझे सहज अवस्था में मिला दिया है। (अब मेरा मन) मान गया है कि यही (आत्मिक) सुख (सब सुखों से श्रेष्ठ सुख है)। (नाम जपने की इनायत से नाम में रंग के मेरा मन मजीठ जैसे पक्के रंग वाला) लाल हो गया है। माया कारंग मुझे कुसंभ के रंग जैसा कच्चा लाल दिखाई दे गया है। (मेरे ऊपर परमात्मा की मेहर की) नजर हुई है, मैंने माया के जहर को (अपने ऊपर असर करने से) रोक लिया है।2।

उलट भई जीवत मरि जागिआ ॥ सबदि रवे मनु हरि सिउ लागिआ ॥ रसु संग्रहि बिखु परहरि तिआगिआ ॥ भाइ बसे जम का भउ भागिआ ॥३॥

पद्अर्थ: मरि = (माया की ओर से) मर के। सबदि = (गुरु के शब्द) द्वारा। संग्रहि = एकत्र करके। भाइ = प्रेम में। परहरि = दूर करके।3।

अर्थ: (मेरी तवज्जो माया के मोह से) पलट गयी है। दुनिया का धंधा करते हुए (मेरा मन माया की तरफ से) मर गया है। मुझे आत्मिक जागृति आ गई है। गुरु के शब्द के द्वारा मैं स्मरण कर रहा हूँ। मेरा मन परमात्मा के साथ प्रीत पा चुका है। (आत्मिक) आनंद (अपने अंदर) इकट्ठा करके मैंने माया के जहर को (अपने अंदर से) दूर करके (सदा के लिए) त्याग दिया है। परमात्मा के प्रेम में टिकने के कारण मेरा मौत का डर दूर हो गया है।3।

साद रहे बादं अहंकारा ॥ चितु हरि सिउ राता हुकमि अपारा ॥ जाति रहे पति के आचारा ॥ द्रिसटि भई सुखु आतम धारा ॥४॥

पद्अर्थ: साद = चस्के। बादं = झगड़ा। पति = इज्जत, लोक-लज्जा। आचारा = कर्मकांड, धार्मिक रस्में। द्रिसटि = (मेहर की) निगाह।4।

अर्थ: (नाम जपने की इनायत से मेरे अंदर से मायावी पदार्थों के) चस्के दूर हो गए हैं। (मन में रोजाना हो रहा माया वाला) झगड़ा मिट गया है, अहंकार रह गया है। मेरा चिक्त अब परमात्मा (के नाम) से रंगा गया है, मैं अब उस बेअंत प्रभु की रजा में टिक गया हूँ। जाति-वर्ण और लोक-लज्जा की खातिर किए जाने वाले धर्म-कर्म बस हो गए हैं। (मेरे पर प्रभु की) मेहर की निगाह हुई है, मुझे आत्मिक सुख मिल गया है।4।

तुझ बिनु कोइ न देखउ मीतु ॥ किसु सेवउ किसु देवउ चीतु ॥ किसु पूछउ किसु लागउ पाइ ॥ किसु उपदेसि रहा लिव लाइ ॥५॥

पद्अर्थ: न देखउ = मैं नहीं देखता। सेवउ = मैं सेवा करूँ। पाइ = पैरों पर। उपदेसि = उपदेश में।5।

अर्थ: (गुरु के शब्द की इनायत से, हे प्रभु!) मुझे तेरे बिना कोई और (पक्का) मित्र नहीं दिखता। मैं अब किसी और को नहीं स्मरण करता, मैं किसी और को अपना मन नहीं भेट करता। मैं किसी और से सालाह नहीं लेता। मैं किसी और के पैर नहीं लगता फिरता। मैं किसी और के उपदेश में तवज्जो नहीं जोड़ता फिरता।5।

गुर सेवी गुर लागउ पाइ ॥ भगति करी राचउ हरि नाइ ॥ सिखिआ दीखिआ भोजन भाउ ॥ हुकमि संजोगी निज घरि जाउ ॥६॥

पद्अर्थ: सेवी = मैं सेवा करता हूँ। करी = मैं करता हूँ। नाइ = नाम में। दीखिआ = दीक्षा, किसी धर्म में शामिल होने के समय जो खास उपदेश मिलता है। भाउ = प्रेम। संजोगी = संयोगों से, किए कर्मों के अंकुर फूटने से। जाउ = मैं जाता हूँ।6।

अर्थ: (गुरु के शब्द ने ही मुझे तेरे ज्ञान का अंजन दिया है, इस वास्ते) मैं गुरु की ही सेवा करता हूँ, गुरु के ही चरणों में लगता हूँ। (गुरु की ही सहायता से हे भाई!) मैं परमात्मा की भक्ति करता हूँ, हरि के नाम में टिकता हूँ। गुरु की शिक्षा, गुरु की दीक्षा, गुरु के प्रेम को ही मैंने अपनी आत्मा का भोजन बनाया है। प्रभु की रजा में ही ये पिछले कर्मों का अंकुर फूटा है, और मैं अपने असल घर (प्रभु-चरणों) में टिका बैठा हूँ।6।

गरब गतं सुख आतम धिआना ॥ जोति भई जोती माहि समाना ॥ लिखतु मिटै नही सबदु नीसाना ॥ करता करणा करता जाना ॥७॥

पद्अर्थ: गरब गतं = अहंकार दूर हो गया। जोति = रोशनी, प्रकाश। लिखतु = हृदय में उकरा हुआ लेख। नीसाना = प्रकट। करणा = सृष्टि। जाना = मैंने जान लिया है।7।

अर्थ: (नाम जपने की इनायत से) अहंकार दूर हो गया है, आत्मिक आनंद में मेरी तवज्जो टिक गई है। मेरे अंदर आत्मिक प्रकाश हो गया है, मेरी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो गई है। (मेरे हृदय में) उकरा हुआ गुरु-शब्द (रूपी) लेख अब ऐसा प्रकट हुआ है कि मिट नहीं सकता। मैंने करते व (करते की) रचना को कर्तार रूप ही जान लिया है, (मैंने कर्तार को ही सृष्टि का रचनहारा जान लिया है)।7।

नह पंडितु नह चतुरु सिआना ॥ नह भूलो नह भरमि भुलाना ॥ कथउ न कथनी हुकमु पछाना ॥ नानक गुरमति सहजि समाना ॥८॥१॥

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। कथउ न = मैं कहता नहीं हूँ। समाना = मैं लीन हो गया हूँ।8।

अर्थ: मैं कोई पण्डित नहीं हूँ, चतुर नहीं हूँ, मैं समझदार नहीं हूँ (भाव, किसी विद्वता,चतुराई, समझदारी का आसरा नहीं लिया) तभी तो मैं (रास्ते से) भटका नहीं, गलत राह पर नहीं पड़ा। मैं कोई चतुराई की बातें नहीं करता।

हे नानक! (कह:) मैंने तो सतिगुरु की मति ले कर परमात्मा के हुक्म को पहिचाना है (भाव, मैंने ये समझ लिया है कि प्रभु के हुक्म में चलना ही सही रास्ता है) और मैं अडोल अवस्था में टिक गया हूँ।8।1।

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ मनु कुंचरु काइआ उदिआनै ॥ गुरु अंकसु सचु सबदु नीसानै ॥ राज दुआरै सोभ सु मानै ॥१॥

पद्अर्थ: कुंचरु = हाथी। काइआ = शरीर। उदिआनै = जंगल में। अंकसु = (हाथी को वश में करने के लिए) कुंडा। नीसानै = झण्डा (झूलता है)। दुआरै = द्वार पर। सु = वह। मानै = मान पाता है।1।

अर्थ: (इस) शरीर जंगल में मन हाथी (के समान) है। (जिस मन हाथी के सिर पर) गुरु का अंकुश हो और सदा स्थिर (प्रभु की महिमा का) शब्द निशान (झूल रहा) हो, (वह मन-हाथी) प्रभु-पातशाह के दर पर शोभा पाता है वह आदर पाता है।1।

चतुराई नह चीनिआ जाइ ॥ बिनु मारे किउ कीमति पाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चीनिआ जाइ = पहचाना जाता है। कीमति = मूल्य, कद्र।1। रहाउ।

अर्थ: मन को विकारों की ओर से मारे बिना मन की कद्र नहीं पड़ सकती (भाव, वही मन आदर-सत्कार का हकदार होता है, जो वश में आ जाता है)। चतुराई दिखाने से ये पहिचान नहीं होती कि (चतुराई दिखाने वाला) मन कीमत पाने का हकदार हो गया है।1। रहाउ।

घर महि अम्रितु तसकरु लेई ॥ नंनाकारु न कोइ करेई ॥ राखै आपि वडिआई देई ॥२॥

पद्अर्थ: तसकरु = चोर। नंनाकारु = ना नुकर, इनकार। देई = देता है।2।

अर्थ: (मनुष्य के हृदय-) घर में नाम-अंमृत मौजूद है, (पर मोह में फंसा हुआ मन-) चोर (उस अमृत को) चुराए जाता है, (ये मन इतना आकी हुआ पड़ा है कि कोई भी जीव इसके आगे इनकार नहीं कर सकता)। परमात्मा खुद जिस (के अंदर बसते अमृत) की रक्षा करता है, उसे इज्जत (मान-सम्मान) बख्शता है।2।

नील अनील अगनि इक ठाई ॥ जलि निवरी गुरि बूझ बुझाई ॥ मनु दे लीआ रहसि गुण गाई ॥३॥

पद्अर्थ: नील अनील = गिनती से परे। अगनि = तृष्णा की आग। इक ठाई = एक जगह पर। जलि = जल से। गुरि = गुरु ने। बूझ = समझ। दे = दे कर। रहसि = चाव से।3।

अर्थ: (इस मन में) तृष्णा की बेअंत आग एक ही जगह पर पड़ी है, जिसे गुरु ने (तृष्णा की आग से बचने की) समझ बख्शी है, उसकी ये आग प्रभु के नाम-जल से बुझ जाती है, (पर जिसने भी नाम-जल लिया है) अपना मन (बदले में) दे कर लिया है, वह (फिर) चाव से परमात्मा की महिमा के गुण गाता है।3।

जैसा घरि बाहरि सो तैसा ॥ बैसि गुफा महि आखउ कैसा ॥ सागरि डूगरि निरभउ ऐसा ॥४॥

पद्अर्थ: बैसि = बैठ के। आखउ = मैं कहूँ। कैसा = किस तरह का? सागरि = सागर में। डूगरि = पहाड़ (की गुफा) में। ऐसा = एसा, एक समान।4।

अर्थ: (अगर, मन-हाथी के सिर पर गुरु का अंकुश नहीं है तो) जैसा (अमोड़, भटकने वाला) ये गृहस्थ में (रहते हुए) है, वैसा ही (अमोड़) ये बाहर (जंगलों में रहते हुए) होता है। पहाड़ की गुफा में भी बैठ के मैं क्या कहूँ कि कैसा बन गया है? (गुफा में रहने पर भी ये मन अमोड़ ही रहता है)। समुंदर में प्रवेश से (तीर्थों पर डुबकी लगाए, चाहे) पहाड़ (की गुफा) में बैठे, ये एक सा ही निडर रहता है।4।

मूए कउ कहु मारे कउनु ॥ निडरे कउ कैसा डरु कवनु ॥ सबदि पछानै तीने भउन ॥५॥

पद्अर्थ: मूए कउ = विकारों की ओर से मरे को। सबदि = शब्द में (जुड़ के)।5।

अर्थ: पर अगर ये (मन-हाथी गुरु अंकुश के अधीन रह के विकारों की ओर से) मर जाए तो कोई विकार इस पर चोट नहीं कर सकता। यदि ये (गुरु-अंकुश के डर में रह कर) निडर (दलेर) हो जाए, तो दुनिया वाला कोई डर इसे छू नहीं सकता (क्योंकि) गुरु के शब्द में जुड़ के ये पहिचान लेता है (कि इसका रक्षक परमात्मा) तीनों ही भवनों में हर जगह बसता है।5।

जिनि कहिआ तिनि कहनु वखानिआ ॥ जिनि बूझिआ तिनि सहजि पछानिआ ॥ देखि बीचारि मेरा मनु मानिआ ॥६॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव) ने। कहनु वखानिआ = निरा जुबानी जुबानी कह दिया। सहजि = सहज अवस्था में। मेरा मनु = ‘मेरा मेरा’ कहने वाला मन।6।

अर्थ: जिस मनुष्य ने (निरी मन की चतुराई से यह) कह दिया (कि परमात्मा तीनों भवनों में हर जगह मौजूद है) उसने जुबानी जुबानी ही कह दिया (उसका मन हाथी अभी भी टिकाव में नहीं है भटक रहा है, अमोड़ है)। जिस ने (गुरु अंकुश के अधीन रह के ये भेद) समझ लिया, उसने अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के (उस तीनों भवनों में बसते को) पहिचान भी लिया। (हर जगह प्रभु का) दर्शन करके प्रभु के गुणों को विचार के उस का ‘मेरा मेरा’ कहने वाला मन (प्रभु की महिमा में) डूब जाता है।6।

कीरति सूरति मुकति इक नाई ॥ तही निरंजनु रहिआ समाई ॥ निज घरि बिआपि रहिआ निज ठाई ॥७॥

पद्अर्थ: कीरति = शोभा। सूरति = सुंदरता। मुकति = विकारों से खलासी। नाई = बड़ाई, उपमा। निरंजनु = माया रहित प्रभु। निज ठाई = बिलकुल अपनी जगह में।7।

अर्थ: जिस हृदय में एक परमात्मा की महिमा है, वहां शोभा है, वहाँ सुंदरता है, वहाँ विकारों से निजात है, वहीं माया के प्रभाव से रहित परमात्मा हर वक्त मौजूद है। (वह हृदय परमात्मा का अपना घर बन गया, अपना निवास स्थान बन गया), उस अपने घर में, उस अपने निवास स्थान में परमात्मा हर वक्त मौजूद है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh