श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 222 उसतति करहि केते मुनि प्रीति ॥ तनि मनि सूचै साचु सु चीति ॥ नानक हरि भजु नीता नीति ॥८॥२॥ पद्अर्थ: तनि मनि सूचै = स्वच्छ तन से स्वच्छ मन से। चीति = चिक्त में।8। अर्थ: अनेक ही मुनि जन (मन-हाथी को गुरु अंकुश के अधीन करके) पवित्र शरीर से पवित्र मन से प्यार में जुड़ के परमात्मा की महिमा करते हैं, वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु उनके हृदय में बसता है। हे नानक! तू भी (इसी तरह) सदा सदा उस परमात्मा का भजन कर।8।2। गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ ना मनु मरै न कारजु होइ ॥ मनु वसि दूता दुरमति दोइ ॥ मनु मानै गुर ते इकु होइ ॥१॥ पद्अर्थ: कारजु = (परमात्मा के साथ एक-रूप होने का) जनम उद्देश्य। वसि = वश में। दूता = कामादिक दूतों ने। दोइ = द्वैत, मेर-तेर। गुर ते = गुरु से। इकु = परमात्मा के साथ एक रूप।1। अर्थ: जब तक मनुष्य का मन कामादिक विकारों के वश में है, घटिया मति के अधीन है, मेरे-तेर के काबू में है, तब तक मन (में से तृष्णा) मरती नहीं और तब तक (परमात्मा के साथ एक-रूप होने का) जनम उद्देश्य भी सम्पूर्ण नहीं होता। जब गुरु से (शिक्षा ले के मनुष्य का) मन (महिमा में) रम जाता है, तब ये परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाता है।1। निरगुण रामु गुणह वसि होइ ॥ आपु निवारि बीचारे सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से ऊपर। गुणह वसि = ऊूंचे आत्मिक गुणों के वश में। आपु = स्वै भाव। सोइ = वही मनुष्य।1। रहाउ। अर्थ: परमात्मा माया के तीन गुणों से परे है, और, ऊँचे आत्मिक गुणों के वश में है (भाव, मनुष्य ऊँचे आत्मिक गुणों को अपने अंदर बसाता है, परमात्मा उससे प्यार करता है)। जो मनुष्य स्वैभाव दूर कर लेता है वह शुभ गुणों को अपने मन में बसाता है।1। रहाउ। मनु भूलो बहु चितै विकारु ॥ मनु भूलो सिरि आवै भारु ॥ मनु मानै हरि एकंकारु ॥२॥ पद्अर्थ: चितै = चितवै। सिरि = सिर पर। भारु = विकारों का भार।2। अर्थ: (माया के वशीभूत हो के जब तक) मन गलत राह पर रहता है, तब तक ये विकार ही विकार चितवता रहता है। (और मनुष्य के) सिर पर विकारों का बोझ इकट्ठा होता जाता है। पर जब (गुरु से शिक्षा ले के) मन (प्रभु की महिमा में) परचता है (पसीजता है) तब ये परमात्मा के साथ एक-सुर हो जाता है।2। मनु भूलो माइआ घरि जाइ ॥ कामि बिरूधउ रहै न ठाइ ॥ हरि भजु प्राणी रसन रसाइ ॥३॥ पद्अर्थ: घरि = घर में, घेरे में। कामि = काम-वासना में। बिरूधउ = उलझा हुआ, फंसा हुआ। ठाइ = स्थान पर, टिका हुआ, अडोल। प्राणी = हे प्राणी! रसन = जीभ को। रसाइ = रसा के।3। अर्थ: (माया के प्रभाव में आ के) गलत राह पर पड़ा मन माया के घर (बारंबार) जाता है, काम-वासना में फंसा हुआ मन ठिकाने पे नहीं रहता। (इस माया के प्रभाव से बचने के लिए) हे प्राणी! अपनी जीभ को (अमृत रस में) रसा के परमात्मा का भजन कर।3। गैवर हैवर कंचन सुत नारी ॥ बहु चिंता पिड़ चालै हारी ॥ जूऐ खेलणु काची सारी ॥४॥ पद्अर्थ: गैवर = गज वर, बढ़िया हाथी। हैवर = हय वर, बढ़िया घोड़े। कंचन = सोना। सुत = पुत्र। पिढ़ = कुश्ती का अखाड़ा। हारी = हार के। जूऐ खेलणु = जूए की खेल। सारी = नरद।4। अर्थ: बढ़िया हाथी, बढ़िया घोड़े, सोना, पुत्र, स्त्री- (इनका मोह) जूए की खेल है। (जैसे चौपड़ की) कच्ची नर्दें (बारंबार मार खाती हैं। वैसे ही इस जूए की खेल खेलने वाले का मन कमजोर रह के विकारों की चोटें खाता रहता है)। (पुत्र, स्त्री आदि के मोह के कारण) मन बहुत चिंतातुर रहता है, और, आखिर इस जगत अखाड़े से मनुष्य बाजी हार के जाता है।4। स्मपउ संची भए विकार ॥ हरख सोक उभे दरवारि ॥ सुखु सहजे जपि रिदै मुरारि ॥५॥ पद्अर्थ: संपउ = धन। संची = एकत्र की, जोड़ी। सोक = चिन्ता। उभे = खड़े हुए। दरवारि = दरवाजे पर। सहजे = सहज में, अडोल अवस्था में। जपि = जप के। मुरारि = परमात्मा।5। अर्थ: जैसे जैसे मनुष्य धन जोड़ता है मन में विकार पैदा होते जाते हैं, (कभी खुशी कभी गम) ये खुशी व सहम सदा मनुष्य के दरवाजे पर खड़े रहते हैं। पर हृदय में परमात्मा का स्मरण करने से मन अडोल अवस्था में टिक जाता है और आत्मिक आनंद पाता है।5। नदरि करे ता मेलि मिलाए ॥ गुण संग्रहि अउगण सबदि जलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥६॥ पद्अर्थ: संग्रहि = एकत्र करके। सबदि = गुरु शब्द के द्वारा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।6। अर्थ: (पर जीव के भी क्या वश?) जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है, तब गुरु इसे अपने शब्द में जोड़ के प्रभु चरणों में मिला देता है। (गुरु के सन्मुख हो के) जीव आत्मिक गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करके गुरु शब्द के द्वारा (अपने अंदर से) अवगुणों को जला देता है। गुरु के सन्मुख हो के मनुष्य नाम-धन ढूँढ लेता है।6। बिनु नावै सभ दूख निवासु ॥ मनमुख मूड़ माइआ चित वासु ॥ गुरमुखि गिआनु धुरि करमि लिखिआसु ॥७॥ पद्अर्थ: दूख निवास = दुखों का निवास (मन में)। मनमुख = मन का मुरीद। चित वासु = चिक्त का वास, चिक्त का ठिकाना। करमि = मेहर से।7। अर्थ: प्रभु के नाम में जुड़े बिना मनुष्य के मन में सारे दुख-कष्टों का डेरा आ लगता है, मूर्ख मनुष्य के चिक्त का बसेरा माया (के मोह) में रहता है। धुर से ही परमात्मा की मेहर से (जिस माथे पर किए कर्मों के संस्कारों के) लेख उघाड़ता है, वह मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है।7। मनु चंचलु धावतु फुनि धावै ॥ साचे सूचे मैलु न भावै ॥ नानक गुरमुखि हरि गुण गावै ॥८॥३॥ पद्अर्थ: फुनि = बारंबार। धावै = (माया के पीछे) दौड़ता है।8। अर्थ: (आत्मिक गुणों से वंचित) मन चंचल रहता है (माया के पीछे) दौड़ता है बार बार भागता है। सदा स्थिर रहने वाले और (विकारों की झूठ, अपवित्रता से) स्वच्छ परमात्मा को (मनुष्य के मन की ये) मैल अच्छी नहीं लगती (इस वास्ते ये परमात्मा से विछुड़ा रहता है)। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के गुण गाता है (और उसका जनम उद्देश्य सफल हो जाता है)।8।3। गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ हउमै करतिआ नह सुखु होइ ॥ मनमति झूठी सचा सोइ ॥ सगल बिगूते भावै दोइ ॥ सो कमावै धुरि लिखिआ होइ ॥१॥ पद्अर्थ: हउमै = हउ हउ, मैं मैं। हउमै करतिआ = हर वक्त अपने ही बड़प्पन और सुख की बातें करते हुए। मन मति = मन की समझदारी। झूठी = नाशवान पदार्थों में। सोइ = वह प्रभु। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। बिगूते = दुखी हुए। दोइ = द्वैत, तेर-मेर।1। अर्थ: (अपने मन की अगवाई में रह के) हर समय अपने ही बड़प्पन व सुख की बातें करने से सुख नहीं मिल सकता। मन की समझदारी नाशवान पदार्थों में (जोड़ती है), वह परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है (और सुख का श्रोत है। ‘मन मति’ और ‘परमात्मा’ का स्वाभाव अलग अलग है, दोनों का मेल नहीं। सुख कहाँ से आए?) जिस को (नाम विसार के) मेर-तेर अच्छी लगती है, वह सारे खुआर ही होते हैं। (पर जीवों के भी क्या वश?) (किए कर्मों के अनुसार जीव के माथे पर) जो धुर से लेख लिखे होते हैं, उसी के अनुसार यहाँ कमाई करता है (नाम-स्मरण छोड़ के नाशवान पदार्थों में सुख की तलाश के व्यर्थ प्रयत्न करता है)।1। ऐसा जगु देखिआ जूआरी ॥ सभि सुख मागै नामु बिसारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। बिसारी = बिसार के, भुला के।1। रहाउ। अर्थ: मैंने देखा है कि जगत जूए की खेल खेलता है, ऐसी (खेल खेलता है कि) सुख तो सारे ही मांगता है, पर (जिस नाम से सुख मिलते हैं उस) नाम को विसार रहा है।1। रहाउ। अदिसटु दिसै ता कहिआ जाइ ॥ बिनु देखे कहणा बिरथा जाइ ॥ गुरमुखि दीसै सहजि सुभाइ ॥ सेवा सुरति एक लिव लाइ ॥२॥ पद्अर्थ: अदिसटु = इन आँखों से ना दिखने वाला। ता = तब। कहिआ जाइ = स्मरण किया जा सकता है, उसका जिक्र किया जा सकता है, जिक्र करने को जी करता है। बिरथा = व्यर्थ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। दीसै = दिखाई दे जाता है। सहजि = सहज अवस्था में, अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम में।2। अर्थ: परमात्मा (इन आँखों से) दिखाई नहीं देता। अगर आँखों से दिखाई दे, तो ही (उससे मिलने की कसक पैदा हो, और) उसका नाम लेने को चिक्त करे। आँखों को दिखे बिना (उसके दीदार की खींच नहीं बनती और चाह से) उसका नाम नहीं लिया जा सकता (खींच बनी रहती है दिखाई देते पदार्थों से)। गुरु के सन्मुख रहने से मनुष्य का मन (दिखते पदार्थों से हट के) अडोलता में टिकता है, प्रभु के प्रेम में लीन होता है और इस तरह अंतरात्मे वह प्रभु दिख पड़ता है। गुरु के सन्मुख मनुष्य की सूरति गुरु की बताई सेवा में जुड़ती है, उसकी लगन एक परमात्मा में लगती है।2। सुखु मांगत दुखु आगल होइ ॥ सगल विकारी हारु परोइ ॥ एक बिना झूठे मुकति न होइ ॥ करि करि करता देखै सोइ ॥३॥ पद्अर्थ: आगल = ज्यादा। विकारी हारु = विकारों का हार। झूठे = नाशवान पदार्थों के मोह में फंसे हुए को। मुकति = दुखों और विकारों से खलासी।3। अर्थ: (प्रभु का नाम विसार के) सुख मांगने से (बल्कि) बहुत दुख बढ़ता है (क्योंकि) मनुष्य सारे विकारों का हार परो के (अपने गले में डाल लेता है)। नाशवान पदार्थों के मोह में फंसे हुए को परमात्मा के नाम के बिना (दुखों व विकारों से) खलासी हासिल नहीं होती। (प्रभु की ऐसी ही रजा है) वह कर्तार स्वयं ही सब कुछ करके खुद ही इस खेल को देख रहा है।3। त्रिसना अगनि सबदि बुझाए ॥ दूजा भरमु सहजि सुभाए ॥ गुरमती नामु रिदै वसाए ॥ साची बाणी हरि गुण गाए ॥४॥ पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। दूजा भरमु = प्रभु के बिना और-और तरफ की भटकना। रिदै = हृदय में। साची बाणी = महिमा की वाणी के द्वारा।4। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से) तृष्णा की आग बुझाता है, अडोल अवस्था में टिक के प्रभु के प्रेम में जुड़ के उसकी मायावी पदार्थों की ओर की भटकना खत्म हो जाती है। गुरु की शिक्षा पर चल कर वह परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता है। प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा वह परमात्मा के गुण गाता है (और उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है)।4। तन महि साचो गुरमुखि भाउ ॥ नाम बिना नाही निज ठाउ ॥ प्रेम पराइण प्रीतम राउ ॥ नदरि करे ता बूझै नाउ ॥५॥ पद्अर्थ: साचो = सदा स्थिर प्रभु। भाउ = प्रेम। निज ठाउ = अपना असल ठिकाना, शांति, अडोलता। पराइण = आसरे। प्रेम पराइण = प्रेम के वश। प्रीतम राउ = परमात्मा।5। अर्थ: (वैसे तो) हरेक शरीर में सदा स्थिर प्रभु बसता है, पर गुरु की शरण पड़ने से ही उसके साथ प्रेम जागता है (और मनुष्य नाम स्मरण करता है) नाम के बिना मन एक टिकाने पर आ नहीं सकता। प्रीतम प्रभु भी प्रेम के अधीन है (जो उसके साथ प्रेम करता है) प्रभु उस के ऊपर मेहर की नजर करता है और वह उसके नाम की कद्र समझता है।5। माइआ मोहु सरब जंजाला ॥ मनमुख कुचील कुछित बिकराला ॥ सतिगुरु सेवे चूकै जंजाला ॥ अम्रित नामु सदा सुखु नाला ॥६॥ पद्अर्थ: कुचील = गंदा। कुछित = कुत्सित, बदनाम, निंदित। बिकराला = डरावना। नाला = अपने साथ (ले जाता है)।6। अर्थ: माया के मोह सारे (मायावी) बंधन पैदा करते हैं। (इस करके) मन के मुरीद मनुष्य का जीवन गंदा, बुरा व डरावना बन जाता है। जो मनुष्य गुरु का बताया हुआ राह पकड़ता है, उसके माया वाले बंधन टूट जाते हैं। वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम जपता है, और सदा ही आत्मिक आनंद अपने अंदर पाता है।6। गुरमुखि बूझै एक लिव लाए ॥ निज घरि वासै साचि समाए ॥ जमणु मरणा ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते इह मति पाए ॥७॥ पद्अर्थ: निज घरि = अपने असल घर में, अडोलता में। ठाकि रहाए = रोक लेता है। गुर ते = गुरु से।7। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (नाम की कद्र) समझता है, एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है, अपने स्वै-स्वरूप में टिका रहता है, सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में लीन रहता है। वह अपना जनम मरन का चक्र रोक लेता है। पर ये बुद्धि वह पूरे गुरु से ही प्राप्त करता है।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |