श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ९ ॥ कोऊ माई भूलिओ मनु समझावै ॥ बेद पुरान साध मग सुनि करि निमख न हरि गुन गावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! भूलिओ मनु = रास्ते से भटके हुए मन को। साध मग = संत जनों के रास्ते, संत जनों के बताए हुए जीवन-राह। सुनि कर = सुन के। निमख = आँख झपकने जितना समय।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! (माया के मोह से नाको नाक भरे हुए संसार जंगल में मेरा मन कुमार्ग पर पड़ गया है, मुझे) कोई (ऐसा गुरमुख मिल जाए जो मेरे इस) गलत रास्ते पर पड़े हुए मन को मति दे (समझा दे)। (ये भूला हुआ मन) वेद-पुराण (आदि धर्म-पुस्तकों और) संत जनों के उपदेश सुन के (भी) रत्ती भर समय के लिए भी परमात्मा के गुण नहीं गाता।1। रहाउ।

दुरलभ देह पाइ मानस की बिरथा जनमु सिरावै ॥ माइआ मोह महा संकट बन ता सिउ रुच उपजावै ॥१॥

पद्अर्थ: देह = शरीर। पाइ = प्राप्त करके, पा के। बिरथा = व्यर्थ। सिरावै = गुजारता है। संकट = (a full of, crowded with) संकट भरपूर, नाको नाक भरे हुए। बन = जंगल। ता सिउ = उससे। रुच = प्यार। उपजावै = पैदास करता है।1।

अर्थ: (हे मेरी माँ! ये मन ऐसा कुमार्ग पर पड़ा हुआ है कि) बड़ी मुश्किल से मिल सकने वाले मानव शरीर प्राप्त करके भी इस जन्म को व्यर्थ गुजार रहा है। (हे माँ! ये संसार) जंगल माया के मोह से नाको नाक भरा पड़ा है (और मेरा मन) इस (जंगल से ही) प्रेम बना रहा है।1।

अंतरि बाहरि सदा संगि प्रभु ता सिउ नेहु न लावै ॥ नानक मुकति ताहि तुम मानहु जिह घटि रामु समावै ॥२॥६॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! ताहि = उस को ही। मुकति = विकारों से खलासी। मानहु = समझो। जिह घटि = जिस हृदय में।2।

अर्थ: (हे मेरी माँ! जो) परमात्मा (हरेक जीव के) अंदर व बाहर हर समय बसता है उससे (ये मेरा मन) प्यार नहीं डालता।

हे नानक! (कह: माया के मोह से भरपूर संसार जंगल में से) खलासी तुम उसी मनुष्य को (मिली) समझो जिसके हृदय में परमात्मा बस रहा है।2।6।

गउड़ी महला ९ ॥ साधो राम सरनि बिसरामा ॥ बेद पुरान पड़े को इह गुन सिमरे हरि को नामा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! बिसरामा = शांति, सुख। को = का। गुन = लाभ।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की शरण पड़ने से ही (विकारों की भटकना से) शांति प्राप्त होती है। वेद पुराण (आदि धार्मिक पुस्तकों) पढ़ने का यही लाभ (होना चाहिए) कि मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता रहे।1। रहाउ।

लोभ मोह माइआ ममता फुनि अउ बिखिअन की सेवा ॥ हरख सोग परसै जिह नाहनि सो मूरति है देवा ॥१॥

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। फुनि = भी, और। अउ = और। बिखिअन की सेवा = विषियों का सेवन। हरखु = खुशी। सोगु = गमी। जिह = जिसे। नाहिन = नहीं। देव = भगवान।1।

अर्थ: (हे संत जनो!) लोभ, माया का मोह, अपनत्व और विषियों का सेवन, खुशी, गमी- (इनमें से कोई भी) जिस मनुष्य को छू नहीं सकता (जिस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकता) वह मनुष्य परमात्मा का रूप है।1।

सुरग नरक अम्रित बिखु ए सभ तिउ कंचन अरु पैसा ॥ उसतति निंदा ए सम जा कै लोभु मोहु फुनि तैसा ॥२॥

पद्अर्थ: बिखु = जहर। सम = एक जैसा। तिउ = उसी तरह। अरु = और। पैसा = तांबा। कंचन = सोना। जा कै = जिसके हृदय में।2।

अर्थ: (हे संत जनो! वह मनुष्य परमात्मा का रूप है जिसे) स्वर्ग एवं नर्क, अमृत और जहर एक जैसे प्रतीत होते हैं। जिसे सोना व तांबा एक समान लगता है। जिसके हृदय में स्तुति और निंदा भी एक जैसे हैं (कोई उसकी उपमा करे, या कोई उसकी निंदा करे- उसके लिए एक समान हैं)। जिसके हृदय में लोभ भी प्रभाव नहीं डाल सकता, मोह भी असर नहीं कर सकता।2।

दुखु सुखु ए बाधे जिह नाहनि तिह तुम जानउ गिआनी ॥ नानक मुकति ताहि तुम मानउ इह बिधि को जो प्रानी ॥३॥७॥

पद्अर्थ: ए = ये (दुख और सुख)। बाधे = बांधते। तिह = उसे। गिआनी = परमात्मा के साथ जान पहिचान डाल के रखने वाला। जो = जो।3।

अर्थ: (हे संत जनो!) तुम उस मनुष्य को परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल के रखने वाला समझो, जिसे ना कोई दुख ना ही कोई सुख (अपने प्रभाव में) बाँध सकता है। हे नानक! (कह: हे संत जनो! लोभ, मोह, दुख सुख आदि से) खलासी उस मनुष्य को (मिली) मानो, जो मनुष्य इस किस्म की जीवन-युक्ति वाला है।3।7।

गउड़ी महला ९ ॥ मन रे कहा भइओ तै बउरा ॥ अहिनिसि अउध घटै नही जानै भइओ लोभ संगि हउरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहा = कहां? बउरा = पागल, कमला, झल्ला। अहि = अहर्, दिन। निस = निश्, रात। अउध = उम्र। जानै = जानता। लोभ संगि = लोभ से, लोभ में फंस के। हउरा = हलका, हलके जीवन वाला, कमजोर आत्मिक जीवन वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! तू कहां (लोभ आदि में फंस के) पागल हो रहा है? (हे भाई!) दिन रात उम्र घटती रहती है, पर मनुष्य ये बात समझता नहीं और लोभ में फंस के कमजोर आत्मिक जीवन वाला बनता जाता है।1। रहाउ।

जो तनु तै अपनो करि मानिओ अरु सुंदर ग्रिह नारी ॥ इन मैं कछु तेरो रे नाहनि देखो सोच बिचारी ॥१॥

पद्अर्थ: तै = तू। अपनो करि = अपना कर के। ग्रिह नारी = घर की स्त्री। इन महि = इन में। रे = हे (मन)! सोचि = सोच के। बिचारी = विचार के।1।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जो (ये) शरीर, जिसे तू अपना करके समझ रहा है, और घर की सुंदर स्त्री को तू अपनी मान रहा है, इनमें से कोई भी तेरा (सदा निभने वाला साथी) नहीं है, सोच के देख ले, विचार के देख ले।1।

रतन जनमु अपनो तै हारिओ गोबिंद गति नही जानी ॥ निमख न लीन भइओ चरनन सिंउ बिरथा अउध सिरानी ॥२॥

पद्अर्थ: हारिओ = (जूए में) हार लिया है। गति = हालत, अवस्था। सिउ = से। सिरानी = गुजार दी।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जैसे जुआरी जूए में बाजी हारता है, (वैसे ही) तू अपना कीमती मानव जनम हार रहा है। क्योंकि तूने परमात्मा के साथ मिलाप की अवस्था की कद्र नहीं पाई। तू रक्ती भर समय के लिए भी गोबिंद प्रभु के चरणों में नहीं जुड़ता, तू व्यर्थ उम्र गुजार रहा है।2।

कहु नानक सोई नरु सुखीआ राम नाम गुन गावै ॥ अउर सगल जगु माइआ मोहिआ निरभै पदु नही पावै ॥३॥८॥

पद्अर्थ: अउर = और। सगल = सारा। निरभै पदु = वह आत्मिक अवस्था जहां कोई डर नहीं छू सकता।3।

अर्थ: हे नानक! कह: वही मनुष्य सुखी जीवन वाला है जो परमात्मा का नाम (जपता है, जो) परमात्मा के गुण गाता है। बाकी का सारा जहान (जो) माया के मोह में फंसा रहता है (वह सहमा रहता है, वह) उस आत्मिक अवस्था पर नहीं पहुँचता, जहां कोई डर छू नहीं सकता।3।8।

गउड़ी महला ९ ॥ नर अचेत पाप ते डरु रे ॥ दीन दइआल सगल भै भंजन सरनि ताहि तुम परु रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नर = हे नर! अचेत = गाफिल, बेपरवाह। नर अचेत = हे गाफिल मनुष्य।

नोट: शब्द ‘अचेत’ किसी मनुष्य के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, किसी ‘पाप’ को ‘अचेत’ नहीं कहा जा सकता। सारे श्री गुरु ग्रंथ साहिब में इस्तेमाल हुआ शब्द ‘अचेत’ देखें निम्न-लिखित पृष्ठों पर: 30, 75, 85, 224, 364, 374, 439, 491, 499, 609, 633, 740, 842, 909, 955)। (भै: शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)।

ते = से। रे = हे! हे अचेत नर! हे गाफिल मनुष्य! सगल = सारे। भै भंजन = डरों के नाश करने वाला। परु = पड़। ताहि = उसकी।1। रहाउ।

अर्थ: हे गाफिल मनुष्य! पापों से बचा रह। (और इन पापों से बचने के वास्ते उस) परमात्मा की शरण पड़ा रह, जो गरीबों पर दया करने वाला है, और सारे डर दूर करने वाला है।1। रहाउ।

बेद पुरान जास गुन गावत ता को नामु हीऐ मो धरु रे ॥ पावन नामु जगति मै हरि को सिमरि सिमरि कसमल सभ हरु रे ॥१॥

पद्अर्थ: जास = जिस के। ता को = उस का। हीऐ मो = हृदय में। पावन = पवित्र करने वाला। कसमल = पाप। सभि = सारे। हरु = दूर कर।1।

अर्थ: (हे गाफिल मनुष्य!) उस परमात्मा का नाम अपने हृदय में परोए रख, जिसके गुण वेद पुराण (आदि धर्म पुस्तकें) गा रहे हैं। (हे गाफिल मनुष्य! पापों से बचा के) पवित्र करने वाला जगत में परमात्मा का नाम (ही) है, तू उस परमात्मा को स्मरण कर-कर के (अपने अंदर से) सारे पाप दूर कर ले।1।

मानस देह बहुरि नह पावै कछू उपाउ मुकति का करु रे ॥ नानक कहत गाइ करुना मै भव सागर कै पारि उतरु रे ॥२॥९॥२५१॥

पद्अर्थ: बहुरि = दुबारा, फिर कभी। नहि पावहि = तू प्राप्त नहीं करेगा। उपाउ = इलाज। मुकति = (कसमलों से) निजात। नानकु कहत = नानक कहता है। करुनामै = करुणामय, (करुणा = तरस। मय = भरपूर) तरस भरपूर, तरस रूप। भव सागर = संसार समुंदर। कै पारि = से पार। उतरु = लांघ। रे = हे (अचेत नर)!।2।

अर्थ: (हे गाफिल मनुष्य!) तू ये मानव शरीर फिर कभी नहीं पा सकेगा (इसे क्यूँ पापों में लगा के गवा रहा है? यही समय है, इन पापों से) मुक्ति प्राप्त करने का। कोई इलाज कर ले। तुझे नानक कहता है: तरस-रूप परमात्मा के गुण गा के संसार समुंदर पार हो जा।2।9।251।

नोट:
कुल जोड़ 251 का वेरवा यूँ है;
महला १----------------20
महला ३----------------18
महला ४----------------32
महला ५----------------172
महला ९----------------09 (कुल 251)

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh