श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 215 मानु अभिमानु दोऊ समाने मसतकु डारि गुर पागिओ ॥ स्मपत हरखु न आपत दूखा रंगु ठाकुरै लागिओ ॥१॥ पद्अर्थ: मानु = आदर। अहंकार = घमण्ड, अकड़न। समाने = ऐक जैसे। मसतकु = माथा। पागिओ = पैरों पर। संपत हरखु = संपक्ति का हर्ष, (आए) धन की खुशी। आपत दूखा = दुखों की आपदा, (आई) विपदा का दुख। रंगु = प्रेम।1। अर्थ: हे बहिन! कोई मेरा आदर करे, कोई मेरे साथ घमण्डियों वाला सलूक करे, मुझे दोनों एक ही जैसे प्रतीत होते हैं। (क्यूँकि) मैंने अपना माथा (सिर) गुरु के चरणों में रख दिया है। (गुरु की किरपा से मेरे मन में) परमात्मा का प्यार बन चुका है। अब मुझे आए धन की खुशी नहीं होती, और आई बिपता से दुख प्रतीत नहीं होता।1। बास बासरी एकै सुआमी उदिआन द्रिसटागिओ ॥ निरभउ भए संत भ्रमु डारिओ पूरन सरबागिओ ॥२॥ पद्अर्थ: बास बास = बसेरे बसेरे में, सब घरों में। री = हे सखी! उदिआन = उद्यानों में, जंगलों में। भ्रमु = भटकना। पूरन = व्यापक। सरबागिओ = सर्वज्ञ, सबके दिलों की जानने वाला।2। अर्थ: हे बहिन! अब मुझे सब घरों में एक मालिक प्रभु ही दिखता है, जंगलों में भी मुझे वही नजर आ रहा है। गुरु संत (की किरपा से) मैंने भटकना समाप्त कर ली है, अब सबके दिल की जानने वाला प्रभु ही मुझे सर्व-व्यापक दिखता है और मैं निडर हो गया हूँ।2। जो किछु करतै कारणु कीनो मनि बुरो न लागिओ ॥ साधसंगति परसादि संतन कै सोइओ मनु जागिओ ॥३॥ पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। कारणु = सबब्। मनि = मन में। बुरो = बुरा। प्रसादि = किरपा से। सोइओ = सोया हुआ।3। अर्थ: (हे बहिन! जब भी) जो भी सबब ईश्वर ने बनाया (अब मुझे अपने) मन में (वह) बुरा नहीं लगता। साधु-संगत में आ के संत जनों की किरपा से (माया के मोह में) सोया हुआ (मेरा) मन जाग उठा है।3। जन नानक ओड़ि तुहारी परिओ आइओ सरणागिओ ॥ नाम रंग सहज रस माणे फिरि दूखु न लागिओ ॥४॥२॥१६०॥ पद्अर्थ: ओड़ि = शरण में। रंग = आनंद। सहज = आत्मिक अडोलता।4। अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! गुरु की कृपा से) मैं तेरी ओट में आ पड़ा हूँ, मैं तेरी शरण में आ गिरा हूँ। अब मुझे कोई दुख नहीं सताता। मैं तेरे नाम का आनंद ले रहा हूँ मैं आत्मिक अडोलता के सुख माण रहा हूँ।4।2।160। गउड़ी माला२ महला ५ ॥ पाइआ लालु रतनु मनि पाइआ ॥ तनु सीतलु मनु सीतलु थीआ सतगुर सबदि समाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पाइआ = ढूँढ लिया है। मनि = मन में। थीआ = हो गया है। सतिगुर सबदि = गुरु के शब्द में। समाइआ = लीन हो गया हूँ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! मैंने अपने) मन में एक लाल ढूँढ लिया है। मैं गुरु के शब्द में लीन हो गया हूँ। मेरा शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रियां) शांत हो गई हैं, मेरा मन ठंडा हो गया है।1। रहाउ। लाथी भूख त्रिसन सभ लाथी चिंता सगल बिसारी ॥ करु मसतकि गुरि पूरै धरिओ मनु जीतो जगु सारी ॥१॥ पद्अर्थ: त्रिसन = प्यास। सगल = सारी। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। गुरि = गुरु ने। सारी = सारा।1। अर्थ: (हे भाई!) पूरे गुरु ने (मेरे) माथे पर (अपना) हाथ रखा है (उसकी इनायत से मैंने अपना) मन काबू में कर लिया है। (मानो) मैंने सारा जगत जीत लिया है (क्योंकि मेरी माया की) भूख उतर गई है। मेरी माया की सारी प्यास खत्म हो गई है, मैंने सारे चिन्ता-फिक्र भुला दिए हैं।1। त्रिपति अघाइ रहे रिद अंतरि डोलन ते अब चूके ॥ अखुटु खजाना सतिगुरि दीआ तोटि नही रे मूके ॥२॥ पद्अर्थ: अघाइ रहे = तृप्त हो गए। रिद = हृदय। ते = से। चूके = हट गए। सतिगुरि = सत्गुरू ने। रे = हे भाई! मूके = समाप्त होता।2। अर्थ: (हे भाई! माया की तरफ से मेरे अंदर की भूख) तृप्त हो गई है, मैं (माया की ओर से अपने) दिल में अघा चुका हूँ। (अब माया की खातिर) डोलने से मैं हट गया हूँ। हे भाई! सतिगुरु ने मुझे (प्रभु नाम का एक ऐसा) खजाना दिया है जो कभी खत्म होने वाला नहीं। ना ही उसमें कमी आ सकती है, ना ही वह खत्म होने वाला है।2। अचरजु एकु सुनहु रे भाई गुरि ऐसी बूझ बुझाई ॥ लाहि परदा ठाकुरु जउ भेटिओ तउ बिसरी ताति पराई ॥३॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। बूझ = समझ। बुझाई = समझा दी। लाहि = उतार के। भेटिओ = मिला। ताति = ईष्या, जलन।3। अर्थ: हे भाई! एक और अनोखी बात सुनो। गुरु ने मुझे ऐसी समझ बख्श दी है (जिसकी इनायत से) जब से (मेरे अंदर से अहंकार का) परदा उतार के मुझे ठाकुर प्रभु मिला है, तब से (मेरे दिल में से) पराई ईष्या बिसर गई है।3। कहिओ न जाई एहु अच्मभउ सो जानै जिनि चाखिआ ॥ कहु नानक सच भए बिगासा गुरि निधानु रिदै लै राखिआ ॥४॥३॥१६१॥ पद्अर्थ: अचंभउ = अचम्भा, आश्चर्यजनक चमत्कार। जिनि = जिस ने। नानक = हे नानक! सच बिगासा = सत्य का प्रकाश, सदा स्थिर प्रभु का प्रकाश। रिदै = हृदय में।4। अर्थ: हे भाई! ये एक ऐसा आश्चर्यजनक आनंद है जो बयान नहीं किया जा सकता। इस रस को वही जानता है जिसने ये चखा है। हे नानक! कह: गुरु ने (मेरे अंदर परमात्मा के नाम का खजाना ला के रख दिया है, और मेरे अंदर उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के ज्ञान) का प्रकाश हो गया है।4।3।161। गउड़ी माला महला ५ ॥ उबरत राजा राम की सरणी ॥ सरब लोक माइआ के मंडल गिरि गिरि परते धरणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उबरत = उबरता है। राजा राम = प्रभु पातशाह। सरब लोक = मात लोक, पाताल लोक और आकाशलोक मिला के। मंडल = चक्र। गिरि = गिर के। धरणी = धरती पर (निम्न आत्मिक दशा में)।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) प्रभु-पातशाह के शरन पड़ के ही मनुष्य (माया के प्रभाव से) बच सकता है। मात लोक, पाताल लोक और आकाश लोक -इन सब लोकों के जीव माया के चक्कर में फंसे पड़े हैं, (माया के प्रभाव के कारण जीव उच्च आत्मिक मण्डल से) गिर गिर के निम्न आत्मिक दशा में आ पड़ते हैं।1। रहाउ। सासत सिम्रिति बेद बीचारे महा पुरखन इउ कहिआ ॥ बिनु हरि भजन नाही निसतारा सूखु न किनहूं लहिआ ॥१॥ पद्अर्थ: किन हूं न = किसी ने भी नहीं।1। अर्थ: (पण्डित लोग तो) शास्त्रों-स्मृतियों-वेद (आदि सारे धर्म पुस्तकों को) विचारते आ रहे हैं। पर महापुरुषों ने तो यही कहा है कि परमात्मा के भजन के बिना (माया के समुंदर से) पार नहीं हुआ जा सकता, (स्मरण के बिना) किसी मनुष्य ने भी सुख नहीं पाया।1। तीनि भवन की लखमी जोरी बूझत नाही लहरे ॥ बिनु हरि भगति कहा थिति पावै फिरतो पहरे पहरे ॥२॥ पद्अर्थ: तीनि भवन = मातृ, पाताल व आकाश। लखमी = माया। जोरी = इकट्ठी की। लहरे = लोभ की लहरें। बूझत नाही = बुझती नहीं, मिटती नहीं। कहा = किधर? थिति = (ष्) टिकाव। पहरे पहरे = हरेक पहर, हर समय। फिरतो = भटकता फिरता है।2। अर्थ: (हे भाई!) अगर मनुष्य सारी सृष्टि की ही माया एकत्र कर ले, तो भी लोभ की लहरें मिटती नहीं हैं। (इतनी माया जोड़ जोड़ के भी) परमात्मा की भक्ति के बिना मनुष्य कहीं भी मन का टिकाव नहीं ढूँढ सकता, हर समय ही (माया की खातिर) भटकता फिरता है।2। अनिक बिलास करत मन मोहन पूरन होत न कामा ॥ जलतो जलतो कबहू न बूझत सगल ब्रिथे बिनु नामा ॥३॥ पद्अर्थ: बिलास = मौजें। मन मोहन = मन को मोहने वाली। कामा = कामना, वासना। जलतो = जलता। न बूझत = (आग) बुझती नहीं। ब्रिथे = व्यर्थ।3। अर्थ: (हे भाई!) मनुष्य मन को मोहने वाली अनेक मौजें भी करता रहे, (पर, मन की विकारों वाली) वासना पूरी नहीं होती। मनुष्य तृष्णा की आग में जलता फिरता है, तृष्णा की आग कभी बुझती नहीं। परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य के अन्य सभी उद्यम व्यर्थ चले जाते हैं।3। हरि का नामु जपहु मेरे मीता इहै सार सुखु पूरा ॥ साधसंगति जनम मरणु निवारै नानक जन की धूरा ॥४॥४॥१६२॥ पद्अर्थ: सार = श्रेष्ठ। धूरा = चरण धूल।4। अर्थ: हे मेरे मित्र! परमात्मा का नाम जपा कर, यही सब से श्रेष्ठ सुख है, और इस सुख में कोई कमी नहीं रह जाती। जो मनुष्य साधु-संगत में आ के अपना जनम मरण (का चक्र) खत्म कर लेता है, नानक उस मनुष्य के चरणों की धूल (मांगता) है।4।4।162। गउड़ी माला महला ५ ॥ मो कउ इह बिधि को समझावै ॥ करता होइ जनावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। को = कौन? करता होइ = कर्तार का रूप हो के। जनावै = समझा सकता है।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) और कौन मुझे इस तरह समझ सकता है? (वही गुरमुख) समझ सकता है (जो) कर्तार का रूप हो जाए।1। रहाउ। अनजानत किछु इनहि कमानो जप तप कछू न साधा ॥ दह दिसि लै इहु मनु दउराइओ कवन करम करि बाधा ॥१॥ पद्अर्थ: इनहि = इस जीव ने। जप तप = परमात्मा का स्मरण और विकारों की तरफ से रोक के प्रयास। दह दिसि = दसों दिशाओं। दउराइओ = दौड़ाया। करि = कर के। बाध = बंधा हुआ है।1। अर्थ: (हे भाई! गुरु के बिना और कोई नहीं समझ सकता कि) अज्ञानता में फंस के इस जीव ने स्मरण नहीं किया और विकारों को रोकने का प्रयास नहीं किया, कुछ अन्य ही (बुरे, बेमतलब काम) किए हैं। ये जीव अपने इस मन को दसों दिशाओं में भगा रहा है। ये कौन से कर्मों के कारण (माया के मोह में) बंधा हुआ है?।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |