श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मन तन धन भूमि का ठाकुरु हउ इस का इहु मेरा ॥ भरम मोह कछु सूझसि नाही इह पैखर पए पैरा ॥२॥

पद्अर्थ: भूमि = धरती। ठाकुरु = मालिक। हउ = मैं। इहु = ये धन। पैखर = ढंगे।2।

अर्थ: (हे भाई! माया की खातिर) भटकना के कारण (माया के) मोह के कारण (जीव को) कोई अच्छी बात नहीं सूझती। इसके पैरों में माया के मोह की बाधाएं, जंजीरें पड़ी हुई हैं (जैसे गधे आदि को बढ़िया ढंगा, बाधा डाली जाती है) (मोह में फंस के जीव हर समय यही कहता है:) मैं अपनी जीवात्मा का, शरीर का, धन का, धरती का मालिक हूँ, मैं इस (धन आदि) का मालिक हूँ, ये धन आदिक मेरा है।2।

तब इहु कहा कमावन परिआ जब इहु कछू न होता ॥ जब एक निरंजन निरंकार प्रभ सभु किछु आपहि करता ॥३॥

पद्अर्थ: कहा = कहाँ? कमावन परिआ = कमाने काबिल था। आपहि = स्वयं ही।3।

अर्थ: (हे भाई! गुरु के बिना और कौन बताए? कि) जब (जगत-रचना से पहले) इस जीव की कोई हस्ती नहीं थी, जब केवल एक निरंजन आकार-रहित प्रभु खुद ही खुद था, जब प्रभु स्वयं ही सब कुछ करने वाला था, तब ये जीव क्या कमाने के काबिल था? (और, अब ये गुमान करता है कि मैं धन का मालिक हूँ, मैं धरती का मालिक हूँ)।3।

अपने करतब आपे जानै जिनि इहु रचनु रचाइआ ॥ कहु नानक करणहारु है आपे सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥४॥५॥१६३॥

पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सतिगुरि = गुरु ने।4।

अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने ही (ये तन, धन, धरती आदि की मल्कियतों का) भुलेखा दूर किया है और समझाया है कि जिस परमात्मा ने ये जगत रचना रची है वही स्वयं अपने किए कामों को जानता है और वही सब कुछ करने की स्मर्था रखता है (अज्ञानी जीव व्यर्थ ही मल्कियतों का अहंकार करता है और भटकता फिरता है)।4।4।163।

गउड़ी माला महला ५ ॥ हरि बिनु अवर क्रिआ बिरथे ॥ जप तप संजम करम कमाणे इहि ओरै मूसे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अवर = और। क्रिया = कर्म। संजम = मन को विकारों से रोकने का यत्न। ओरै = पास पास ही। मूसे = ठगे जाते हैं, लूटे जाते हैं।1। रहाउ।

नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के स्मरण के बिना और सारे (निहित धार्मिक) काम व्यार्थ हैं। (देवताओं को प्रसन्न करने वाले) जप करने, तप साधने, इन्द्रियों को विकारों से रोकने के लिए हठ योग के साधन करने- ये सारे (प्रभु की दरगाह से) पहले ही छीन लिए जाते हैं।1। रहाउ।

बरत नेम संजम महि रहता तिन का आढु न पाइआ ॥ आगै चलणु अउरु है भाई ऊंहा कामि न आइआ ॥१॥

पद्अर्थ: आढु = आधी कौड़ी। आगै = आगे परलोक में। चलणु = साथ जाने वाला पदार्थ। कामि = काम में। ऊहा = परलोक में, प्रभु की दरगाह में।1।

अर्थ: मनुष्य वर्तों संजमों के नियमों में ही व्यस्त रहता है, पर उन उद्यमों का मूल्य उसे एक कौड़ी भी नहीं मिलता। हे भाई! जीव के साथ परलोक में साथ निभाने वाला पदार्थ और है (व्रत नेम संजम आदिक में से कोई भी) परलोक में काम नहीं आता।1।

तीरथि नाइ अरु धरनी भ्रमता आगै ठउर न पावै ॥ ऊहा कामि न आवै इह बिधि ओहु लोगन ही पतीआवै ॥२॥

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। नाइ = नहाता है। अरु = तथा (‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क याद रखें)। धरनी = धरती। ठउर = जगह। बिधि = तरीका। लोगन ही = लोगों को ही। पतीआवै = तसल्ली देता है, निश्चय कराता है।2।

अर्थ: जो मनुष्य तीर्थों पर स्नान करता है और (त्यागी बन के) धरती पर रटन करता फिरता है (वह भी) प्रभु की दरगाह में जगह नहीं ढूँढ सकता। ऐसा कोई तरीका प्रभु की हजूरी में काम नहीं आता। वह (त्यागी इन तरीकों से) सिर्फ लोगों को ही (अपने धर्मी होने का) निश्चय दिलाता है।2।

चतुर बेद मुख बचनी उचरै आगै महलु न पाईऐ ॥ बूझै नाही एकु सुधाखरु ओहु सगली झाख झखाईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: चतुर = चार। मुख बचनी = मुंह के वचनों से, जबानी। महलु = ठिकाना। सुधाखरु = शुद्ध अक्षर, पवित्र शब्द, परमात्मा क नाम। ओहु = वह मनुष्य। झाख झखाईऐ = खुआरी ही सहता है।3।

अर्थ: (हे भाई! अगर पण्डित) चारों वेद जुबानी उचार सकता है (तो इस तरह भी) प्रभु की हजूरी में ठिकाना नहीं मिलता। जो मनुष्य परमात्मा का पवित्र नाम (स्मरणा) नहीं समझता वह (और-और उद्यमों के साथ) निरी ख्वारी ही बर्दाश्त करता है।3।

नानकु कहतो इहु बीचारा जि कमावै सु पार गरामी ॥ गुरु सेवहु अरु नामु धिआवहु तिआगहु मनहु गुमानी ॥४॥६॥१६४॥

पद्अर्थ: नानकु कहतो = नानक कहता है (शब्द ‘नानक’ व ‘नानकु’ का फर्क)। जि = जो मनुष्य। पार गरामी = तैराक, पार लांघने लायक। मनहु = मन से। गुमानी = गुमान, अहंकार।4।

अर्थ: (हे भाई!) नानक ये एक विचार की बात कहता है, जो मनुष्य इसे इस्तेमाल में ले आता है वह संसार समुंदर से पार लांघने के लायक हो जाता है (वह विचार ये है - हे भाई!) गुरु की शरण पड़। अपने मन में से अहंकार दूर कर, और परमात्मा का नाम स्मरण कर।4।6।164।

गउड़ी माला ५ ॥ माधउ हरि हरि हरि मुखि कहीऐ ॥ हम ते कछू न होवै सुआमी जिउ राखहु तिउ रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माधउ = (मा = धव। मा = माया। धव = पति) हे माया के पति परमात्मा। मुखि = मुंह से। कहीऐ = कह सकें। हम ते = हमसे। सुआमी = हे स्वामी!।1। रहाउ।

अर्थ: (हे स्वामी प्रभु!) हम जीवों से कुछ नहीं हो सकता। जिस तरह तू हमें रखता है, उसी तरह हम रहते हैं। हे माया के पति प्रभु! हे हरि! (मेहर कर, ताकि हम) तेरा नाम मुंह से उचार सकें।1। रहाउ।

किआ किछु करै कि करणैहारा किआ इसु हाथि बिचारे ॥ जितु तुम लावहु तित ही लागा पूरन खसम हमारे ॥१॥

पद्अर्थ: कि = क्या? इसु हाथि = इस (जीव) के हाथि में। जितु = जिस तरफ। तित ही = उस तरफ ही। खसम = हे पति!।1।

(नोट: शब्द ‘जितु’ की तरह ‘तितु’ के आखिर में भी ‘ु’ मात्रा थी, जो क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है)।

अर्थ: हे मेरे सर्व-व्यापक खसम प्रभु! ये जीव क्या करें? ये हैं क्या करने के काबिल? इन बिचारों के हाथ में है क्या? (ये जीव अपने आप कुछ नहीं करता, कुछ नहीं कर सकता, इसके हाथ में कोई ताकत नहीं)। जिस तरफ तू इसे लगाता है, उसी तरफ ये लगा फिरता है।1।

करहु क्रिपा सरब के दाते एक रूप लिव लावहु ॥ नानक की बेनंती हरि पहि अपुना नामु जपावहु ॥२॥७॥१६५॥

पद्अर्थ: दाते = हे दातार! एक रूप लिव = अपने एक स्वरूप की लगन। लावहु = पैदा करो। पहि = पास।2।

अर्थ: हे सारे जीवों को दातें देने वाले प्रभु! मेहर कर, मुझे सिर्फ अपने ही स्वरूप की लगन बख्श। मैं नानक की परमात्मा के पास (यही) विनती है (-हे प्रभु!) मुझसे अपना नाम जपा।2।7।165।


रागु गउड़ी माझ महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दीन दइआल दमोदर राइआ जीउ ॥ कोटि जना करि सेव लगाइआ जीउ ॥ भगत वछलु तेरा बिरदु रखाइआ जीउ ॥ पूरन सभनी जाई जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: दीन दइआल = हे गरीबों पे तरस करने वाले! दामोदर = (दामन् = रस्सी, तड़ागी। उदर = पेट, कमर। दामोदर = जिसके कमर पे तगाड़ी है, कृष्ण) हे प्रभु! राइआ = हे पातशाह! जन = सेवक। वछलु = वत्सल, प्यारा। बिरद = गरीब निवाज वाला मूल स्वभाव। जाई = जगहों में।1।

अर्थ: हे गरीबों पर तरस करने वाले प्रभु पातशाह जी! तूने करोड़ों लोगों को अपने सेवक बना के अपनी सेवा-भक्ति में लगाया हुआ है। भगतों का प्यारा होना- ये तेरा मूल स्वभाव बना आ रहा है। हे प्रभु! तू सब जगहों पर मौजूद है।1।

किउ पेखा प्रीतमु कवण सुकरणी जीउ ॥ संता दासी सेवा चरणी जीउ ॥ इहु जीउ वताई बलि बलि जाई जीउ ॥ तिसु निवि निवि लागउ पाई जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: किउ = कैसे? पेखा = मैं देखूँ। सुकरणी = श्रेष्ठ करनी। चरणी = चरणों की। जीउ = जीवात्मा। वताई = मैं सदके करूँ। बलि जाई = बलिहार जाऊँ, कुर्बान जाऊँ। निवि निवि = झुक झुक के। लागउ = मैं लगूँ। पाई = पैरों में।2।

अर्थ: (हे भाई!) मैं कैसे उस प्रभु प्रीतम का दर्शन करूँ? वह कौन सी श्रेष्ठ करनी है (जिससे मैं उसे देखूँ)? (जहां भी पूछूँ यही उक्तर मिलता है कि) मैं संत जनों की दासी बनूँ ओर उनके चरणों की सेवा करूँ। मैं अपनी ये जिंद उस प्रभु पातशाह पर से सदके करूँ, और, उस पर से कुर्बान हो जाऊँ। झुक झुक के मैं सदा उसके पैर लगती रहूँ।2।

पोथी पंडित बेद खोजंता जीउ ॥ होइ बैरागी तीरथि नावंता जीउ ॥ गीत नाद कीरतनु गावंता जीउ ॥ हरि निरभउ नामु धिआई जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। धिआई = मैं ध्याता हूँ।3।

अर्थ: (हे भाई!) कोई पण्डित (बन के) वेद आदिक धर्म-पुस्तकें खोजता रहता है, कोई (दुनिया से) वैरागवान हो के (हरेक) तीर्थ पर स्नान करता फिरता है, कोई गीत गाता है, नाद बजाता है, कीर्तन करता है, पर मैं परमात्मा का वह नाम जपता रहता हूँ जो (मेरे अंदर) निर्भयता पैदा करता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh