श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ जिस का दीआ पैनै खाइ ॥ तिसु सिउ आलसु किउ बनै माइ ॥१॥

पद्अर्थ: पैनै = पहिनता है। खाइ = खाता है। किउ बनै = कैसे बने, कैसे फब सकता है? नहीं फबता। माइ = हे माँ!।1।

नोट: ‘जिस का’ शब्द में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

अर्थ: हे माँ! जिस परमात्मा का दिया हुआ (अन्न) मनुष्य खाता है, (दिया हुआ कपड़ा मनुष्य) पहनता है उसकी याद में आलस करना किसी भी तरह शोभा नहीं देता।1।

खसमु बिसारि आन कमि लागहि ॥ कउडी बदले रतनु तिआगहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिसारि = भुला के। आन = अन्य। कंमि = काम में। लागहि = लगते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) मालिक प्रभु (की याद) भुला के अन्य कामों में उलझे रहते हैं, वह नकारी माया के बदले में अपना कीमती मानव जनम गवा लेते हैं। (वे रत्न तो फेंक देते हैं, पर कउड़ी को सम्भालते हैं)।1। रहाउ।

प्रभू तिआगि लागत अन लोभा ॥ दासि सलामु करत कत सोभा ॥२॥

पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के। दासि = दासी, माया। कत = कहाँ?।2।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा को छोड़ के और (पदार्थोँ के) लोभ वश हो के (परमात्मा की) दासी माया को सलाम करने से कहीं भी शोभा नहीं मिल सकती।2।

अम्रित रसु खावहि खान पान ॥ जिनि दीए तिसहि न जानहि सुआन ॥३॥

पद्अर्थ: खावहि = खाते हैं। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिसहि = उस (प्रभु) को। सुआन = (बहुवचन) कुत्ते।3।

अर्थ: (हे भाई!) कुत्ते (के स्वाभाव वाले मनुष्य) स्वादिष्ट भोजन खाते हैं, अच्छे-अच्छे खाने खाते हैं, पीने वाली चीजें पीते हैं, पर जिस परमात्मा ने (ये सारे पदार्थ) दिए हैं उसे जानते-पहिचानते भी नहीं।3।

कहु नानक हम लूण हरामी ॥ बखसि लेहु प्रभ अंतरजामी ॥४॥७६॥१४५॥

पद्अर्थ: लूण हरामी = (खाए हुए) नमक को हराम करने वाले, ना-शुक्रगुजार। प्रभ = हे प्रभु! 4।

अर्थ: हे नानक! कह: हे प्रभु! हम जीव ना-शुक्रे हैं। हे जीवों के दिल की जानने वाले प्रभु! हमें बख्श ले।4।76।145।

गउड़ी महला ५ ॥ प्रभ के चरन मन माहि धिआनु ॥ सगल तीरथ मजन इसनानु ॥१॥

पद्अर्थ: माहि = में। मजन = स्नान, डुबकी।1।

अर्थ: (हे मेरे बंधु!) अपने मन में परमात्मा का ध्यान धर। (प्रभु-चरणों का ध्यान ही) सारे तीर्थों का स्नान है।1।

हरि दिनु हरि सिमरनु मेरे भाई ॥ कोटि जनम की मलु लहि जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दिनु = (सारा) दिन। हरि हरि सिमरनु = सदा हरि का स्मरण कर। भाई = हे भाई! कोटि = करोड़ों। मलु = (विकारों की) मैल।1। रहाउ।

नोट: शब्द ‘मलु’ शक्ल में पुलिंग की तरह है पर है ये स्त्रीलिंग है।

अर्थ: हे मेरे भाई! सारा दिन सदा परमात्मा का स्मरण किया कर। (जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है उसके) करोड़ों जन्मों के (विकारों की) मैल उतर जाती है।1। रहाउ।

हरि की कथा रिद माहि बसाई ॥ मन बांछत सगले फल पाई ॥२॥

पद्अर्थ: कथा = महिमा। मन बांछत = मन इच्छित,मन भाते।2।

अर्थ: (हे मेरे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा की महिमा अपने हृदय में बसाता है, वह सारे मन-इच्छित फल प्राप्त कर लेता है।2।

जीवन मरणु जनमु परवानु ॥ जा कै रिदै वसै भगवानु ॥३॥

पद्अर्थ: जीवन मरणु जनमु = पैदा होने से मरने तक सारा जीवन। जा कै रिदै = जिसके हृदय में।3।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में भगवान आ बसता है, जनम से लेकर मौत तक उस मनुष्य का सारा जीवन (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है।3।

कहु नानक सेई जन पूरे ॥ जिना परापति साधू धूरे ॥४॥७७॥१४६॥

पद्अर्थ: पूरे = सारे गुणों वाले। साधू धूरे = गुरु के चरणों की धूल।4।

अर्थ: हे नानक! वही मनुष्य सही जीवन वाले बनते हैं जिन्हें गुरु के चरणों की धूल मिल जाती है।4।77।146।

गउड़ी महला ५ ॥ खादा पैनदा मूकरि पाइ ॥ तिस नो जोहहि दूत धरमराइ ॥१॥

पद्अर्थ: मुकर पाइ = मुकर जाता है। जोहहि = निगाह में रखते हैं।1।

नोट: ‘मुकर पाइ’ के बारे में। संस्कृत क्रिया का पहला हिस्सा सदा एकारांत होता है, आखिरी अक्षर के साथ ‘ि’ की मात्रा लगी होती है। ये नियम सारी वाणी में ठीक उतरता है। पर ‘जपु’ वाणी में देखो “केते लै लै मुकरु पाहि”।

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की बख्शी दातें) खाता रहता है पहनता रहता है और उस बात को नहीं मानता (मुकरा रहता है) कि ये सब परमात्मा का दिया है, उस मनुष्य को धर्मराज के दूत अपनी निगरानी में रखते हैं (भाव, वह मनुष्य सदा आत्मिक मौत मरा रहता है)।1।

तिसु सिउ बेमुखु जिनि जीउ पिंडु दीना ॥ कोटि जनम भरमहि बहु जूना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। जीउ = जीवात्मा। पिंडु = शरीर। भरमहि = तू भटकेगा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! तू) उस परमात्मा (की याद) से मुंह मोड़े बैठा है, जिसने (तुझे) जीवात्मा दी, जिसने (तुझे) शरीर दिया। (याद रख, यहां से गवा के) करोड़ों जन्मों में अनेक जूनियों में भटकता फिरेगा।1। रहाउ।

साकत की ऐसी है रीति ॥ जो किछु करै सगल बिपरीति ॥२॥

पद्अर्थ: साकत = माया ग्रस्त जीव, प्रभु से टूटा हुआ। रीति = जीवन मर्यादा। बिपरीत = उलट।2।

अर्थ: (हे भाई!) माया ग्रसित मनुष्य की जीवन मर्यादा ही ऐसी है कि वह जो कुछ करता है सारा बे-मुख्ता का काम ही करता है।2।

जीउ प्राण जिनि मनु तनु धारिआ ॥ सोई ठाकुरु मनहु बिसारिआ ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। धारिआ = (अपनी ज्योति से) सहारा दिया हुआ है। मनहु = मन से।3।

अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा ने जीव की जीवात्मा को, मन को, शरीर को (अपनी ज्योति का) सहारा दिया हुआ है, उस पालणहार प्रभु को साकत मनुष्य अपने मन से भुलाए रखता है।3।

बधे बिकार लिखे बहु कागर ॥ नानक उधरु क्रिपा सुख सागर ॥४॥

पद्अर्थ: बधे = बढ़े हुए हैं। कागर = कागज, दफतर। उधरु = उद्धार ले, बचा ले। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर प्रभु! 4।

अर्थ: (इस तरह हे बंधु! उस साकत के इतने) विकार बढ़ जाते हैं कि उनके (बुरे लेखों के) अनेक पृष्ठ ही लिखे जाते हैं।

हे नानक! (प्रभु दर पे अरदास कर और कह:) हे दया के समुंदर! (तू स्वयं हम जीवों को विकारों से) बचा के रख।4।

पारब्रहम तेरी सरणाइ ॥ बंधन काटि तरै हरि नाइ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥७८॥१४७॥

पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रह्म! नाइ = नाम के द्वारा।1। रहाउ दूजा।

अर्थ: हे पारब्रहम् प्रभु! जो मनुष्य (तेरी मेहर से) तेरी शरण आते हैं, वह तेरे हरि-नाम की इनायत से (अपने माया के) बंधन काट के (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ दूजा।78।147।

गउड़ी महला ५ ॥ अपने लोभ कउ कीनो मीतु ॥ सगल मनोरथ मुकति पदु दीतु ॥१॥

पद्अर्थ: लोभ कउ = लोभ की खातिर। कीनो = किया, बनाया। मुकति पदु = वह आत्मिक अवस्था जहां कोई वासना छू नहीं सकती।1।

अर्थ: (हे भाई! देखो गोबिंद की उदारता!) चाहे कोई मनुष्य अपनी किसी लालच की खातिर उसे मित्र बनाता है (फिर भी वह उसके) सारे उद्देश्य पूरे कर देता है जहाँ कोई वासना फटक नहीं सकती।1।

ऐसा मीतु करहु सभु कोइ ॥ जा ते बिरथा कोइ न होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सभु कोइ = हरेक जीव। जा ते = जिस से। बिरथा = खाली, व्यर्थ।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) हरेक मनुष्य ऐसे (प्रभु को) मित्र बनाए, जिस (के दर) से कोई खाली नहीं रहता।1। रहाउ।

अपुनै सुआइ रिदै लै धारिआ ॥ दूख दरद रोग सगल बिदारिआ ॥२॥

पद्अर्थ: सुआइ = स्वार्थ वास्ते। रिदै = हृदय में। बिदारिआ = नाश कर दिया।2।

अर्थ: जिस मनुष्य ने (उस गोबिंद को) अपनी गरज वास्ते भी अपने हृदय में ला टिकाया है, (गोबिंद ने उसके) सारे दुख-दर्द सारे रोग दूर कर दिए हैं।2।

रसना गीधी बोलत राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ। गीधी = (गृध् = to covet, to desire) लालसा करती है।3।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य की जीभ गोबिंद का नाम उचारने की तमन्ना रखती है, उसके सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं।3।

अनिक बार नानक बलिहारा ॥ सफल दरसनु गोबिंदु हमारा ॥४॥७९॥१४८॥

पद्अर्थ: बलिहारा = कुर्बान। सफल दरसनु = जिसका दर्शन सारे फल देता है।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हम अपने गोबिंद से अनेक बार कुर्बान जाते हैं, हमारा गोबिंद ऐसा है कि उसके दर्शन सारे फल देते हैं।4।79।148।

गउड़ी महला ५ ॥ कोटि बिघन हिरे खिन माहि ॥ हरि हरि कथा साधसंगि सुनाहि ॥१॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। हिरे = नाश हो जाते हैं। कथा = महिमा। साध संगि = साधु-संगत में। सुनाहि = (जो मनुष्य) सुनते हैं।1।

अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य साधु-संगत में (टिक के) परमात्मा की महिमा सुनते हैं, उनकी जिंदगी की राह में आने वाली करोड़ों रुकावटें एक छिन में नाश हो जाती हैं।1।

पीवत राम रसु अम्रित गुण जासु ॥ जपि हरि चरण मिटी खुधि तासु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पीवत = पीते हुए। राम रसु = राम के नाम का रस। अंम्रित गुण = आत्मिक जीवन देने वाले गुण। अंम्रित जासु = आत्मिक जीवन देने वाला यश। खुधितासु = भूख।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रस पीते हुए, परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले गुणों का जस गाते हुए, परमात्मा के चरण जप के (माया की) भूख मिट जाती है।1। रहाउ।

सरब कलिआण सुख सहज निधान ॥ जा कै रिदै वसहि भगवान ॥२॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। निधान = खजाने। भगवान = हे भगवान!।2।

अर्थ: हे भगवान! जिस मनुष्य के हृदय में तू बस जाता है, उसे सारे सुखों के खजाने व आत्मिक अडोलता के आनंद प्राप्त हो जाते हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh