श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 194 गउड़ी महला ५ ॥ करै दुहकरम दिखावै होरु ॥ राम की दरगह बाधा चोरु ॥१॥ पद्अर्थ: दुहकरम = दुष्कर्म, बुरे काम। होर = (अपने जीवन का) दूसरा पक्ष।1। अर्थ: (पर, जो स्मरण-हीन मनुष्य राम को सर्व-व्यापक नहीं प्रतीत करता, वह अंदर छुप के) बुरे कर्म कमाता है (बाहर जगत को अपने जीवन का) दूसरा पक्ष दिखाता है (जैसे चोर सेंध में रंगे हाथों पकड़ा जाता है, और फंस जाता है, वैसे ही) वह परमातमा की दरगाह में चोर की भांति बांधा जाता है।1। रामु रमै सोई रामाणा ॥ जलि थलि महीअलि एकु समाणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रमै = स्मरण करता है। रामाणा = राम का (सेवक)। जलि = जल में। थलि = धरती। महीअलि = मही+तल, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) वही मनुष्य राम का (सेवक माना जाता है) जो राम को स्मरण करता है। (उस मनुष्य को निश्चय हो जाता है कि) राम, जल में, धरती में, आकाश में हर जगह व्यापक है।1। रहाउ। अंतरि बिखु मुखि अम्रितु सुणावै ॥ जम पुरि बाधा चोटा खावै ॥२॥ पद्अर्थ: बिखु = जहर। मुखि = मुंह से। जमपुरि = यम की पुरी में। पुरि = पुर में, शहर में।2। अर्थ: (स्मरण-हीन रह के) परमात्मा को हर जगह ना बसता जानने वाला मनुष्य अपने मुंह से (लोगों को) आत्मिक जीवन देने वाला उपदेश सुनाता है (पर उसके) अंदर (विकारों की) जहर है। (जिसने उसके अपने आत्मिक जीवन को मार दिया है, ऐसा मनुष्य) यम की पुरी में बाँधा हुआ चोटें खाता है (आत्मिक मौत के वश में पड़ा अनेको विकारों की चोटें सहता है)।2। अनिक पड़दे महि कमावै विकार ॥ खिन महि प्रगट होहि संसार ॥३॥ पद्अर्थ: संसारि = संसार में। होहि = हो जाते हैं।3। अर्थ: (स्मरण-हीन मनुष्य परमात्मा को अंग-संग ना जानता हुआ) अनेक पदार्थों पीछे (लोगों से छुपा के) विकार कर्म कमाता है, पर (उसके कुकर्म) जगत के अंदर एक छिन में ही प्रगट हो जाते हैं।3। अंतरि साचि नामि रसि राता ॥ नानक तिसु किरपालु बिधाता ॥४॥७१॥१४०॥ पद्अर्थ: साचि नामि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु नाम में। रसि = रस में। बिधाता = विधाता प्रभु!।4। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपने अंदर सदा स्थिर हरि नाम में जुड़ा रहता है, परमात्मा के प्रेम-रस में भीगा रहता है, विधाता प्रभु उस पर दयावान होता है।4।71।140। गउड़ी महला ५ ॥ राम रंगु कदे उतरि न जाइ ॥ गुरु पूरा जिसु देइ बुझाइ ॥१॥ पद्अर्थ: राम रंगु = परमात्मा (के प्यार) का रंग। देइ बुझाइ = समझा दे, सूझ डाल दे।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के प्यार का रंग (अगर किसी भाग्यशाली के मन पर चढ़ जाए तो फिर) कभी (उस मन से) उतरता नहीं, दूर नहीं होता।1। हरि रंगि राता सो मनु साचा ॥ लाल रंग पूरन पुरखु बिधाता ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। साचा = सदा कायम रहने वाला, पक्के रंग वाला, जिस पर कोई और रंग अपना असर ना कर सके। बिधाता = विधाता।1। रहाउ। अर्थ: जो मन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है, उस पर (माया का) कोई और रंग अपना असर नहीं डाल सकता, वह (मानो) गहरे लाल रंग वाला हो जाता है, वह सर्व-व्यापक विधाता का रूप हो जाता है।1। रहाउ। संतह संगि बैसि गुन गाइ ॥ ता का रंगु न उतरै जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: संतह संगि = संतों की संगति में। बैसि = बैठ के।2। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) संत जनों की संगति में बैठ के परमात्मा के गुण गाता है (महिमा करता है, उसके मन को परमात्मा के प्यार का रंग चढ़ जाता है, और) उसका वह रंग कभी नहीं उतरता।2। बिनु हरि सिमरन सुखु नही पाइआ ॥ आन रंग फीके सभ माइआ ॥३॥ पद्अर्थ: आन = अन्य। फीके = कच्चे, बेस्वादे।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना (कभी किसी ने) आत्मिक आनंद नहीं पाया। (हे भाई!) माया (के स्वादों) के अन्य सभी रंग उतर जाते हैं (माया के स्वादों से मिलने वाले सुख होछे होते हैं)।3। गुरि रंगे से भए निहाल ॥ कहु नानक गुर भए है दइआल ॥४॥७२॥१४१॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। से = वह लोग (बहुवचन)। निहाल = प्रसन्न, खिले हुए जीवन वाले।4। अर्थ: हे नानक! कह: जिस पे सतिगुरु जी दयावान होते हैं जिन्हें गुरु ने परमात्मा के प्रेम रंग में रंग दिया है, वह सदा खिले जीवन वाले रहते हैं।4।72।141। नोट: पाठक याद रखें कि यहाँ पिछले सिलसिले के मुताबिक बड़ा अंक 142 चाहिए था। गिनती में एक की कमी चली आ रही है। गउड़ी महला ५ ॥ सिमरत सुआमी किलविख नासे ॥ सूख सहज आनंद निवासे ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। किलविख = पाप। सहज = आत्मिक अडोलता। निवासे = बस जाते हैं।1। अर्थ: (हे भाई!) मालिक-प्रभु का नाम स्मरण करते हुए (परमात्मा के सेवकों के सारे) पाप नाश हो जाते है, (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता के सुखों के आनंदों का निवास बना रहता है।1। राम जना कउ राम भरोसा ॥ नामु जपत सभु मिटिओ अंदेसा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को। जपत = जपते हुए। सभु अंदेसा = सारा फिक्र।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के सेवकों को (हर वक्त) परमात्मा (की सहायता) का भरोसा बना रहता है, (इस वास्ते) परमात्मा का नाम जपते हुए (उनके अंदर से) हरेक फिक्र मिटा रहता है।1। रहाउ। साधसंगि कछु भउ न भराती ॥ गुण गोपाल गाईअहि दिनु राती ॥२॥ पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। भराती = भटकना। गाइअहि = गाए जाते हैं।2। अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में रहने के कारण (परमात्मा के सेवकों को) कोई डर नहीं छू सकता, कोई भटकना नहीं भटका सकती। (क्योंकि, परमात्मा के सेवकों के हृदय में) दिन रात गोपाल प्रभु के गुण गाए जाते हैं (उनके अंदर हर समय महिमा टिकी रहती है)।2। करि किरपा प्रभ बंधन छोट ॥ चरण कमल की दीनी ओट ॥३॥ पद्अर्थ: प्रभ बंधन छोट = माया के बंधनों से खलासी देने वाले प्रभु जी ने। ओट = सहारा।3। अर्थ: (हे भाई!) माया के बंधनों से खलासी देने वाले प्रभु जी ने मेहर करके (अपने सेवकों को अपने) सुंदर चरणों का सहारा (सदा) बख्शा होता है।3। कहु नानक मनि भई परतीति ॥ निरमल जसु पीवहि जन नीति ॥४॥७३॥१४२॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। परतीति = श्रद्धा। जसु = महिमा (का जल)। नीति = सदा।4। अर्थ: (इस वास्ते) हे नानक! कह: (परमात्मा के सेवकों के) मन में (परमात्मा की ओट आसरे का) निश्चय बना रहता है, और परमात्मा के सेवक सदा (जीवन को) पवित्र करने वाला महिमा का अमृत पीते रहते हैं।4।73।142। गउड़ी महला ५ ॥ हरि चरणी जा का मनु लागा ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागा ॥१॥ पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। ता का = उस (मनुष्य) का।1। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा की मेहर से) जिस मनुष्य का मन परमात्मा के चरणों में लग जाता है उसका हरेक दुख दर्द दूर हो जाता है, उस की (माया आदि वाली) भटकना समाप्त हो जाती है।1। हरि धन को वापारी पूरा ॥ जिसहि निवाजे सो जनु सूरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। वापारी = वणज करने वाला। पूरा = अडोल चित्त, जिस पर कोई कमी अपना प्रभाव ना डाल सके। जिसहि = जिस (मनुष्य) को। निवाजे = इज्जत बख्शता है, मेहर करता है। सूरा = सूरमा, शूरवीर, विकारों का टकराव करने के समर्थ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम-धन का व्यापार करने वाला मनुष्य अडोल हृदय का मालिक बन जाता है (उस पर कोई विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते, क्योंकि) जिस मनुष्य पर परमात्मा अपने नाम-धन की दाति की मेहर करता है वह मनुष्य (विकारों से टकराव करने वाला) शूरवीर बन जाता है।1। रहाउ। जा कउ भए क्रिपाल गुसाई ॥ से जन लागे गुर की पाई ॥२॥ पद्अर्थ: कउ = को (शब्द ‘को’ और ‘कउ’ का फर्क साद रखने के योग्य है)। गुसाई = धरती का मालिक, प्रभु। पाई = पांय, पैरों पर।2। अर्थ: (पर, हे भाई! नाम-धन की दाति गुरु के द्वारा ही मिलती है और) जिस मनुष्यों पर धरती के मालिक प्रभु जी दयावान होते हैं, वह मनुष्य गुरु के चरणों में आ लगते हैं (गुरु की शरण पड़ते हैं)।2। सूख सहज सांति आनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥३॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। जीवे = उच्च आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। परमानंद = सबसे उच्च आत्मिक आनंद का मालिक प्रभु।3। अर्थ: (हे भाई!) सब से ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभु को स्मरण कर-कर के मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, फिर उनके अंदर सदा सुख शांति और आत्मिक अडोलता के आनंद बने रहते हैं।3। नाम रासि साध संगि खाटी ॥ कहु नानक प्रभि अपदा काटी ॥४॥७४॥१४३॥ पद्अर्थ: रासि = पूंजी, संपत्ति, धन। खाटी = कमा ली। प्रभि = प्रभु ने। अपदा = बिपता, मुसीबत।4। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने साधु-संगत में टिक के परमात्मा के नाम-धन की राशि कमा ली है, परमात्मा ने उसकी हरेक किस्म की बिपता दूर कर दी है।4।74।143। गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत सभि मिटहि कलेस ॥ चरण कमल मन महि परवेस ॥१॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। मिटहि = मिट जाते हैं। चरण कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। परवेस = टिकाए रख।1। अर्थ: (हे भाई!) अपने मन में परमात्मा के सुंदर चरण बसाए रख। परमात्मा का नाम स्मरण करने से मन के सारे कष्ट मिट जाते हैं।1। उचरहु राम नामु लख बारी ॥ अम्रित रसु पीवहु प्रभ पिआरी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लख बारी = लाखों बार। प्रभ दा = प्रभु का। पिआरी = हे प्यारी जीभ! 1। रहाउ। अर्थ: हे प्यारी जीभ! (तू) लाखों बार परमात्मा का नाम उचारती रह और परमात्मा का आत्मिक जीवन वाला नाम-रस पीती रह।1। रहाउ। सूख सहज रस महा अनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥२॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। जीवे = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। परमानंदा = सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक प्रभु! 2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य सबसे श्रेष्ठ आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभु का नाम जपते हैं, वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, उनके अंदर आत्मिक अडोलता के बड़े सुख आनंद बने रहते हैं।2। काम क्रोध लोभ मद खोए ॥ साध कै संगि किलबिख सभ धोए ॥३॥ पद्अर्थ: मद = अहंकार। खोए = नाश कर लिए। संगि = संगति में। किलबिख = पाप।3। अर्थ: (हे भाई! नाम-रस पीने वाले मनुष्य अपने अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार (आदि विकारों का) नाश कर लेते हैं। गुरु की संगति में रह के वह (अपने मन में से) सारे पाप धो लेते हैं।3। करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ नानक दीजै साध रवाला ॥४॥७५॥१४४॥ पद्अर्थ: करि किरपा = कृपा कर। प्रभ = हे प्रभु! रवाला = चरण धूल।4। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! मेहर कर और नानक को गुरु के चरणों की धूल बख्श।4।75।144। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |