श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अउखध मंत्र तंत सभि छारु ॥ करणैहारु रिदे महि धारु ॥३॥

पद्अर्थ: अउखध = दवाईआं। तंत = तंत्र, टूणे। सभि = सारे। छारु = राख, तुच्छ। धारु = टिकाए रख।3।

अर्थ: (हे भाई!) विधाता प्रभु को अपने हृदय में टिकाए रख। (इसके मुकाबले के अन्य) सभी औषधियां, सारे मंत्र और तंत्र (टूणे) तुच्छ हैं।3।

तजि सभि भरम भजिओ पारब्रहमु ॥ कहु नानक अटल इहु धरमु ॥४॥८०॥१४९॥

पद्अर्थ: तजि = त्याग के। भजिओ = भजा है, उपासना की है, स्मरण किया है। अटल = (अ-टल), कभी ना टलने वाला।4।

अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने सारे भ्रम त्याग के पारब्रहम् प्रभु का भजन किया है, (उसने देख लिया है कि भजन-स्मरण वाला) धर्म ऐसा है जो कभी फल देने में कमी नहीं आने देता।4।80।149।

गउड़ी महला ५ ॥ करि किरपा भेटे गुर सोई ॥ तितु बलि रोगु न बिआपै कोई ॥१॥

पद्अर्थ: करि = करे, करता है। भेटे = मिलता है। गुर = गुरु को। सोई = वही। तितु = उसके द्वारा। तितु बलि = उस (आत्मिक) बल के द्वारा। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता।1।

अर्थ: (पर हे भाई!) वही मनुष्य गुरु को मिलता है, जिस पर परमात्मा कृपा करता है। (गुरु के मिलाप की इनायत से मनुष्य के अंदर आत्मिक बल पैदा होता है) उस बल के कारण कोई रोग अपना जोर नहीं डाल सकता।1।

राम रमण तरण भै सागर ॥ सरणि सूर फारे जम कागर ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रमण = स्मरण। तरण = पार लांघ जाना। भै सागर = संसार समुंदर। सूर = शूरवीर (गुरु)। फारे = फाड़े जाते हैं। जम कागर = जमों के कागज, आत्मिक मौत लाने वाले संस्कार।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का स्मरण करने से संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं। शूरवीर गुरु की शरण पड़ने से जमों के लेखे फाड़े जाते हैं, (आत्मिक मौत लाने वाले सारे संस्कार मिट जाते हैं)।1। रहाउ।

सतिगुरि मंत्रु दीओ हरि नाम ॥ इह आसर पूरन भए काम ॥२॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। आसर = आसरा।2।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) सत्गुरू ने परमात्मा का नाम मंत्र दे दिया, इस नाम-मंत्र के आसरे उसके सारे उद्देश्य पूरे हो गए।2।

जप तप संजम पूरी वडिआई ॥ गुर किरपाल हरि भए सहाई ॥३॥

पद्अर्थ: संजम = इंद्रियों को विकारों से रोकने के यत्न। सहाई = मदद करने वाले।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर) सतिगुरु जी कृपाल हुए, जिसके मददगार सत्गुरू जी बन गए, उसको सारे जपों का, सारे तपों का, सारे संजमों का सम्मान प्राप्त हो गया।3।

मान मोह खोए गुरि भरम ॥ पेखु नानक पसरे पारब्रहम ॥४॥८१॥१५०॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। पेखु = देख। नानक = हे नानक! पसरे = व्यापक।4।

अर्थ: हे नानक! देख, गुरु ने जिस मनुष्य के अहंकार, मोह आदि भ्रम नाश कर दिए, उसे पारब्रहम् प्रभु जी हर जगह व्यापक दिख पड़े।4।81।150।

गउड़ी महला ५ ॥ बिखै राज ते अंधुला भारी ॥ दुखि लागै राम नामु चितारी ॥१॥

पद्अर्थ: बिखै राज ते = विषौ-विकारों के प्रभाव से। अंधुला = (विकारों में) अंधा। दुखि = दुख में। लागै = लगता है, फसता है। चितारी = चितारता है।1।

अर्थ: (हे भाई!) विषियों के प्रभाव से (मनुष्य विकारों में) बहुत अंधा हो जाता है (तब उसे परमात्मा का नाम कभी नहीं सूझता, पर विकारों के कारण जब वह) दुख में फंसता है, तब परमात्मा का नाम याद करता है।1।

तेरे दास कउ तुही वडिआई ॥ माइआ मगनु नरकि लै जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कउ = को, वास्ते। तूही = तू ही, तेरा नाम ही। मगनु = मस्त। नरकि = नर्क में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे दास के वास्ते तेरा नाम ही (लोक-परलोक में) इज्जत है। (तेरा दास जानता है कि) माया में मस्त मनुष्य को (माया) नर्क में ले जाती है (और सदा दुखी रखती है)।1। रहाउ।

रोग गिरसत चितारे नाउ ॥ बिखु माते का ठउर न ठाउ ॥२॥

पद्अर्थ: गिरसत = घिरा हुआ। बिखु = (विकारों का) जहर। माते का = मस्त हुए हुए का। ठउर ठाउ = जगह ठिकाना। नाम = निशान।2।

अर्थ: (हे भाई!) रोगों से घिरा हुआ मनुष्य परमात्मा का नाम याद करता है, पर विकारों के जहर में मस्त हुए मनुष्य के आत्मिक जीवन का कहीं नामो निशान नहीं मिलता (विकारों का जहर उसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है)।2।

चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ आन सुखा नही आवहि चीति ॥३॥

पद्अर्थ: सिउ = से। आन = अन्य। चीति = चिक्त में।3।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के) सुंदर चरणों से (जिस मनुष्य की) प्रीत बन जाती है, उसे दुनिया वाले और सुख याद नहीं आते।3।

सदा सदा सिमरउ प्रभ सुआमी ॥ मिलु नानक हरि अंतरजामी ॥४॥८२॥१५१॥

पद्अर्थ: सिमरउ = मैं स्मरण करूँ। प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हे सब के दिल की जानने वाले!।4।

अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे प्रभु! हे स्वामी! हे अंतरजामी हरि! (मुझे) मिल, मैं सदा ही तुझे स्मरण करता रहूँ।4।82।151।

गउड़ी महला ५ ॥ आठ पहर संगी बटवारे ॥ करि किरपा प्रभि लए निवारे ॥१॥

पद्अर्थ: संगी = साथी। बटवारे = वाट+मारे, राहजन, डाकू। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। लए निवारे = निवार लिए, दूर कर दिए।1।

अर्थ: (हे भाई! कामादिक पाँचों) डाकू आठों पहर (मनुष्य के साथ) साथी बने रहते हैं (और इसके आत्मिक जीवन पर डाका मारते रहते हैं। जिन्हें बचाया है) प्रभु ने स्वयं ही कृपा करके बचा लिया है।1।

ऐसा हरि रसु रमहु सभु कोइ ॥ सरब कला पूरन प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रमहु = माणो। सभ कोइ = हरेक जीव। कला = ताकत। सोइ = वह।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा सारी मुकम्मल ताकतों का मालिक है (जो मनुष्य उसका पल्ला पकड़ता है, वह किसी विकार को उसके नजदीक नहीं फटकने देता)। हरेक जीव ऐसी सामर्थ्य वाले प्रभु के नाम का रस ले।1। रहाउ।

महा तपति सागर संसार ॥ प्रभ खिन महि पारि उतारणहार ॥२॥

पद्अर्थ: तपति = तपश, जलन। सागर = समुंदर। उतारणहार = पार लंघाने की ताकत रखने वाला।2।

अर्थ: (हे भाई! कामादिक विकारों की) संसार समुंदर में बड़ी तपश पड़ रही है (इस तपश से बचने के लिए प्रभु का ही आसरा लो) प्रभु एक पल में इस जलन में से पार लंघाने की ताकत रखने वाला है।2।

अनिक बंधन तोरे नही जाहि ॥ सिमरत नाम मुकति फल पाहि ॥३॥

पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। मुकति = खलासी, मुक्ति। पाहि = प्राप्त कर लेते हैं।3।

अर्थ: (हे भाई! माया के मोह के ये विकार आदिक) अनेक बंधन हैं (मनुष्य के अपने प्रयत्नों से ये बंधन) तोड़े नहीं जा सकते। पर परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए इन बंधनों से निजात-रूपी फल हासिल कर लेते हैं।3।

उकति सिआनप इस ते कछु नाहि ॥ करि किरपा नानक गुण गाहि ॥४॥८३॥१५२॥

पद्अर्थ: उकति = युक्ति, दलील। इस ते = इस जीव से। करि किरपा = मेहर कर। गाहि = गा सकते हैं।4।

नोट: ‘इस ते’ में से ‘इसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है।

अर्थ: हे नानक! (प्रभु-दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) इस जीव की कोई ऐसी सियानप, कोई ऐसी दलील नहीं चल सकती (जिससे ये इन डाकूओं के पँजे से बच सके। हे प्रभु! तू स्वयं) कृपा कर, जीव तेरे गुण गाएं (और इनसे बच सकें)।4।83।152।

गउड़ी महला ५ ॥ थाती पाई हरि को नाम ॥ बिचरु संसार पूरन सभि काम ॥१॥

पद्अर्थ: थाती = धन की थैली। को = का। बिचरु = चल फिर। सभि = सारे।1।

अर्थ: (हे भाई! अगर तूने परमात्मा की कृपा से) परमात्मा के नाम धन की थैली हासिल कर ली है, तो तू संसार के कार्य-व्यवहारों में भी (निसंग हो कर) विचर। तेरे सारे काम सिरे चढ़ जाएंगे।1।

वडभागी हरि कीरतनु गाईऐ ॥ पारब्रहम तूं देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: वड भागी = बड़े भाग्यों से। पारब्रहम = हे पारब्रह्म! तू = तुम।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा का गीत बड़े भाग्यों से गाया जा सकता है। हे पारब्रहम् प्रभु! अगर तू स्वयं हम जीवों को अपनी महिमा की दाति दे तो ही हमें मिल सकती है।1। रहाउ।

हरि के चरण हिरदै उरि धारि ॥ भव सागरु चड़ि उतरहि पारि ॥२॥

पद्अर्थ: उरि = उरस्, हृदय में। भव सागरु = संसार समुंदर। चढ़ि = (प्रभु चरणों के जहाज पे) चढ़ के।2।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के चरण अपने हृदय में दिल में टिकाए रख। (प्रभु चरण-रूपी जहाज पर) चढ़ के तू संसार समुंदर से पार लांघ जाएगा।2।

साधू संगु करहु सभु कोइ ॥ सदा कलिआण फिरि दूखु न होइ ॥३॥

पद्अर्थ: साधू संगु = गुरु की संगति। सभु कोइ = हरेक मनुष्य। कलिआण = सुख।3।

अर्थ: (हे भाई!) हरेक प्राणी गुरु की संगति करो। (गुरु की संगति में रहने से) सदा सुख ही सुख होंगे, दुबारा कोई दुख व्याप नहीं सकेगा।3।

प्रेम भगति भजु गुणी निधानु ॥ नानक दरगह पाईऐ मानु ॥४॥८४॥१५३॥

पद्अर्थ: गुणी निधान = गुणों का खजाना प्रभु। मानु = आदर।4।

अर्थ: हे नानक! प्रेम-भरी भक्ति से सारे गुणों के खजाने परमात्मा का भजन कर, (इस तरह) परमात्मा की हजूरी में आदर-सत्कार मिलता है।4।84।153।

गउड़ी महला ५ ॥ जलि थलि महीअलि पूरन हरि मीत ॥ भ्रम बिनसे गाए गुण नीत ॥१॥

पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही+तलि, धरती के तल पर, आकाश में। हरि मीत गुण = प्रभु मित्र के गुण। नीत = सदा। भ्रम = भटकना।1।

अर्थ: (हे भाई!) जो प्रभु-मित्र जल में, धरती में, आकाश में, हर जगह व्यापक है, उसके गुण सदा गाने से सब किस्म की भटकनें नाश हो जाती है।1।

ऊठत सोवत हरि संगि पहरूआ ॥ जा कै सिमरणि जम नही डरूआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संगि = (जीव के) नाल। पहरूआ = राख। जा कै सिमरणि = जिस के स्मरण से। जम डरूआ = मौत का डर।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के नाम जपने की इनायत से मौत का डर नहीं रह जाता (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटक सकती), वह परमात्मा हर समय जीव के साथ रखवाला है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh