श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ तूं समरथु तूंहै मेरा सुआमी ॥ सभु किछु तुम ते तूं अंतरजामी ॥१॥

पद्अर्थ: समरथु = समर्थ, सारी ताकतों का मालिक, सब कुछ करने योग्य। सुआमी = मालिक। तुम ते = तुझ से, तेरी मर्जी से। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।1।

अर्थ: (हे पारब्रह्म!) तू सब ताकतों का मालिक है, तू ही मेरा मालिक है (मुझे तेरा ही आसरा है)। तू सबके दिल की जानने वाला है। जो कुछ जगत में हो रहा है तेरी प्रेरणा से ही हो रहा है।1।

पारब्रहम पूरन जन ओट ॥ तेरी सरणि उधरहि जन कोटि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रह्म प्रभु! पूरन = हे सर्व व्यापक प्रभु! जन = सेवक। उधरहि = (संसार समुंदर से) बच जाते हैं। कोटि = करोड़ों।1। रहाउ।

अर्थ: हे सर्व-व्यापक पारब्रह्म प्रभु! तेरे सेवकों को तेरा ही आसरा होता है। करोड़ों ही मनुष्य तेरी शरण पड़ कर (संसार समुंदर से) बच जाते हैं।1। रहाउ।

जेते जीअ तेते सभि तेरे ॥ तुमरी क्रिपा ते सूख घनेरे ॥२॥

पद्अर्थ: जेते तेते = जितने भी हैं वे सारे। तेते = उतने, तितने। सभि = सारे। घनेरे = अनेक।2।

अर्थ: (हे पारब्रह्म! जगत में) जितने भी जीव हैं, सारे तेरे ही पैदा किए हुए हैं। तेरी मेहर से ही (जीवों को) अनेक सुख मिल रहे हैं।2।

जो किछु वरतै सभ तेरा भाणा ॥ हुकमु बूझै सो सचि समाणा ॥३॥

पद्अर्थ: तेरा भाणा = तेरी रजा, जो कुछ तुझे पसंद आता है। सचि = सदा स्थिर नाम में।3।

अर्थ: (हे पारब्रहम्! संसार में) जो कुछ घटित हो रहा है, वही घटित होता है जो तुझे अच्छा लगता है। जो मनुष्य तेरी रजा को समझ लेता है, वह तेरे सदा स्थिर रहने वाले नाम में लीन रहता है।3।

करि किरपा दीजै प्रभ दानु ॥ नानक सिमरै नामु निधानु ॥४॥६६॥१३५॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! नानक = हे नानक! निधानु = खजाना।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मेहर कर के अपने नाम की दाति बख्श, ता कि तेरा दास नानक तेरा नाम स्मरण करता रहे (तेरा नाम ही तेरे दास के वास्ते सब सुखों का) खजाना है।4।66।135।

गउड़ी महला ५ ॥ ता का दरसु पाईऐ वडभागी ॥ जा की राम नामि लिव लागी ॥१॥

पद्अर्थ: राम नामि = राम के नाम में। लिव = लगन।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य की लगन परमात्मा के नाम में लगी रहती है, उसका दर्शन बड़े भाग्यों से मिलता है।1।

जा कै हरि वसिआ मन माही ॥ ता कउ दुखु सुपनै भी नाही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माही = में, माहि। ता कउ = उस (मनुष्य) को।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में (सदा) परमात्मा (का नाम) बसा रहता है, उस मनुष्य को कभी सपने में भी (कोई) दुख छू नहीं सकता।1। रहाउ।

सरब निधान राखे जन माहि ॥ ता कै संगि किलविख दुख जाहि ॥२॥

पद्अर्थ: निधान = खजाने। किलविख = पाप।2।

अर्थ: (हे भाई! नाम की लगन वाले) सेवक (के हृदय में) (परमात्मा) सारे (आत्मिक गुणों के) खजाने डाल के रखता है। ऐसे सेवक की संगति में रहने से पाप और दुख दूर हो जाते हैं।2।

जन की महिमा कथी न जाइ ॥ पारब्रहमु जनु रहिआ समाइ ॥३॥

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, बड़प्पन, आत्मिक उच्चता। जनु = सेवक।3।

अर्थ: (हे भाई! ऐसे) सेवक की आत्मिक उच्चता बयान नहीं की जा सकती। वह सेवक उस पारब्रहम् का रूप बन जाता है जो सब जीवों में व्यापक है।3।

करि किरपा प्रभ बिनउ सुनीजै ॥ दास की धूरि नानक कउ दीजै ॥४॥६७॥१३६॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! बिनउ = विनती। सुनीऐ = सुनो। कउ = को।4।

अर्थ: (हे नानक! कह:) हे प्रभु! मेरी विनती सुन। मेहर करके मुझ नानक को अपने ऐसे सेवक के चरणों की धूल दे।4।67।136।

गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत तेरी जाइ बलाइ ॥ सरब कलिआण वसै मनि आइ ॥१॥

पद्अर्थ: जाइ = चली जाएगी। बलाइ = वैरन। कलिआण = सुख। सरब कलिआण = सारे ही सुख।1।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का स्मरण करते हुए तेरी वैरन (माया डायन) तुझसे परे हट जाएगी। (अगर परमात्मा का नाम तेरे) मन में आ बसे तो (तेरे अंदर) सारे सुख (आ बसेंगे)।1।

भजु मन मेरे एको नाम ॥ जीअ तेरे कै आवै काम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन मेरे = हे मेरे मन! जीअ कै कामि = जीवात्मा के काम।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! एक परमात्मा का ही नाम स्मरण करता रह। ये नाम ही तेरी जीवात्मा के काम आएगा (जिंद के साथ निभेगा)।1। रहाउ।

रैणि दिनसु गुण गाउ अनंता ॥ गुर पूरे का निरमल मंता ॥२॥

पद्अर्थ: रैणि = रात। गुण अनंता = बेअंत प्रभु के गुण। निरमल = पवित्र। मंता = उपदेश।2।

अर्थ: (हे भाई!) पूरे गुरु का पवित्र उपदेश ले, और दिन रात बेअंत परमात्मा के गुण गाया कर।2।

छोडि उपाव एक टेक राखु ॥ महा पदारथु अम्रित रसु चाखु ॥३॥

पद्अर्थ: उपाव = उपाय। टेक = आसरा। महा पदारथु = सब से श्रेष्ठ पदार्थ।3।

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई! संसार समुंदर से पार लांघने के लिए) और सारे तरीके छोड़, और एक परमात्मा (के नाम) का आसरा रख। आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस चख - यही है सब पदार्थों से श्रेष्ठ पदार्थ।3।

बिखम सागरु तेई जन तरे ॥ नानक जा कउ नदरि करे ॥४॥६८॥१३७॥

पद्अर्थ: बिखम = विषम, मुश्किल। तेई जन = वही लोग। नदरि = निगाह।4।

अर्थ: हे नानक! वही मनुष्य मुश्किल (संसार) समुंदर से (आत्मिक पूंजी समेत) पार लांघते हैं, जिस पे (परमात्मा खुद मेहर की) नजर करता है।4।68।137।

गउड़ी महला ५ ॥ हिरदै चरन कमल प्रभ धारे ॥ पूरे सतिगुर मिलि निसतारे ॥१॥

पद्अर्थ: चरन कमल प्रभ = प्रभु के कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। सतिगुर मिलि = गुरु को मिल के। निसतारे = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए।1।

अर्थ: (हे मेरे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के चरण अपने हृदय में टिकाते हैं, पूरे सतगुरू को मिल के वह (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।1।

गोविंद गुण गावहु मेरे भाई ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! साधू = गुरु। धिआई = ध्यान लगा के, स्मरण कर।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे भाई! गोबिंद की महिमा के गीत गाते रहो। गुरु को मिल के परमात्मा का नाम स्मरण करो।1। रहाउ।

दुलभ देह होई परवानु ॥ सतिगुर ते पाइआ नाम नीसानु ॥२॥

पद्अर्थ: देह = शरीर, मानव शरीर। दुलभ = जो बड़ी मुश्किल से मिलता है। ते = से। नीसानु = परवाना, राहदारी।2।

अर्थ: (हे मेरे भाई! जिस मनुष्यों ने इस जीवन सफर में) सत्गुरू से परमात्मा के नाम की राहदारी हासिल कर ली है, उनका मानव शरीर- बड़ी कठनाई से मिली हुई मनुष्य देह- (परमात्मा की नजरों में) स्वीकार हो जाती है।2।

हरि सिमरत पूरन पदु पाइआ ॥ साधसंगि भै भरम मिटाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: पूरन पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ किसी कमी की गुँजाइश नहीं रहती। संगि = संगति में।3।

अर्थ: (हे मेरे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए वह मनुष्य वह आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है, जहाँ किसी कमी की संभावना नहीं रह जाती। साधु-संगत में रह के मनुष्य सारे डर सारी ही भटकनें मिटा लेता है।3।

जत कत देखउ तत रहिआ समाइ ॥ नानक दास हरि की सरणाइ ॥४॥६९॥१३८॥

पद्अर्थ: जत कत = जिधर किधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तत = तत्र, उधर (ही)।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे मेरे भाई! गुरु की शरण की इनायत से) मैं जिधर भी देखता हूँ, उधर ही परमात्मा व्यापक दिखता है। (हे भाई! प्रभु के) सेवक प्रभु की शरण में ही टिके रहते हैं।4।69।138।

गउड़ी महला ५ ॥ गुर जी के दरसन कउ बलि जाउ ॥ जपि जपि जीवा सतिगुर नाउ ॥१॥

पद्अर्थ: बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। जीवा = जीऊूं, मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर उच्च आत्मिक अवस्था पैदा होती है।1।

अर्थ: (हे भाई!) मैं सत्गुरू जी के दर्शन से सदके जाता हूँ। सतिगुरु जी का नाम याद करके मेरे अंदर उच्च आत्मिक जीवन पैदा होता है।1।

पारब्रहम पूरन गुरदेव ॥ करि किरपा लागउ तेरी सेव ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रह्म! लगउ = मैं लगा रहूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे पूरन पारब्रहम्! हे गुरदेव! कृपा कर, मैं तेरी सेवा भक्ति में लगा रहूँ।1। रहाउ।

चरन कमल हिरदै उर धारी ॥ मन तन धन गुर प्रान अधारी ॥२॥

पद्अर्थ: उर = उरस्, हृदय। गुर = गुर (चरण), गुरु के चरण। अधारी = आसरा।2।

अर्थ: (इस वास्ते, हे भाई! गुरु के) सुंदर चरण मैं अपने मन में हृदय में टिकाता हूँ। गुरु के चरण मेरे मन का, मेरे तन का, मेरे धन का, मेरी जीवात्मा का आसरा हैं।2।

सफल जनमु होवै परवाणु ॥ गुरु पारब्रहमु निकटि करि जाणु ॥३॥

पद्अर्थ: परवाणु = मंजूर, स्वीकार। निकटि = नजदीक।3।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु को पारब्रहम् प्रभु को (सदा अपने) नजदीक बसता समझ। (इस तरह तेरा मानव) जनम कामयाब हो जाएगा। तू (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाएगा।3।

संत धूरि पाईऐ वडभागी ॥ नानक गुर भेटत हरि सिउ लिव लागी ॥४॥७०॥१३९॥

पद्अर्थ: संत धूरि = गुरु संत के चरणों की धूल। गुर भेटत = गुरु को मिल के।4।

अर्थ: हे नानक! गुरु संत के चरणों की धूल बड़े भाग्यों से मिलती है। गुरु को मिलने से परमात्मा (के चरणों) के साथ लगन लग जाती है।4।70।139।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh