श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सचा साहु सचे वणजारे ओथै कूड़े ना टिकंनि ॥ ओना सचु न भावई दुख ही माहि पचंनि ॥१८॥

पद्अर्थ: वणजारे = व्यापार करने वाला। ओथै = उस शाह के दरबार में। कूड़े = माया के साथ ही प्यार करने वाले। टिकंनि = टिक सकते। न भावई = न भाए, पसंद नहीं आता। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। पचंनि = ख्वार होते हैं।18।

अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम की पूंजी का मालिक) शाह-प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसके नाम का व्यापार करने वाले भी अटल आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। पर उस शाह के दरबार में झूठी दुनिया के बनजारे नहीं टिक सकते। उन्हें सदा-स्थिर प्रभु का नाम पसंद नहीं आता, और वे सदा दुख में ही ख्वार होते रहते हैं।18।

हउमै मैला जगु फिरै मरि जमै वारो वार ॥ पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहार ॥१९॥

पद्अर्थ: मैला = मैले मन वाला। वारो वार = बार बार। पइऐ किरति = किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार।19।

अर्थ: हे भाई! अहंकार (की मैल) से मैला हुआ ये जगत भटक रहाप है, बार बार जनम-मरन के चक्कर में रहता है, पिछले जन्मों के किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार वैसे ही और कर्म किए जाता है। (कर्मों के बनी इस फाँसी को) कोई मिटा नहीं सकता।19।

संता संगति मिलि रहै ता सचि लगै पिआरु ॥ सचु सलाही सचु मनि दरि सचै सचिआरु ॥२०॥

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सलाही = महिमा कर। मनि = मन में। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। सचिआरु = सुखरू।20।

अर्थ: हे भाई! अगर मनुष्य साधु-संगत में टिका रहे, तो इसका प्यार सदा-स्थिर प्रभु में बन जाता है। हे भाई! तू (साधु-संगत में टिक के) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा किया कर, सदा-स्थिर प्रभु को अपने मन में बसा ले, (इस तरह) सदा-स्थिर प्रभु के दर पे सही स्वीकार होगा।20।

गुर पूरे पूरी मति है अहिनिसि नामु धिआइ ॥ हउमै मेरा वड रोगु है विचहु ठाकि रहाइ ॥२१॥

पद्अर्थ: पूरी = बगैर किसी कमी के। अहि = दिन। निसि = रात। ठाकि रहाइ = रोक के रखता है।21।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की मति किसी (भी तरह की) कमी के बग़ैर है। (जो मनुष्य गुरु की पूरी मति ले के) दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरण करता है, वह मनुष्य अहंकार और ममता के बड़े रोग को अपने अंदर से रोक देता है।21।

गुरु सालाही आपणा निवि निवि लागा पाइ ॥ तनु मनु सउपी आगै धरी विचहु आपु गवाइ ॥२२॥

पद्अर्थ: सालाही = मैं महिमा करूँ। निवि = झुक के। लागा = लगूँ। पाइ = पैरों पर। सउपी = मैं सौंप दूँ। धरी = धर दूं। आपु = स्वै भाव। गवाइ = गवा के, दूर कर के।22।

अर्थ: हे भाई! (यदि प्रभु मेहर करे तो) मैं अपने गुरु की बड़ाई करूँ, झुक झुक के मैं गुरु के चरणों में लगूँ, अपने अंदर से अहंकार को दूर करके अपना मन अपना तन गुरु के हवाले करि दूँ, गुरु के आगे रख दूँ।22।

खिंचोताणि विगुचीऐ एकसु सिउ लिव लाइ ॥ हउमै मेरा छडि तू ता सचि रहै समाइ ॥२३॥

पद्अर्थ: खिंचोताणि = खींचोतान में, डाँवा डोल हालत में। विगुचीऐ = ख्वार होते हैं। लिव लाइ = प्यार जोड़। मेरा = ममता। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।23।

अर्थ: हे भाई! डाँवा-डोल हालत में रहने से दूखी ही हुआ जाता है। एक परमात्मा के साथ ही तवज्जो जोड़े रख। अपने अंदर से अहंकार दूर कर, ममता दूर कर। (जब मनुष्य अहंकार-ममता दूर करता है) तब सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन हुआ रहता है।23।

सतिगुर नो मिले सि भाइरा सचै सबदि लगंनि ॥ सचि मिले से न विछुड़हि दरि सचै दिसंनि ॥२४॥

पद्अर्थ: ने = को। सि = वह मनुष्य (‘से’ है बहुवचन)। भाइरा = (मेरे) भाई। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में। लगंनि = लगते हैं, चिक्त जोड़ते हैं। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। दरि सचै = सदा थिर प्रभु के दर पर।24।

अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य (मेरे) भाई हैं, जो गुरु की शरण में आ पड़े हैं, और सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में चिक्त जोड़ते हैं। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में लीन हो जाते हैं, वह (फिर प्रभु से) नहीं विछुड़ते। वह सदा-स्थिर प्रभु के दर पे (टिके हुए) दिखते हैं।24।

से भाई से सजणा जो सचा सेवंनि ॥ अवगण विकणि पल्हरनि गुण की साझ करंन्हि ॥२५॥

पद्अर्थ: से = वह मनुष्य (बहुवचन)। सेवंनि = स्मरण करते हैं। विकणि = बिकने से। अवगण विकणि = अवगुणों के बिक जाने से। पल्रनि = प्रफुल्लित होते हैं।25।

अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य मेरे भाई हैं मित्र हैं, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। (गुणों के बदले) अवगुण बिक जाने से (दूर हो जाने से) वह मनुष्य (आत्मिक जीवन में) प्रफुल्लित होते हैं, वह मनुष्य परमात्मा के गुणों से सांझ पाते हैं।25।

गुण की साझ सुखु ऊपजै सची भगति करेनि ॥ सचु वणंजहि गुर सबद सिउ लाहा नामु लएनि ॥२६॥

पद्अर्थ: सची भगति = सदा कायम रहने वाली हरि भक्ति। करंन्हि = करते हैं। वणंजहि = व्यापार करते हैं। सिउ = साथ, से। लाहा = लाभ। लएनि = लेते हैं।26।

अर्थ: हे भाई! गुरु से (आत्मिक) सांझ की इनायत से (उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, वह परमात्मा की अटल रहने वाली भक्ति करते रहते हैं। वह मनुष्य गुरु के शब्द से सदा-स्थिर प्रभु के नाम का व्यापार करते हैं और हरि-नाम (का) लाभ कमाते हैं।26।

सुइना रुपा पाप करि करि संचीऐ चलै न चलदिआ नालि ॥ विणु नावै नालि न चलसी सभ मुठी जमकालि ॥२७॥

पद्अर्थ: रुपा = चाँदी। संचीऐ = इकट्ठा किया जाता है। न चलसी = नहीं चलेगा। सभ = सारी सृष्टि। मुठी = लूट ली। जमकालि = जम काल ने, मौत ने, आत्मिक मौत ने।27।

अर्थ: हे भाई! (कई किस्म के) पाप कर कर के सोना-चाँदी (आदि धन) इकट्ठा करते हैं, पर (जगत से) चलने के वक्त (वह धन मनुष्य के) साथ नहीं जाता। परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी चीज मनुष्य के साथ नहीं जाएगी। नाम से विहीन सारी दुनिया आत्मिक मौत के हाथों से लूटी जाती है (अपना आत्मिक जीवन लुटा बैठती है)।27।

मन का तोसा हरि नामु है हिरदै रखहु सम्हालि ॥ एहु खरचु अखुटु है गुरमुखि निबहै नालि ॥२८॥

पद्अर्थ: तोसा = रास्ते का खर्च। समालि = संभाल के। अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है।28।

अर्थ: हे भाई! मनुष्य के मन के लिए परमात्मा का नाम ही (जीवन-यात्रा का) खर्च है। इस यात्रा-खर्च को अपने हृदय में संभाल के रखो। ये खर्च कभी समाप्त होने वाला नहीं है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है, उसके साथ ये सदा के लिए साथ बनाता है।28।

ए मन मूलहु भुलिआ जासहि पति गवाइ ॥ इहु जगतु मोहि दूजै विआपिआ गुरमती सचु धिआइ ॥२९॥

पद्अर्थ: मूलहु = मूल से, परमात्मा से। जासहि = जाएगा। पति = इज्जत। गवाइ = गवा के। मोह = मोह में। मोहि दूजे = दूसरे के मोह में, माया के मोह में। विआपिआ = फसा हुआ है। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा।29।

अर्थ: जगत के मूल परमात्मा से टूटे हुए ऐ मन! (अगर तू इसी तरह टूटा रहा तो) अपनी इज्जत गवा के (यहाँ से) जाएगा। ये जगत तो माया के मोह में फसा हुआ है (तू इससे मोह छोड़ दे, और) गुरु की मति पर चल के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरण किया कर।29।

हरि की कीमति ना पवै हरि जसु लिखणु न जाइ ॥ गुर कै सबदि मनु तनु रपै हरि सिउ रहै समाइ ॥३०॥

पद्अर्थ: जसु = शोभा, बड़ाई। कै सबदि = के शब्द में। सिउ = साथ।30।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। परमात्मा की महिमा बयान नहीं की जा सकती। जिस मनुष्य का मन और तन गुरु के शब्द में रंगा जाता है, वह सदा परमात्मा में लीन रहता है।30।

सो सहु मेरा रंगुला रंगे सहजि सुभाइ ॥ कामणि रंगु ता चड़ै जा पिर कै अंकि समाइ ॥३१॥

पद्अर्थ: सहु = शहु, पति प्रभु। रंगुला = रंगीला, आनंद स्वरूप। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। कामणि = जीव-स्त्री। रंगु = प्रेम रंग। ता = तब। जा = जब। कै अंकि = की गोद में, के चरणों में।31।

अर्थ: हे भाई! मेरा वह पति-प्रभु आनंद स्वरूप है (जो मनुष्य उसके चरणों में आ जुड़ता है) उसको वह आत्मिक अडोलता में, प्रेम रंग में रंग देता है। जब कोई जीव-स्त्री उस पति-प्रभु के चरणों में लीन हो जाती है, तब उस (की जिंद) को प्रेम-रंग चढ़ जाता है।31।

चिरी विछुंने भी मिलनि जो सतिगुरु सेवंनि ॥ अंतरि नव निधि नामु है खानि खरचनि न निखुटई हरि गुण सहजि रवंनि ॥३२॥

पद्अर्थ: मिलनि = मिल जाते हैं। सेवंनि = शरण पड़ते हैं। अंतरि = (हरेक के) अंदर। नवनिधि = धरती के सारे नौ खजाने। खानि = खाते हैं। खरचनि = खर्चते हैं। रवंनि = स्मरण करते हैं।32।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वह (प्रभु से) चिरों से विछुड़े हुए भी (प्रभु को) आ मिलते हैं। परमात्मा का नाम (जो, मानो धरती के सारे) नौ खजाने (हैं, उनको) अपने अंदर ही मिल जाते हैं। उस नाम-खजाने को वे खुद इस्तेमाल करते हैं, और लोगों को बाँटते हैं, वह फिर भी खत्म नहीं होता। आत्मिक अडोलता में टिक के वह मनुष्य परमात्मा के गुण याद करते रहते हैं।32।

ना ओइ जनमहि ना मरहि ना ओइ दुख सहंनि ॥ गुरि राखे से उबरे हरि सिउ केल करंनि ॥३३॥

पद्अर्थ: ओइ = वह, वे। सहंनि = सहते हैं। गुरि = गुरु ने। उबरे = (जन्म मरन के चक्कर में से) बच गए। सिउ = साथ। केल = आनंद।33।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण आ पड़े) वे मनुष्य ना तो पैदा होते हैं ना मरते हैं, ना ही वे (जनम-मरण के चक्कर में) दुख सहते हैं। जिनकी रक्षा गुरु ने कर दी है, वह (जन्म-मरन के चक्करों से) बच गए। वह सदा प्रभु के चरणों में जुड़ के आत्मिक आनंद पाते हैं।33।

सजण मिले न विछुड़हि जि अनदिनु मिले रहंनि ॥ इसु जग महि विरले जाणीअहि नानक सचु लहंनि ॥३४॥१॥३॥

पद्अर्थ: जि = जो। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जाणीअहि = जाने जाते हैं। सचु = सदा स्थिर प्रभु। लहंनि = लेते हैं, मेल प्राप्त करते हैं।34।

अर्थ: हे भाई! जो भले मनुष्य हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़े रहते हैं, वह प्रभु-चरणों में मिल के दोबारा कभी नहीं विछुड़ते। पर, हे नानक! इस जगत में ऐसे विरले बंदे ही उघड़ते हैं, जो सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का मिलाप प्राप्त करते हैं।34।1।3।

सूही महला ३ ॥ हरि जी सूखमु अगमु है कितु बिधि मिलिआ जाइ ॥ गुर कै सबदि भ्रमु कटीऐ अचिंतु वसै मनि आइ ॥१॥

पद्अर्थ: सूखमु = सूक्ष्म, बहुत बारीक, अदृश्य। अगम = अगम्य, अगम्य (पहुँच से परे)। कितु बिधि = किस तरीके से? कै सबदि = के शब्द से। अचिंतु = हमारी सोचों विचारों के बिना ही, सहज सुभाय। मनि = मन में। आइ = आ के।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अदृश्य है अगम्य (पहुँच से परे) है, (फिर) उसको किस तरीके से मिला जा सकता है? हे भाई! जब गुरु के शब्द की इनायत से (मनुष्य के अंदर से उसके मन की) भटकना कट जाती है, तब परमात्मा सहज स्वभाव ही (खुद ही मनुष्य के) मन में आ बसता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh