श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु सूही महला ३ घरु १०    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दुनीआ न सालाहि जो मरि वंञसी ॥ लोका न सालाहि जो मरि खाकु थीई ॥१॥

पद्अर्थ: मरि वंञसी = मर जाएगी। मरि = मर के। खाकु = मिट्टी। थीई = हो जाएगी।1।

अर्थ: हे भाई! दुनिया की खुशामदें ना करता फिर, दुनिया तो नाश हो जाएगी। लोगों की महिमा भी ना गाता फिर, सृष्टि भी मर के मिट्टी हो जाएगी।1।

वाहु मेरे साहिबा वाहु ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सचा वेपरवाहु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: वाहु = धन्य, साराहनीय। साहिबा = हे मालिक! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सलाहीऐ = महिमा करनी चाहिए। सचा = सदा कायम रहने वाला। वेपरवाहु = बेमुथाज।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मालिक! तू धन्य है! तू ही सराहनीय है! हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर सदा उस परमात्मा की महिमा करनी चाहिए जो सदा कायम रहने वाला है, और जिस को किसी की अधीनता नहीं है।1। रहाउ।

दुनीआ केरी दोसती मनमुख दझि मरंनि ॥ जम पुरि बधे मारीअहि वेला न लाहंनि ॥२॥

पद्अर्थ: केरी = की। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दझि = जल के। मरंनि = मरते हैं। जम पुरि = जम की पुरी में। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं। वेला = मानव जन्म का अवसर। न लाहंनि = नहीं प्राप्त कर सकते।2।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य दुनिया की मित्रता में ही जल मरते हैं (आत्मि्क जीवन को जला के राख कर लेते हैं। अंत में) जमराज के दर पर चोटें खाते हैं। तब उन्हें (हाथों से फिसल चुका मानव जन्म का) समय नहीं मिलता।2।

गुरमुखि जनमु सकारथा सचै सबदि लगंनि ॥ आतम रामु प्रगासिआ सहजे सुखि रहंनि ॥३॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। सकारथा = सफल। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में। आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखि = आनंद में।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है, क्योंकि वे सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में जुड़े रहते हैं। उनके अंदर सर्व-व्यापक परमात्मा का प्रकाश हो जाता है। वे आत्मिक अडोलता में आनंद में मगन रहते हैं।3।

गुर का सबदु विसारिआ दूजै भाइ रचंनि ॥ तिसना भुख न उतरै अनदिनु जलत फिरंनि ॥४॥

पद्अर्थ: दूजे भाइ = माया के प्यार में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की वाणी को भुला देते हैं, वे माया के मोह में मस्त रहते हैं, उनके अंदर से माया की प्यास-भूख दूर नहीं होती, वे हर वक्त (तृष्णा की आग में) जलते फिरते हैं।4।

दुसटा नालि दोसती नालि संता वैरु करंनि ॥ आपि डुबे कुट्मब सिउ सगले कुल डोबंनि ॥५॥

पद्अर्थ: करंनि = करते हैं। दुसट = दुष्कर्मी, बुरे लोग। सिउ = समेत। डोबंनि = डुबा देते हैं।5।

अर्थ: ऐसे मनुष्य बुरे लोगों से मित्रता बनाए रखते हैं, और संतों से वैर कमाते हैं। वे खुद अपने परिवार समेत (संसार समुंदर में) डूब जाते हैं, अपनी कुलों को भी (अपने ही अन्य रिश्तेदारों को भी) साथ में ही डुबा लेते हैं।5।

निंदा भली किसै की नाही मनमुख मुगध करंनि ॥ मुह काले तिन निंदका नरके घोरि पवंनि ॥६॥

पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख। नरके घोरि = घोर नर्क में, भयानक नर्क में। पवंनि = पड़ते हैं।6।

अर्थ: हे भाई! किसी की भी निंदा करनी अच्छी बात नहीं है। अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य ही निंदा किया करते हैं। (लोक-परलोक में) वही बदनामी कमाते हैं और भयानक नर्क में पड़ते हैं।6।

ए मन जैसा सेवहि तैसा होवहि तेहे करम कमाइ ॥ आपि बीजि आपे ही खावणा कहणा किछू न जाइ ॥७॥

पद्अर्थ: ए मन = हे मन! हे जीव! जैसा सेवहि = जैसी तू सेवा भक्ति करता है। तैसा होवहि = तू वैसा ही बन जाता है। तेहे = वैसे ही। कमाइ = कमा के। बीजि = (कर्मों के बीज) बीज के। आपे = आप ही। कहणा किछु न जाइ = (इस नियम में) कोई एतराज नहीं किया जा सकता।7।

अर्थ: हे (मेरे) मन! तू जैसे की सेवा-भक्ति करेगा, वैसे ही कर्म कमा के वैसा ही बन जाएगा। (प्रभु की रजा में ये नियम है कि जीव ने इस कर्म भूमि शरीर में) आप बीज के आप ही (उसका) फल खाना होता है। इस (सत्य) की उलंघ्ना नहीं की जा सकती।7।

महा पुरखा का बोलणा होवै कितै परथाइ ॥ ओइ अम्रित भरे भरपूर हहि ओना तिलु न तमाइ ॥८॥

पद्अर्थ: किते परथाइ = किसी प्रसंग के अनुसार। ओइ = वह, वे (महा पुरुख)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। हहि = होते हैं। तमाइ = लालच, अपनी गरज़।8।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: (उच्च आत्मिक अवस्था वाले) महापुरुषों के वचन किसी प्रसंग के अनुसार होते हैं। वे महापुरुख आत्मिक जीवन देने वाले नाम-रस से भरपूर रहते हैं, उन्हें किसी सेवा आदि का लालच नहीं होता (पर जो मनुष्य उनकी सेवा करता है, उसे उनसे आत्मिक जीवन मिल जाता है)।8।

गुणकारी गुण संघरै अवरा उपदेसेनि ॥ से वडभागी जि ओना मिलि रहे अनदिनु नामु लएनि ॥९॥

पद्अर्थ: गुणकारी = गुण करने वाला, उपकारी, गुरमुखि। संघरै = एकत्र करता है। उपदेसेनि = उपदेश देते हैं। सो = वह (बहुवचन)। जि = जो। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लएनि = लेते हैं।9।

अर्थ: वह महापुरुख और लोगों को भी (नाम जपने का) उपदेश करते हैं। गुण ग्रहण करने वाला मनुष्य (उनसे) गुण ग्रहण कर लेता है। सो, जो मनुष्य उन महापुरुषों की संगति में रहते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हो जाते हैं, वे भी हर वक्त नाम जपने लग जाते हैं।9।

देसी रिजकु स्मबाहि जिनि उपाई मेदनी ॥ एको है दातारु सचा आपि धणी ॥१०॥

पद्अर्थ: देसी = देगा। संबाहि = अपना के। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। मेदनी = सृष्टि। धणी = मालिक।10।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने ये सृष्टि पैदा की है वह स्वयं ही सब जीवों को रिज़क पहुँचाता है। वही स्वयं सब दातें देने वाला है। वह मालिक सदा कायम रहने वाला (भी) है।10।

सो सचु तेरै नालि है गुरमुखि नदरि निहालि ॥ आपे बखसे मेलि लए सो प्रभु सदा समालि ॥११॥

पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। नदरि निहालि = ध्यान से देख। समालि = हृदय में संभाल के रख।11।

अर्थ: हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा तेरे अंग-संग बसता है। गुरु की शरण पड़ कर तू उसको अपनी आँखें से देख ले। (जिस मनुष्य पर वह) स्वयं ही बख्शिश करता है उसको अपने आप ही (अपने चरणों में) जोड़ लेता है। हे भाई! उस प्रभु को सदा अपने दिल में बसाए रख।11।

मनु मैला सचु निरमला किउ करि मिलिआ जाइ ॥ प्रभु मेले ता मिलि रहै हउमै सबदि जलाइ ॥१२॥

पद्अर्थ: निरमला = पवित्र। सबदि = शब्द के द्वारा। जलाइ = जला के।12।

अर्थ: हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा (सदा) पवित्र है, (जब तक मनुष्य का) मन (विकारों से) मैला रहे, उस परमात्मा के साथ मिलाप नहीं हो सकता। जीव तब ही उस प्रभु के चरणों से मिल सकता है, जब प्रभु खुद गुरु के शब्द से उसके अंदर का अहंकार जला के उसको अपने साथ मिलाता है।12।

सो सहु सचा वीसरै ध्रिगु जीवणु संसारि ॥ नदरि करे ना वीसरै गुरमती वीचारि ॥१३॥

पद्अर्थ: सहु = खसम, पति। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। संसारि = संसार में। नदरि = मेहर की निगाह। गुरमती = गुरु की मति ले कर। वीचारि = हरि नाम का विचार करता है।13।

अर्थ: हे भाई! अगर वह सदा कायम रहने वाला पति-प्रभु भूल जाए, तो जगत में जीना धिक्कारयोग्य है। जिस मनुष्य पर प्रभु स्वयं मेहर की निगाह करता है, उसे प्रभु नहीं भूलता। वह मनुष्य गुरु की मति की इनायत से हरि-नाम में तवज्जो जोड़ता है।13।

सतिगुरु मेले ता मिलि रहा साचु रखा उर धारि ॥ मिलिआ होइ न वीछुड़ै गुर कै हेति पिआरि ॥१४॥

पद्अर्थ: मिलि रहा = मैं मिला रह सकता हूँ। रखा = मैं रख सकता हूँ। उर = हृदय। धारि = टिका के। कै हेति पिआरि = के प्यार हित की इनायत से।14।

अर्थ: हे भाई! (हम जीवों का कोई अपना जोर नहीं चल सकता) अगर गुरु (मुझे प्रभु से) मिला दे, तो ही मैं मिला रह सकता हूँ, और उस सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को मैं अपने हृदय में टिका के रख सकता हूँ। हे भाई! गुरु के प्यार की इनायत से जो मनुष्य प्रभु-चरणों में मिल जाए वह फिर कभी वहाँ से नहीं विछुड़ता।14।

पिरु सालाही आपणा गुर कै सबदि वीचारि ॥ मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सोभावंती नारि ॥१५॥

पद्अर्थ: पिरु सालाही = हे भाई! तू प्रभु पति की महिमा किया कर। वीचारि = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। सबदि = शब्द में। मिलि = मिल के।15।

अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ के तू भी अपने पति-प्रभु की महिमा किया कर। प्रीतम प्रभु को मिल के जिस जीव-स्त्री ने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, उसने (लोक-परलोक में) शोभा कमा ली।15।

मनमुख मनु न भिजई अति मैले चिति कठोर ॥ सपै दुधु पीआईऐ अंदरि विसु निकोर ॥१६॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। अति = बहुत। चिति = चिक्त में। सपै = साँप को। विसु = जहर। निकोर = केवल।16।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का मन परमात्मा के नाम में नहीं भीगता (हरि नाम के साथ प्यार नहीं डालता)। वह मनुष्य अपने मन में मैले और कठोर रहते हैं। अगर साँप को दूध भी पिलाया जाए, तो भी उसके अंदर केवल जहिर ही टिका रहता है।16।

आपि करे किसु आखीऐ आपे बखसणहारु ॥ गुर सबदी मैलु उतरै ता सचु बणिआ सीगारु ॥१७॥

पद्अर्थ: सबदी = शब्द से। सचु = सदा स्थिर टिकने वाला।17।

अर्थ: हे भाई! (सब जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) प्रभु स्वयं ही कर रहा है। किसको (अच्छा या बुरा) कहा जा सकता है? (गलत रास्ते पर पड़े हुए जीवों पर भी) वह स्वयं ही बख्शिश करने वाला है। जब गुरु के शब्द की इनायत से (किसी मनुष्य के मन की) मैल उतर जाती है, तो उसकी आत्मा को सदा कायम रहने वाली स्वतंत्रता मिल जाती है।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh