श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 239 गउड़ी महला ५ ॥ बिनु सिमरन जैसे सरप आरजारी ॥ तिउ जीवहि साकत नामु बिसारी ॥१॥ पद्अर्थ: आरजारी = उम्र। सर्प = सांप। जीवहि = जीते हैं। बिसारी = बिसार के।1। अर्थ: (हे भाई!) जैसे साँप की उम्र है (उम्र तो लंबी है, पर साँप हमेशा दूसरों को डंक ही मारता रहता है) इसी तरह परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के स्मरण के बिना (व्यर्थ जीवन ही) जीते हैं (मौका मिलने पर दूसरों को डंक ही मारते हैं)।1। एक निमख जो सिमरन महि जीआ ॥ कोटि दिनस लाख सदा थिरु थीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। जीआ = जीया गया, गुजारा वक्त। कोटि = करोड़ों। थिरु = कायम। थीआ = हो गया।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जो एक पलक झपकने मात्र समय भी परमात्मा के स्मरण में गुजारा जाए, वह, मानो, लाखों करोड़ों दिन (जी लिया, क्योंकि नाम जपने की इनायत से मनुष्य का आत्मिक जीवन) सदा के लिए अडोल हो जाता है।1। रहाउ। बिनु सिमरन ध्रिगु करम करास ॥ काग बतन बिसटा महि वास ॥२॥ पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। काग = कौआ। बतन = वदन, मुंह। बिसटा = गंद, विष्टा।2। अर्थ: (हे भाई!) प्रभु-स्मरण से विछुड़ के अन्य काम करने धिक्कारयोग्य ही हैं, जैसे कौए की चोंच गंदगी में ही रहती है, वैसे ही स्मरण-हीन मनुष्यों के मुंह (निंदा आदि की) गंदगी में ही रहते हैं।2। बिनु सिमरन भए कूकर काम ॥ साकत बेसुआ पूत निनाम ॥३॥ पद्अर्थ: कूकर काम = कुत्तों के कामों वाले। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। निनाम = जिनके पिता का नाम नहीं बताया जा सकता।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य वैश्याओं के पुत्रों की तरह (निर्लज) हो जाते हैं, जिनके पिता का नाम नहीं बताया जा सकता। प्रभु की याद से टूट के मनुष्य (लोभ व कामादिक में फंस के) कुत्तों जैसे कामों में प्रवृति रहते हैं।3। बिनु सिमरन जैसे सीङ छतारा ॥ बोलहि कूरु साकत मुखु कारा ॥४॥ पद्अर्थ: सीज्ञ = सींग। छतारा = भेड़। कूरु = झूठ। कारा = काला।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (सदा) झूठ बोलते हैं, हर जगह मुंह की कालिख ही कमाते हैं। परमात्मा की याद से टूट के वह (धरती पर भार ही हैं, जैसे) भेड़ों के सिर पर सींग।4। बिनु सिमरन गरधभ की निआई ॥ साकत थान भरिसट फिराही ॥५॥ पद्अर्थ: गरधभ = गदर्भ, गधा। निआई = जैसा। भरिसट भ्रष्ट, गंदे, विकारी। फिराही = फिरते हैं।5। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (कुकर्मों वाली) गंदी जगहों पर ही फिरते रहते हैं, स्मरण से टूट के वे गधे जैसी (मलीन जीवन गुजारते हैं, जैसे गधा हमेशा राख-मिट्टी में लेट के खुश होता है)।5। बिनु सिमरन कूकर हरकाइआ ॥ साकत लोभी बंधु न पाइआ ॥६॥ पद्अर्थ: हरकाइआ = पागल हुआ। बंधु = बाँध, रोक।6। अर्थ: (हे भाई!) ईश्वर से टूटे हुए मनुष्य लोभ में ग्रसे रहते हैं (उनके राह में, लाखों रुपए कमा के भी) रोक नहीं पड़ सकती, स्मरण से टूट के वो, जैसे, पागल कुत्ते बन जाते हैं (जिसका संग करते हैं, उसी को लोभ का पागलपन चिपका देते हैं)।6। बिनु सिमरन है आतम घाती ॥ साकत नीच तिसु कुलु नही जाती ॥७॥ पद्अर्थ: आतमघाती = आत्मिक जीवन को नाश करने वाला। जाती = जाति।7। अर्थ: (हे भाई!) ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य स्मरण से वंचित रह कर आत्मिक मौत ले लेता है, वह सदा नीच कर्मों में रुची रखता है, उसकी ना ऊँची कुल रह जाती है ना ही ऊँची जाति।7। जिसु भइआ क्रिपालु तिसु सतसंगि मिलाइआ ॥ कहु नानक गुरि जगतु तराइआ ॥८॥७॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु से।8। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर परमात्मा दयावान हो जाता है, उसे साधु-संगत में ला के शामिल कर लेता है, और इस तरह जगत को गुरु के द्वारा (संसार समुंदर के विकारों से) पार लंघाता है।8।7। गउड़ी महला ५ ॥ गुर कै बचनि मोहि परम गति पाई ॥ गुरि पूरै मेरी पैज रखाई ॥१॥ पद्अर्थ: बचनि = वचन से, उपदेश की इनायत से। मोहि = मैं। परम गति = सब से ऊँची आत्मिक अवस्था। गुरि = गुरु ने। पैज = लज्जा।1। अर्थ: गुरु के उपदेश पर चल के मैंने सब से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली है, (दुनिया के विकारों के मुकाबले से) पूरे गुरु ने मेरी इज्जत रख ली है।1। गुर कै बचनि धिआइओ मोहि नाउ ॥ गुर परसादि मोहि मिलिआ थाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि मिलिआ = मुझे मिला। थाउ = स्थान, ठिकाना।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के उपदेश की इनायत से मैंने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, और, गुरु की कृपा से मुझे (परमात्मा के चरणों में) जगह मिल गई है (मेरा मन प्रभु चरणों में टिका रहता है)।1। रहाउ। गुर कै बचनि सुणि रसन वखाणी ॥ गुर किरपा ते अम्रित मेरी बाणी ॥२॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। रसन = जीभ (से)। वखाणी = मैं बखान करता हूँ। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी। मेरी = मेरी (राशि पूंजी बन गई है)।2। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के उपदेश द्वारा (परमात्मा की महिमा) सुन के मैं अपनी जीभ से भी महिमा उचारता रहता हूँ, गुरु की कृपा से आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी मेरी (राशि पूंजी बन गई है)।2। गुर कै बचनि मिटिआ मेरा आपु ॥ गुर की दइआ ते मेरा वड परतापु ॥३॥ पद्अर्थ: आपु = स्वैभाव, अहम्। ते = से, साथ।3। अर्थ: गुरु के उपदेश की इनायत से (मेरे अंदर से) मेरा स्वैभाव मिट गया है, गुरु की दया से मेरा बड़ा तेज-प्रताप बन गया है (कि कोई विकार अब मेरे नजदीक नहीं फटकता)।3। गुर कै बचनि मिटिआ मेरा भरमु ॥ गुर कै बचनि पेखिओ सभु ब्रहमु ॥४॥ पद्अर्थ: भरमु = भटकना। पेखिओ = मैंने देख लिया है। सभु = हर जगह। ब्रहमु = परमात्मा।4। अर्थ: गुरु के उपदेश पर चल के मेरे मन की भटकना दूर हो गई है, और अब मैंने सर्व-व्यापी परमात्मा देख लिया है।4। गुर कै बचनि कीनो राजु जोगु ॥ गुर कै संगि तरिआ सभु लोगु ॥५॥ पद्अर्थ: राजु जोगु = राज भी और जोग भी, गृहस्थ में रहते हुए परमात्मा से मिलाप। लोगु = लोक, जगत।5। अर्थ: गुरु के उपदेश की इनायत से गृहस्थ में रह के ही मैं प्रभु-चरणों का मिलाप सुख पा रहा हूँ। (हे भाई!) गुरु की संगति में (रह के) सारा जगत ही (संसार समुंदर से) पार हो जाता है।5। गुर कै बचनि मेरे कारज सिधि ॥ गुर कै बचनि पाइआ नाउ निधि ॥६॥ पद्अर्थ: सिधि = सिद्धि, सफलता, कामयाबी। निधि = खजाना।6। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के उपदेश पर चल के मेरे सारे कामों में सफलता हो रही है, गुरु के उपदेश से मैंने परमात्मा का नाम हासिल कर लिया है (जो मेरे लिए सब कामयाबियों का) खजाना है।6। जिनि जिनि कीनी मेरे गुर की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥७॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। कीनी = की, बनाई, धारण की। कटीऐ = काटी जाती है।7। अर्थ: (हे भाई!) जिस जिस मनुष्य ने मेरे गुरु की आस (अपने मन में) धारण कर ली है, उसकी जम की फांसी कट गई हैं।7। गुर कै बचनि जागिआ मेरा करमु ॥ नानक गुरु भेटिआ पारब्रहमु ॥८॥८॥ पद्अर्थ: करमु = किस्मत, भाग्य। भेटिआ = मिल गया।8। अर्थ: हे नानक! (कह:) गुरु के उपदेश की इनायत से मेरी किस्मत जाग गई है, मुझे गुरु मिल गया है (और गुरु की मेहर से) मुझे परमात्मा मिल गया है।8।8। गउड़ी महला ५ ॥ तिसु गुर कउ सिमरउ सासि सासि ॥ गुरु मेरे प्राण सतिगुरु मेरी रासि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को। सिमरउ = स्मरण करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। सासि = साँस से। सासि सासि = हरेक साँस से। प्राण = जिंद, जिंद का आसरा। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जो गुरु मेरी जिंद का आसरा है मेरी (आत्मिक जीवन की) राशि पूंजी (का रक्षक) है, उस गुरु को मैं (अपने) हरेक श्वास के साथ-साथ याद करता रहता हूँ।1। रहाउ। गुर का दरसनु देखि देखि जीवा ॥ गुर के चरण धोइ धोइ पीवा ॥१॥ पद्अर्थ: देखि देखि = बार बार देख के। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। धोइ = धो के। पीवा = पीऊँ, मैं पीता हूँ।1। अर्थ: (हे भाई!) जैसे जैसे मैं गुरु के दर्शन करता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। जैसे जैसे मैं गुरु के चरण धोता हूँ, मुझे (आत्मिक जीवन देने वाला) नाम जल (पीने को, जपने को) मिलता है।1। गुर की रेणु नित मजनु करउ ॥ जनम जनम की हउमै मलु हरउ ॥२॥ पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। मजनु = स्नान। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मलु = मैल। हरउ = मैं दूर करता हूँ।2। अर्थ: गुरु के चरणों की धूल (मेरे वास्ते तीर्थ का जल है उस) में मैं सदा स्नान करता हूँ, और अनेक जन्मों की (एकत्र की हुई) अहंकार की मैल (अपने मन में से) दूर करता हूँ।2। तिसु गुर कउ झूलावउ पाखा ॥ महा अगनि ते हाथु दे राखा ॥३॥ पद्अर्थ: झूलावउ = मैं झुलाता हूँ। ते = से। दे = देकर।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरु ने मुझे (विकारों की) बड़ी आग में से (अपना) हाथ दे कर बचाया हुआ है, उस गुरु को मैं पंखा झलता हूँ।3। तिसु गुर कै ग्रिहि ढोवउ पाणी ॥ जिसु गुर ते अकल गति जाणी ॥४॥ पद्अर्थ: कै ग्रिहि = के घर में। ढोवउ = मैं ढोता हूँ। ते = से। अकल = कल रहित, जिसके टुकड़े नहीं हो सकते, जो घटता बढ़ता नहीं जैसे चंद्रमा की कला घटती बढ़ती हैं। गति = अवस्था, हालत।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरु से मैंने उस परमात्मा की सूझ-बूझ हासिल की है, जो कभी घटता-बढ़ता नहीं, मैं उस गुरु के घर में (हमेशा) पानी ढोता हूँ।4। तिसु गुर कै ग्रिहि पीसउ नीत ॥ जिसु परसादि वैरी सभ मीत ॥५॥ पद्अर्थ: पीसउ = मै (चक्की) पीसता हूँ। नीति = नित्य, सदा। प्रसादि = कृपा से।5। अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरु की कृपा से (पहले) वैरी (दिखाई दे रहे लोग अब) सारे मित्र प्रतीत हो रहे हैं, उस गुरु के घर में मैं हमेशा चक्की पीसता हूँ।5। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |