श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 238 जो इसु मारे तिस कउ भउ नाहि ॥ जो इसु मारे सु नामि समाहि ॥ जो इसु मारे तिस की त्रिसना बुझै ॥ जो इसु मारे सु दरगह सिझै ॥२॥ पद्अर्थ: नामि = नाम में। समाहि = लीन रहते हैं (‘समाहि’ बहुवचन है)। सिझै = कामयाब होता है।2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य इस दुबिधा को खत्म कर लेता है, उसे (दुनिया का कोई) डर सता नहीं सकता। जो जो मनुष्य इसे समाप्त कर लेते हैं, वह सारे परमात्मा के नाम में लीन हो जाते हैं। जो मनुष्य इस मेर-तेर को अपने अंदर से दूर कर लेते हैं, उनकी माया की तृष्णा समाप्त हो जाती है, वे परमात्मा की दरगाह में कामयाब हो जाते हैं।2। जो इसु मारे सो धनवंता ॥ जो इसु मारे सो पतिवंता ॥ जो इसु मारे सोई जती ॥ जो इसु मारे तिसु होवै गती ॥३॥ पद्अर्थ: पति = इज्जत। जती = कामवासना पर काबू रखने वाला। गती = ऊँची आत्मिक अवस्था।3। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य दुबिधा को मिटा लेता है, वह नाम-धन का मालिक बन जाता है, वह इज्जत वाला हो जाता है। वही असल जती है। उसको उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है।3। जो इसु मारे तिस का आइआ गनी ॥ जो इसु मारे सु निहचलु धनी ॥ जो इसु मारे सो वडभागा ॥ जो इसु मारे सु अनदिनु जागा ॥४॥ पद्अर्थ: गनी = गिना जाता है। निहचलु = विकारों के मुकाबले में अडोल। धनी = मालिक। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागा = जागता है, माया के हमलों की ओर से सुचेत रहता है।4। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य दुबिधा को मिटा लेता है, उसका जगत में आना सफल समझा जाता है, वह माया के हमलों के मुकाबले से अडोल रहता है, वही असल धनवान है। जो मनुष्य अपने अंदर से मेर-तेर दूर कर लेता है, वह बड़ा भाग्यशाली है, वह हर वक्त माया के हमलों से सुचेत रहता है।4। जो इसु मारे सु जीवन मुकता ॥ जो इसु मारे तिस की निरमल जुगता ॥ जो इसु मारे सोई सुगिआनी ॥ जो इसु मारे सु सहज धिआनी ॥५॥ पद्अर्थ: जीवन मुकता = जीवित ही विकारों से बचा हुआ, दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही विकारों से मुक्त। निरमल = पवित्र। जुगता = जीवन जुगति, रहन सहन। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज धिआनी = आत्मिक अडोलता में टिके रहने वाला।5। अर्थ: जो मनुष्य इस दुबिधा को खत्म कर लेता है, वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही विकारों से आजाद रहता है, उसका रहन-सहन सदा पवित्र होता है, वही मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ वाला है, वह सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।5। इसु मारी बिनु थाइ न परै ॥ कोटि करम जाप तप करै ॥ इसु मारी बिनु जनमु न मिटै ॥ इसु मारी बिनु जम ते नही छुटै ॥६॥ पद्अर्थ: थाइ न परै = स्वीकार नहीं होता। कोटि = करोड़ों। जाप = देवताओं को वश करने वाले मंत्रों का अभ्यास। तप = धूणियां आदि शारीरिक कष्ट। जम ते = जम से, मौत के डर से, आत्मिक मौत से।6। अर्थ: (हे भाई!) इस मेर-तेर को दूर किए बिना कोई भी मनुष्य परमात्मा की नजरों में स्वीकार नहीं होता, चाहे वह करोड़ों जप और तप आदि कर्म करता रहे। दुबिधा को मिटाए बिना मनुष्य का जन्मों का चक्र खत्म नहीं होता, जमों से निजात नहीं मिलती।6। इसु मारी बिनु गिआनु न होई ॥ इसु मारी बिनु जूठि न धोई ॥ इसु मारी बिनु सभु किछु मैला ॥ इसु मारी बिनु सभु किछु जउला ॥७॥ पद्अर्थ: सभ किछु = हरेक काम। जउला = अलग।7। अर्थ: (हे भाई!) दुबिधा दूर किए बिना मनुष्य की परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं बन सकती, मन में से विकारों की मैल नहीं धुलती। जब तक मनुष्य दुबिधा को नहीं खत्म करता, (वह) जो कुछ भी करता है मन को और विकारी बनाए जाता है और परमात्मा से दूरी बनाए रखता है।7। जा कउ भए क्रिपाल क्रिपा निधि ॥ तिसु भई खलासी होई सगल सिधि ॥ गुरि दुबिधा जा की है मारी ॥ कहु नानक सो ब्रहम बीचारी ॥८॥५॥ पद्अर्थ: क्रिपानिधि = दया का खजाना। सिधि = सिद्धि, सफलता। गुरि = गुरु ने। जा की = जिस की। ब्रहम बीचारी = परमात्मा के गुणों की विचार करने वाला।8। अर्थ: जिस मनुष्य पर दया का खजाना परमात्मा दयावान होता है, उसे दुबिधा से निजात मिल जाती है, उसे जीवन की पूरी सफलता प्राप्त हो जाती है। हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के अंदर से मेर-तेर दूर कर दी, वह परमात्मा के गुणों के विचार करने के काबिल हो गया।8।5। गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिउ जुरै त सभु को मीतु ॥ हरि सिउ जुरै त निहचलु चीतु ॥ हरि सिउ जुरै न विआपै काड़्हा ॥ हरि सिउ जुरै त होइ निसतारा ॥१॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। जुरै = जुड़ता है, प्यार पैदा करता है। सभु को = हरेक मनुष्य। त = तो, तब। निहचलु = (विकारों के हमलों की ओर से) अडोल। काढ़ा = फिक्र, चिन्ता, झोरा। विआपै = जोर डाल सकता। निसतारा = पार उतारा।1। अर्थ: (हे भाई!) जब मनुष्य परमात्मा के साथ प्यार पैदा करता है, तो उसे हरेक मनुष्य अपना मित्र दिखाई देता है, तब उसका चित्त (विकारों के हमलों के मुकाबले पर सदा) अडोल रहता है, कोई चिन्ता-फिक्र उस पर अपना जोर नहीं डाल सकती, (इस संसार समुंदर में से) उसका पार उतारा हो जाता है।1। रे मन मेरे तूं हरि सिउ जोरु ॥ काजि तुहारै नाही होरु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जोरु = जोड़, प्रीत बना। काजि = काम में। होरु = कोई और उद्यम।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! तू अपनी प्रीति परमात्मा से बना। (परमात्मा से प्रीति बनाए बगैर) कोई और उद्यम तेरे किसी काम नहीं आएगा।1। रहाउ। वडे वडे जो दुनीआदार ॥ काहू काजि नाही गावार ॥ हरि का दासु नीच कुलु सुणहि ॥ तिस कै संगि खिन महि उधरहि ॥२॥ पद्अर्थ: दुनीआदार = धनाढ। काहू काजि = किसी काम में। गावार = मूर्ख। नीच कुलु = नीच कुल वाला, नीच घराने में पैदा हुआ हुआ। सुणहि = लोग सुनते हैं। संगि = संगति में। उधरहि = (विकारों से) बच जाते हैं।2। अर्थ: (हे भाई! जगत में) जो जो बड़ी बड़ी जायदादों वाले हैं, उन मूर्खों की (कोई जयदाद आत्मिक जीवन के रास्ते में) उनके काम नहीं आती। (दूसरी तरफ) परमात्मा का भक्त चाहे छोटे कुल में भी पैदा हुआ हो, तो भी लोग उसकी शिक्षा सुनते हैं, और उसकी संगति में रह के (संसार समुंदर की विकारों की लहरों में से) एक पल में बच निकलते हैं।2। कोटि मजन जा कै सुणि नाम ॥ कोटि पूजा जा कै है धिआन ॥ कोटि पुंन सुणि हरि की बाणी ॥ कोटि फला गुर ते बिधि जाणी ॥३॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मजन = तीर्थ स्नान। जा कै सुणि नामि = जिसका नाम सुनने में। जा कै धिआन = जिसका ध्यान धरने में। सुणि = सुन के। गुर ते = गुरु से। बिधि = (मिलने का) तरीका। जाणी = जाना।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का नाम सुनने में करोड़ों तीर्थ स्नान आ जाते हैं, जिस परमात्मा का ध्यान धरने में करोड़ों देव-पूजा आ जाती हैं, जिस परमात्मा की महिमा की वाणी सुनने में करोड़ों पुण्य हो जाते हैं, गुरु से उस परमात्मा से मिलाप की विधि सीखने से ये सारे करोड़ों फल प्राप्त हो जाते हैं।3। मन अपुने महि फिरि फिरि चेत ॥ बिनसि जाहि माइआ के हेत ॥ हरि अबिनासी तुमरै संगि ॥ मन मेरे रचु राम कै रंगि ॥४॥ पद्अर्थ: फिरि फिरि = बार बार, सदा। चेत = याद कर। हेत = मोह। संगि = साथ। रचु = जुड़ा रह। रंगि = प्रेम में।4। अर्थ: (हे भाई!) अपने मन में तू सदा परमात्मा को याद रख, माया वाले तेरे सारे ही मोह नाश हो जाएंगे। हे मेरे मन! वह कभी नाश ना होने वाला परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है, तू उस परमात्मा के प्रेम-रंग में सदा जुड़ा रह।4। जा कै कामि उतरै सभ भूख ॥ जा कै कामि न जोहहि दूत ॥ जा कै कामि तेरा वड गमरु ॥ जा कै कामि होवहि तूं अमरु ॥५॥ पद्अर्थ: जा कै कामि = जिसकी सेवा से। न जोहहि = नहीं देखते। गमरु = ग़मर, तेज प्रताप। अमरु = सदीवी (चिरंकाल तक) आत्मिक जीवन वाला।5। अर्थ: (हे भाई!) जिसकी सेवा भक्ति में लगने से (माया की) सारी भूख दूर हो जाती है, और जमदूत देख भी नहीं सकते, (हे भाई!) जिसकी सेवा भक्ति की इनायत से तेरा (हर जगह) बहुत तेज प्रताप बन सकता है, और तू चिर-आत्मिक जीवन वाला बन सकता है; ।5। जा के चाकर कउ नही डान ॥ जा के चाकर कउ नही बान ॥ जा कै दफतरि पुछै न लेखा ॥ ता की चाकरी करहु बिसेखा ॥६॥ पद्अर्थ: जा के = जिस के। डान = दण्ड, सजा, दुख-कष्ट। बान = (वयस्न) एब। जा कै दफतरि = जिसके दफतर में। चाकरी = सेवा। बिसेखा = विशेष तौर पर।6। नोट: ‘जा कै’ और ‘जा के’ का फर्क ध्यान रखने योग्य है। अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के सेवक-भक्त को कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकता, कोई ऐब नहीं चिपक सकता, जिस परमात्मा के दफतर में (सेवक भक्त से किए कर्मों का कोई) हिसाब नहीं मांगा जाता (क्योंकि सेवा-भक्ति कीबरकति से उससे कोई कुकर्म होते ही नहीं) उस परमात्मा की सेवा भक्ति विशेष तौर पर करते रहो।6। जा कै ऊन नाही काहू बात ॥ एकहि आपि अनेकहि भाति ॥ जा की द्रिसटि होइ सदा निहाल ॥ मन मेरे करि ता की घाल ॥७॥ पद्अर्थ: जा कै = जिसके घर में। ऊन = कमी। अनेकहि भाति = अनेक तरीकों से। निहाल = खुश प्रसन्न। द्रिसटि = दृष्टि, नजर, निगाह। घाल = सेवा।7। अर्थ: हे मेरे मन! जिस परमात्मा के घर में किसी चीज की कमी नहीं, जो परमात्मा एक स्वयं ही स्वयं होता हुआ अनेक रूपों में प्रगट हो रहा है, जिस परमात्मा की मेहर की निगाह से हरेक जीव निहाल हो जाता है, तू उस परमात्मा की सेवा भक्ति कर।7। ना को चतुरु नाही को मूड़ा ॥ ना को हीणु नाही को सूरा ॥ जितु को लाइआ तित ही लागा ॥ सो सेवकु नानक जिसु भागा ॥८॥६॥ पद्अर्थ: चतुरु = चालाक, समझदार। मूढ़ा = मूर्ख। को = कोई मनुष्य। होणु = हीन, कमजोर। सूरा = शूरवीर। जितु = जिस (काम) में। तित ही = उसमें ही।8। नोट: ‘तित ही’ में से ‘तितु’ की मात्रा‘ु’ क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गया है। अर्थ: (पर) हे नानक! (अपने आप) ना कोई मनुष्य समझदार बन सकता है, ना कोई मनुष्य (अपनी मर्जी से) मूर्ख टिका रहता है, ना कोई शक्तिहीन है ना कोई बलवान शूरवीर है। हरेक जीव उसी तरफ ही लगा हुआ है जिस तरफ परमात्मा ने उसे लगाया हुआ है। (परमात्मा की मेहर से) जिसकी किस्मत जाग जाती है, वही उसका सेवक बनता है।8।6। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |