श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 213 पहिरै बागा करि इसनाना चोआ चंदन लाए ॥ निरभउ निरंकार नही चीनिआ जिउ हसती नावाए ॥३॥ पद्अर्थ: पहिरै = पहनता है। बागा = सफेद कपड़े। करि = कर के। चोआ = इत्र। चीनिआ = पहचाना। हस्ती = हाथी। नावाए = नहलाते हैं।3। अर्थ: मनुष्य नहा-धो के सफेद साफ कपड़े पहनता है, इत्र और चंदन आदि (शरीर को कपड़ों को) लगाता है, पर यदि मनुष्य निरभउ, निरंकार के साथ जान-पहिचान नहीं डालता तो ये सब उद्यम यूँ ही हैं जैसे कोई मनुष्य हाथी को नहलाता है (और नहाने के बाद हाथी अपने ऊपर धूल डाल लेता है)।3। जउ होइ क्रिपाल त सतिगुरु मेलै सभि सुख हरि के नाए ॥ मुकतु भइआ बंधन गुरि खोले जन नानक हरि गुण गाए ॥४॥१४॥१५२॥ पद्अर्थ: जउ = जब। त = तो। सभि = सारे। नाए = नाम में। मुकतु = (मोह से) स्वतंत्र। गुरि = गुरु ने।4। अर्थ: (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) जब परमात्मा (किसी पर) दयावान होता है, तब उसे गुरु मिलाता है (गुरु उसे नाम की दाति देता है जिस) हरि-नाम में सारे ही सुख हैं। जिस मनुष्य के (माया के मोह के) बंधन गुरु ने खोल दिए, वह मनुष्य (ही) परमात्मा के गुण गाता है।4।14।152। गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ मेरे मन गुरु गुरु गुरु सद करीऐ ॥ रतन जनमु सफलु गुरि कीआ दरसन कउ बलिहरीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! सद = सदा। रतन जनमु = कीमती मानव जन्म। गुरि = गुरु ने। कउ = को। बलिहारीऐ = बलिहार, कुर्बान।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सदा सदा ही गुरु को याद रखना चाहिए। गुरु के दर्शनों से सदके जाना चाहिए। गुरु ने (ही जीवों के) कीमती मानव जनम को फल लगाया है।1। रहाउ। जेते सास ग्रास मनु लेता तेते ही गुन गाईऐ ॥ जउ होइ दैआलु सतिगुरु अपुना ता इह मति बुधि पाईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: जेते = जितने। सास = स्वास। ग्रास = ग्रास, कौर। मन = (भाव) जीव (शब्द ‘मन’ और ‘मनु’ में फर्क याद रहे)। जउ = जब।1। अर्थ: (हे भाई!) जीव जितने भी श्वास लेता है, जितने भी ग्रास खाता है (हरेक स्वास व ग्रास के साथ-साथ) उतने ही परमात्मा के गुण गाता रहे। (पर) ये अक्ल ये मति तभी जीव को मिलती है जब प्यारा सतिगुरु दयावान हो।1। मेरे मन नामि लए जम बंध ते छूटहि सरब सुखा सुख पाईऐ ॥ सेवि सुआमी सतिगुरु दाता मन बंछत फल आईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: नामि लए = अगर नाम लिया जाए। ते = से। छूटहि = तू बच जाएगा। सेवि = सेवा भक्ति करके। मन बंछत = मन इच्छित। आईऐ = हाथ आ जाता है।2। अर्थ: हे मेरे मन! अगर तू परमात्मा का नाम स्मरण करता रहे तो यम के बंधनों से निजात पा लेगा (उन मायावी बंधनों से छूट जाएगा जो जम के वश में डालते हैं जो आत्मिक मौत ला देते हैं), और नाम स्मरण करने से सारे सुखों से श्रेष्ठ आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है। (हे भाई!) मालिक प्रभु के नाम की दाति देने वाले सतिगुरु की सेवा करके मन-इच्छित फल हाथ आ जाते हैं।2। नामु इसटु मीत सुत करता मन संगि तुहारै चालै ॥ करि सेवा सतिगुर अपुने की गुर ते पाईऐ पालै ॥३॥ पद्अर्थ: इसटु = प्यारा। सुत = पुत्र। करता नामु = कर्तार का नाम। मन = हे मन! पालै = पल्ले।3। अर्थ: हे मेरे मन! कर्तार का नाम ही तेरा असल प्यारा है, मित्र है, पुत्र है। हे मन! ये नाम ही हर समय तेरे साथ साथ रहता है। हे मन! अपने सतिगुरु की शरण पड़, कर्तार का नाम सतिगुरु से ही मिलता है।3। गुरि किरपालि क्रिपा प्रभि धारी बिनसे सरब अंदेसा ॥ नानक सुखु पाइआ हरि कीरतनि मिटिओ सगल कलेसा ॥४॥१५॥१५३॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। प्रभि = प्रभु ने। अंदेसा = फिक्र। कीरतनि = कीर्तन द्वारा।4। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर कृपालु सतिगुरु ने परमात्मा ने मेहर की उसके सारे चिन्ता-फिक्र समाप्त हो गए। जिस मनुष्य ने परमात्मा के कीर्तन में आनंद उठाया, उसके सारे दुख-कष्ट दूर हो गऐ।4।15।153। रागु गउड़ी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ त्रिसना बिरले ही की बुझी हे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: त्रिसना = लालच, माया की प्यास।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) किसी विरले मनुष्य के अंदर से तृष्णा (की आग) बुझती है।1। रहाउ। कोटि जोरे लाख क्रोरे मनु न होरे ॥ परै परै ही कउ लुझी हे ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जोरे = जोड़ता है। होरे = रोकता। परै कउ = ज्यादा धन वास्ते। लुझी हे = झगड़ता है।1। अर्थ: (साधारण हालात ये बने हुए हैं कि मनुष्य) करोड़ों रुपए कमाता है, लाखों करोड़ों रुपए एकत्र करता है (फिर भी माया के लालच से अपने) मन को रोकता नहीं (बल्कि) और ज्यादा और ज्यादा धन इकट्ठा करने के लिए (तृष्णा की आग में) जलता रहता है।1। सुंदर नारी अनिक परकारी पर ग्रिह बिकारी ॥ बुरा भला नही सुझी हे ॥२॥ पद्अर्थ: पर ग्रिह = पराए घर, पराई स्त्री। बिकार = बुरे काम। बिकारी = बुरे कर्म करने वाला।2। अर्थ: मनुष्य अपनी सुंदर स्त्री के साथ अनेक किस्मों के लाड-प्यार करता है, फिर भी पर-स्त्री संग का कु-कर्म करता है (काम-वासना में अंधे हुए हुए को) ये नहीं सूझता कि बुरा कर्म कौन सा है और अच्छा कर्म कौन सा।2। अनिक बंधन माइआ भरमतु भरमाइआ गुण निधि नही गाइआ ॥ मन बिखै ही महि लुझी हे ॥३॥ पद्अर्थ: गुण निधि = गुणों का खजाना परमात्मा। मन = हे मन! बिखै महि = विषौ विकारों में।3। अर्थ: (हे भाई! माया के मोह के) अनेक बंधनों में बंधा हुआ मनुष्य (माया की खातिर) भटकता फिरता है। माया इसे खुआर करती है, (माया के प्रभाव तले) मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा की महिमा नहीं करता। मनुष्यों के मन विषौ-विकारों की आग में जलते रहते हैं।3। जा कउ रे किरपा करै जीवत सोई मरै साधसंगि माइआ तरै ॥ नानक सो जनु दरि हरि सिझी हे ॥४॥१॥१५४॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! सोई = वही मनुष्य। साध संगि = गुरु की संगति में। दरि हरि = हरि के दर पर। सिझी है = कामयाब होता है।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वही मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी माया के मोह से अछूता रहता है, और साधु-संगत में रह के माया (के बवंडर से) पार लांघ जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के दर पर कामयाब गिना जाता है।4।1।154। गउड़ी महला ५ ॥ सभहू को रसु हरि हो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। सभहू को = सारे ही जीवों का। रसु = श्रेष्ठ आनंद। हो = हे भाई! हरि = हरि नाम।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही सब जीवों का श्रेष्ठ आनंद है।1। रहाउ। काहू जोग काहू भोग काहू गिआन काहू धिआन ॥ काहू हो डंड धरि हो ॥१॥ पद्अर्थ: काहू जोग = किसी को योग कमाने का रस है। भोग = दुनिया के पदार्थ भोगने। ध्यान = समाधि लगानी। डंड धारि = डण्डाधारी जोगी।1। अर्थ: (पर) हे भाई! (प्रभु के नाम से विछुड़ के) किसी मनुष्य को जोग कमाने का शौक पड़ गया है, किसी को दुनियावी पदार्थ भोगने का चस्का है। किसी को ज्ञान-चर्चा अच्छी लगती है, किसी को समाधियां पसंद हैं और किसी को डण्डाधारी जोगी बनना अच्छा लगता है।1। काहू जाप काहू ताप काहू पूजा होम नेम ॥ काहू हो गउनु करि हो ॥२॥ पद्अर्थ: ताप = धूणियां तपानी। होम = हवन। नेम = नित्य का काम। गउन = (धरती पर) रमते साधू बन के फिरते रहना।2। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम छोड़ के) किसी को (देवी-देवताओं के वश करने के) जाप पसंद आ रहे हैं, किसी को धूणियां तपानी अच्छी लगती हैं, किसी को देव पूजा, किसी को हवन आदि के नित्य के नियम पसंद हैं और किसी को (रमता साधु बन के) धरती पर चलते जाना अच्छा लगता है।2। काहू तीर काहू नीर काहू बेद बीचार ॥ नानका भगति प्रिअ हो ॥३॥२॥१५५॥ पद्अर्थ: तीर = काँटा, नदी का किनारा। नीर = पानी, तीर्थ स्नान। प्रिय = प्यारा।3। अर्थ: हे भाई! किसी को किसी नदी के किनारे बैठना, किसी को तीर्थ-स्नान, और किसी को वेदों की विचार पसंद है। पर, हे नानक! परमात्मा भक्ति को प्यार करने वाला है।3।2।155। गउड़ी महला ५ ॥ गुन कीरति निधि मोरी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुन कीरति = गुणों की कीर्ति, गुणों की उपमा। निधि = खजाना। मोरी = मेरी, मेरे लिए।1। रहाउ। अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे गुणों की उपमा करनी ही मेरे लिए (दुनिया के सारे पदार्थों का) खजाना है।1। रहाउ। तूंही रस तूंही जस तूंही रूप तूही रंग ॥ आस ओट प्रभ तोरी ॥१॥ पद्अर्थ: रस = दुनिया के पदार्थों का स्वाद। जस = दुनिया के यश, वडिआईयां। रंग = जगत के खेल तमाशे। प्रभ = हे प्रभु! तोरी = तेरी।1। अर्थ: (हे प्रभु!) तू ही (मेरे वास्ते दुनिया के पदार्थों के) स्वाद है। तू ही (मेरे लिए दुनिया के) मान-सम्मान है, तू ही (मेरे लिए) जगत के सुंदर रूप और रंग तमाशे है। हे प्रभु! मुझे तेरी ओट है तेरी ही आस है।1। तूही मान तूंही धान तूही पति तूही प्रान ॥ गुरि तूटी लै जोरी ॥२॥ पद्अर्थ: मान = आदर। धान = धन। पति = इज्जत। प्रान = जिंद (का सहारा)। गुरि = गुरु ने। जोरी = जोड़ दी है।2। अर्थ: (हे प्रभु!) तू ही मेरा आदर-मान है, तू ही मेरा धन है, तू ही मेरी इज्जत है, तू ही मेरी जिंद (का सहारा) है। मेरी टूटी हुई (तवज्जो) को गुरु ने (तेरे साथ) जोड़ दिया है।2। तूही ग्रिहि तूही बनि तूही गाउ तूही सुनि ॥ है नानक नेर नेरी ॥३॥३॥१५६॥ पद्अर्थ: ग्रिहि = घर में। बनि = जंगल में। गाउ = गाँव, आबादी। सुनि = सूने। नेर नेरी = नजदीक से नजदीक, बहुत नजदीक।3। अर्थ: हे प्रभु! तू ही (मुझे) घर में दिखाई दे रहा है, तू ही (मुझे) जंगल में (दिख रहा) है, तू ही (मुझे) आबादी में (दिखाई दे रहा) है, तू ही (मुझे) उजाड़ में (दिख रहा) है। हे नानक! प्रभु (हरेक जीव के) अत्यंत नजदीक बसता है।3।3।156। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |