श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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प्रभ के चाकर से भले ॥ नानक तिन मुख ऊजले ॥४॥३॥१४१॥

पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वह लोग। ऊजले = रौशन, चमकते।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: जो मनुष्य) परमात्मा के सेवक बनते हैं, वे भाग्यशाली हो जाते हैं (परमात्मा के दरबार में) उनके मुंह रौशन रहते हैं।4।3।141।

गउड़ी महला ५ ॥ जीअरे ओल्हा नाम का ॥ अवरु जि करन करावनो तिन महि भउ है जाम का ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीअ रे = हे जीव! हे जिंदे! ओला = आसरा। अवरु = अन्य। जि = जो। करन करावनो = दौड़ भाग।, करने कराने वाला। जाम का भउ = यम का डर, आत्मिक मौत का खतरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी जिंदे! परमात्मा के नाम का ही आसरा (लोक परलोक में सहायता करता है)। (नाम के बिना माया की खातिर) और जितना भी उद्यम-यत्न है उन सारे कामों में आत्मिक मौत का खतरा (बनता जाता है)।1। रहाउ।

अवर जतनि नही पाईऐ ॥ वडै भागि हरि धिआईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: जतनि = यत्न से। भागि = किस्मत से। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है।1।

अर्थ: (पर,) बड़ी किस्मत से ही परमात्मा का स्मरण किया जा सकता है (और स्मरण के बिना किसी भी) और यत्न से परमात्मा नहीं मिलता।1।

लाख हिकमती जानीऐ ॥ आगै तिलु नही मानीऐ ॥२॥

पद्अर्थ: हिकमती = हिकमतों के कारण। जानीऐ = (जगत में) प्रसिद्ध हो जाएं। आगै = परलोक में। मानीऐ = आदर मिलता है।2।

अर्थ: (अगर जगत में) लाखों चतुराईयों कर करके इज्ज़त कमा लें, परलोक में (इन हिकमतों के कारण) थोड़ा सा भी आदर नहीं मिलता।2।

अह्मबुधि करम कमावने ॥ ग्रिह बालू नीरि बहावने ॥३॥

पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार पैदा करने वाली अक्ल। बालू = रेत। नीरि = नीर ने, पानी ने। बहावने = बहा दिए।3।

अर्थ: (हे जिंदे! अगर अपनी तरफ से धार्मिक) कर्म (भी) किए जाएं (पर वह) अहंकार वाली अक्ल बढ़ाने वाले ही हों, तो वह ऐसे कर्म रेत के बने घरों की तरह ही हैं जिन्हें (बाढ़ का) पानी बहा ले गया।3।

प्रभु क्रिपालु किरपा करै ॥ नामु नानक साधू संगि मिलै ॥४॥४॥१४२॥

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) दया का श्रोत परमात्मा जिस मनुष्य पर किरपा करता है, उसे गुरु की संगति में परमात्मा का नाम मिलता है।4।4।142।

गउड़ी महला ५ ॥ बारनै बलिहारनै लख बरीआ ॥ नामो हो नामु साहिब को प्रान अधरीआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बारनै = वारने, सदके। बरीआ = वारी। हे = हे भाई! नामो = नाम ही। को = का। प्रान अधरीआ = जिंद का आसरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं (परमात्मा के नाम से) लाखों बार सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। मालिक प्रभु का नाम ही नाम जीवों की जिंदों का आसरा है।1। रहाउ।

करन करावन तुही एक ॥ जीअ जंत की तुही टेक ॥१॥

पद्अर्थ: तूही = हे प्रभु! तू ही। जीअ टेक = जीवों का आसरा।1।

अर्थ: हे प्रभु! सिर्फ तू ही सब कुछ करने की ताकत रखता है, जीवों से करवाने की स्मर्था रखता है, तू ही सारे जीव-जंतुओं का सहारा है।1।

राज जोबन प्रभ तूं धनी ॥ तूं निरगुन तूं सरगुनी ॥२॥

पद्अर्थ: धनी = मालिक। निरगुनी = माया के गुणों से रहित।, अदृष्ट रूप। सरगुनी = ये सारा जगत जिसका स्वरूप है।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू ही हकूमत का मालिक है, तू ही जवानी का मालिक है (तुझसे ही जीव दुनिया में हकूमत करने की ताकत लेते हैं, तेरे से ही जवानी प्राप्त करते हैं)। (जब जगत नहीं था बना) माया के तीनों गुणों से रहित (निर्गुण) भी तू ही है, (अब तूने जगत रच दिया है) ये दिखाई दे रहा आकार (सर्गुण) माया के तीनों गुणों वाला- ये भी तू स्वयं ही है।2।

ईहा ऊहा तुम रखे ॥ गुर किरपा ते को लखे ॥३॥

पद्अर्थ: ईहा = इस लोक में। ऊहा = उस लोक में, परलोक में। ते = से, साथ। को = कोई विरला। लखे = समझता है।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) इस लोक में और परलोक में तु ही सबकी रक्षा करता है। (पर) कोई विरला मनुष्य ही गुरु की किरपा से (ये भेद) समझता है।3।

अंतरजामी प्रभ सुजानु ॥ नानक तकीआ तुही ताणु ॥४॥५॥१४३॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सुजानु = समझदार। तकीआ = सहारा। ताणु = बल, ताकत।4।

अर्थ: हे प्रभु! तू सबके दिलों की जानने वाला है, तू ही समझदार है। नानक का सहारा तू ही है, नानक का बल भी तू ही है।4।5।143।

गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ ॥ संतसंगि हरि मनि वसै भरमु मोहु भउ साधीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आराधीऐ = स्मरणा चाहिए। संगि संगि = संतों की संगति में। मनि = मन में। साधीऐ = साधा जा सकता है, काबू किया जा सकता है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। संतों की संगति में (ही) परमात्मा (मनुष्य के) मन में बस सकता है। भटकनों को, मोह को और डर-सहम को काबू किया जा सकता है।1। रहाउ।

बेद पुराण सिम्रिति भने ॥ सभ ऊच बिराजित जन सुने ॥१॥

पद्अर्थ: भने = कहते हैं। सभ ऊच = सबसे ऊँचे। बिराजित = टिके हुए। सुने = सुने जाते हैं।1।

अर्थ: (हे भाई! पण्डित लोग चाहे) वेद-पुराण-स्मृतियां (आदि धार्मिक पुस्तकों को) पढ़ते हैं पर संत जन अन्य सभी लोगों से ऊँचे आत्मिक ठिकाने पे टिके हुए सुने जाते हैं।1।

सगल असथान भै भीत चीन ॥ राम सेवक भै रहत कीन ॥२॥

पद्अर्थ: असथान = स्थान, हृदय स्थल। भै भीत = डरों से सहमे हुए। चीन = देखे जाते हैं।2।

अर्थ: (हे भाई!) और सारे हृदय-स्थल डरों से सहमे हुए देखे जा सकते हैं, (परमात्मा के स्मरण ने) परमात्मा के भक्तों को डरों से रहित कर दिया है।2।

लख चउरासीह जोनि फिरहि ॥ गोबिंद लोक नही जनमि मरहि ॥३॥

पद्अर्थ: फिरहि = भटकते फिरते हैं। जनमि = जनम के। मरहि = मरते हैं।3।

अर्थ: (हे भाई! जीव) चौरासी लाख जूनियों में भटकते फिरते हैं, पर परमात्मा के भक्त जनम मरन के चक्कर में नहीं पड़ते।3।

बल बुधि सिआनप हउमै रही ॥ हरि साध सरणि नानक गही ॥४॥६॥१४४॥

पद्अर्थ: रही = खत्म हो जाती है। गही = पकड़ी।4।

अर्थ: (हे नानक! जिस मनुष्यों ने) परमात्मा का, गुरु का आसरा ले लिया, उनके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। वह अपनी ताकत का, अपनी अक्ल का, अपनी समझदारी का आसरा नहीं लेते।4।6।144।

गउड़ी महला ५ ॥ मन राम नाम गुन गाईऐ ॥ नीत नीत हरि सेवीऐ सासि सासि हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! गुन = गुण। सेवीऐ = सेवा भक्ति करनी चाहिए। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! (आ) परमात्मा का नाम स्मरण करें, परमात्मा के गुण गायन करें। (हे मन!) सदा ही परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए।1। रहाउ।

संतसंगि हरि मनि वसै ॥ दुखु दरदु अनेरा भ्रमु नसै ॥१॥

पद्अर्थ: मनि = मन में (शब्द ‘मन’ और ‘मनि’ में फर्क याद रखें)। भ्रम = भटकना।1।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु संत की संगति में (रहने से) परमात्मा (मनुष्य के) मन में आ बसता है। (जिस के मन में बस जाता है उसके अंदर से) हरेक किस्म के दुख दर्द दूर हो जाते हैं, मोह का अंधकार दूर हो जाता है (माया की खातिर) भटकना समाप्त हो जाती है।1।

संत प्रसादि हरि जापीऐ ॥ सो जनु दूखि न विआपीऐ ॥२॥

पद्अर्थ: प्रसादि = किरपा से। जापीऐ = जपा जा सकता है। दूखि = दुख में। विआपीऐ = दब जाता है, काबू में आता है।2।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की किरपा से (ही) परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। (जो मनुष्य जपता है) वह मनुष्य किसी किस्म के दुख में नहीं घिरता।2।

जा कउ गुरु हरि मंत्रु दे ॥ सो उबरिआ माइआ अगनि ते ॥३॥

पद्अर्थ: कउ = को। मंत्र = उपदेश। दे = देता है। ते = से।3।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मंत्र देता है, वह मनुष्य माया की (तृष्णा) आग (में जलने) से बच जाता है।3।

नानक कउ प्रभ मइआ करि ॥ मेरै मनि तनि वासै नामु हरि ॥४॥७॥१४५॥

पद्अर्थ: मइआ = दया। तनि = हृदय में। वसै = बस पड़े।4।

अर्थ: (हे प्रभु! मुझ) नानक पर किरपा कर, (ताकि) मेरे मन में हृदय में, हे हरि! तेरा नाम बस जाए।4।7।145।

गउड़ी महला ५ ॥ रसना जपीऐ एकु नाम ॥ ईहा सुखु आनंदु घना आगै जीअ कै संगि काम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ से। एकु नामु = सिर्फ हरि नाम। ईहा = इस लोक में। घना = बहुत। आगै = पर लोक में। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। जीअ कै काम = जिंद के काम।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) जिहवा से हरि नाम जपते रहना चाहिए। (अगर हरि नाम जपते रहें तो) इस लोक में (इस जीवन में) बहुत सुख आनंद मिलता है और परलोक में (ये हरि नाम) जीवात्मा (जिंद) के काम आता है।1।

कटीऐ तेरा अहं रोगु ॥ तूं गुर प्रसादि करि राज जोगु ॥१॥

पद्अर्थ: कटीऐ = काटे जा सकते हैं। अहं = अहम्, मैं मैं, अहंकार। प्रसादि = कृपा से। जोगु = (प्रभु से) मिलाप। राज जोगु = गृहस्थी भी और फकीरी भी।1।

अर्थ: (हे भाई! हरि नाम की इनायत से) तेरा अहंकार का रोग काटा जा सकता है। (नाम जप जप के) गुरु की किरपा से तू गृहस्थ का सुख भी ले सकता है, और प्रभु से मिलाप भी प्राप्त कर सकता है।1।

हरि रसु जिनि जनि चाखिआ ॥ ता की त्रिसना लाथीआ ॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिसने। जनि = जन ने। जिनि जनि = जिस मनुष्य ने।2।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम रस चख लिया, उसकी (माया की) तृष्णा उतर जाती है।2।

हरि बिस्राम निधि पाइआ ॥ सो बहुरि न कत ही धाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: बिस्राम = शांति, टिकाव। निधि = खजाना। बिस्राम निधि = शांति का खजाना। बहुरि = मुड़, दुबारा। कत ही = किसी और तरफ। धाइआ = भटकता, भागता फिरता।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने हरि-नाम-रस चख लिया) उसे शांति का खजाना परमात्मा मिल गया। वह मनुष्य दुबारा किसी भी ओर भटकता नहीं फिरता।3।

हरि हरि नामु जा कउ गुरि दीआ ॥ नानक ता का भउ गइआ ॥४॥८॥१४६॥

पद्अर्थ: कउ = को। जा कउ = जिसे। गुरि = गुरु ने। का = की। (शब्द ‘का’ और ‘कउ’ में फर्क याद रखें)।4।

अर्थ: (हे नानक!) जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा का नाम बख्श दिया, उसका हरेक किस्म का डर दूर हो गया।4।8।146।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh