श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 191 गउड़ी महला ५ ॥ कलि कलेस गुर सबदि निवारे ॥ आवण जाण रहे सुख सारे ॥१॥ पद्अर्थ: कलि = दुख, मानसिक झगड़े। गुर सबदि = गुरु के शब्द ने। रहे = समाप्त हो गए।1। अर्थ: (साधु-संगत में पहुँचे हुए जिस मनुष्यों के) मानसिक झगड़े और कष्ट गुरु के शब्द ने दूर कर दिए, उनके जनम मरण के चक्कर खत्म हो गए, उन्हें सारे सुख प्राप्त हो गए।1। भै बिनसे निरभउ हरि धिआइआ ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बिनसे = दूर हो गए।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों ने) साधु-संगत में (जा के) परमात्मा की महिमा के गीत गाए हैं, जिन्होंने निर्भय हरि का ध्यान (अपने हृदय में) धारण किया है, उनके (दुनिया के सारे) डर दूर हो गए हैं।1। रहाउ। चरन कवल रिद अंतरि धारे ॥ अगनि सागर गुरि पारि उतारे ॥२॥ पद्अर्थ: चरन कवल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। धारे = टिकाए। गुरि = गुरु ने।2। अर्थ: (साधु-संगत की इनायत से जिस मनुष्यों ने) परमात्मा के सुंदर चरण अपने दिल में बसा लिए, गुरु ने उन्हें तृष्णा की आग के समुंदर में से पार लंघा दिया।2। बूडत जात पूरै गुरि काढे ॥ जनम जनम के टूटे गाढे ॥३॥ पद्अर्थ: बूडत जात = डूबते जाते। गाढे = जोड़ दिए, गाँठ लगा दी।3। अर्थ: (विकारों के समुंदर में) डूब रहे मनुष्य को पूरे गुरु ने (बाँह से पकड़ के बाहर) निकाल लिया (और जब वे साधु-संगत में पहुँच गए), उनको (परमात्मा से) अनेक जन्मों से बिछुड़ों हुओं को (गुरु ने दुबारा परमात्मा के साथ) मिला दिया।3। कहु नानक तिसु गुर बलिहारी ॥ जिसु भेटत गति भई हमारी ॥४॥५६॥१२५॥ पद्अर्थ: भेटत = मिल के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: हे नानक! कह: मैं उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिसको मिल के हमारी (जीवों की) उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।4।56।125। गउड़ी महला ५ ॥ साधसंगि ता की सरनी परहु ॥ मनु तनु अपना आगै धरहु ॥१॥ पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में, गुरु की संगति में। ता की = उस (परमात्मा) की।1। अर्थ: (हे मेरे भाई!) साधु-संगत में जा के उस परमात्मा का आसरा ले। अपना मन अपना तन (अर्थात अपने हरेक ज्ञानेंद्रियों को) उस परमात्मा के हवाले कर दे।1। अम्रित नामु पीवहु मेरे भाई ॥ सिमरि सिमरि सभ तपति बुझाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भाई = हे वीर! तपति = जलन।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे वीर! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी (श्वास-श्वास परमात्मा का नाम स्मरण कर। जिसने नाम स्मरण किया है) उसने स्मरण कर-कर के (अपने अंदर से विकारों की) सारी सड़न बुझा ली है।1। रहाउ। तजि अभिमानु जनम मरणु निवारहु ॥ हरि के दास के चरण नमसकारहु ॥२॥ पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। नमसकारहु = नमस्कार करो, अपना सिर झुकाओ।2। अर्थ: (हे मेरे वीर!) परमात्मा के सेवक के चरणों पे अपना सिर रख दे (इस तरह अपने अंदर से) अहंकार दूर करके जनम मरण के चक्कर समाप्त कर दे।2। सासि सासि प्रभु मनहि समाले ॥ सो धनु संचहु जो चालै नाले ॥३॥ पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास से। मनहि = मन में। समाले = सम्भाल के रख। संचहु = इकट्ठा करो।3। अर्थ: (हे मेरे भाई!) हरेक श्वास के साथ परमात्मा को अपने मन में संभाल के रख। वह (नाम-) धन इकट्ठा कर, जो तेरे साथ निभे।3। तिसहि परापति जिसु मसतकि भागु ॥ कहु नानक ता की चरणी लागु ॥४॥५७॥१२६॥ पद्अर्थ: तिसहि = उस (मनुष्य) को। मसतकि = माथे पर।4। अर्थ: (पर ये नाम-धन इकट्ठा करना जीवों के वश की बात नहीं। ये नाम-धन) उस मनुष्य को ही मिलता है, जिसके माथे पे भाग्य जागे। हे नानक! कह: (हे मेरे भाई!) तू उस मनुष्य के चरणों में लग (जिसे नाम धन मिला हुआ है)।4।57।126। गउड़ी महला ५ ॥ सूके हरे कीए खिन माहे ॥ अम्रित द्रिसटि संचि जीवाए ॥१॥ पद्अर्थ: सूके = सूखे हुए, जिनके अंदर आत्मिक जीवन वाला रस नहीं रहा। माहे = माहि, में। खिन माहि = छिन में। द्रिसटि = निगाह, नजर। संचि = सींच के। जीवाए = आत्मिक जीवात्मा डाल दी।1। अर्थ: आत्मिक जीवन देने वाली निगाह करके गुरु नाम-जल से सींच के जिन्हें आत्मिक जीवन देता है, उन आत्मिक जीवन के रस से वंचित हो चुके मनुष्यों को गुरु एक छिन में हरे (भाव, आत्मिक जीवन वाले) बना देता है।1। काटे कसट पूरे गुरदेव ॥ सेवक कउ दीनी अपुनी सेव ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को। दीनी = दी।1। रहाउ। अर्थ: जिस सेवक को (परमात्मा ने) अपनी सेवा-भक्ति (की दाति) दी। पूरे गुरु ने उसके सारे कष्ट काट दिए।1। रहाउ। मिटि गई चिंत पुनी मन आसा ॥ करी दइआ सतिगुरि गुणतासा ॥२॥ पद्अर्थ: पुनी = पूरी हो गई। सतिगुरि गुणतासा = गुणों के खजाने सतिगुरु ने।2। अर्थ: गुणों के खजाने सतिगुरु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उसकी (हरेक किस्म की) चिन्ता मिट गई, उसके मन की (हरेक) आस पूरी हो गई।2। दुख नाठे सुख आइ समाए ॥ ढील न परी जा गुरि फुरमाए ॥३॥ पद्अर्थ: आइ = आ के। समाइ = रच गए। गुरि = गुरु ने।3। अर्थ: जब गुरु ने जिस मनुष्य पर बख्शिश होने का हुक्म किया, थोड़ी सी भी ढील ना हुई, उसके सारे दुख दूर हो गए, उसके अंदर (सारे) सुख आ के टिक गए।3। इछ पुनी पूरे गुर मिले ॥ नानक ते जन सुफल फले ॥४॥५८॥१२७॥ पद्अर्थ: गुर मिले = (जो) गुरु को मिले। ते जन = वह लोग। सुफल = अच्छे फलों वाले।4। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य पूरे गुरु से मिल गए, उनकी (हरेक किस्म की) इच्छा पूरी हो गई, उन्हें उच्च आत्मिक गुणों के सुंदर फल लग गए।4।58।127। नोट: याद रहे कि असल संख्या 128 होनी चाहिए। गउड़ी महला ५ ॥ ताप गए पाई प्रभि सांति ॥ सीतल भए कीनी प्रभ दाति ॥१॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। सांति = ठंड, आत्मिक अडोलता। सीतल = ठंडे।1। अर्थ: जिन्हें परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वे ठंडे जिगरे वाले बन जाते हैं। परमात्मा ने उनके अंदर ऐसी ठण्ड समा दी होती है कि उनके सारे ताप-कष्ट दूर हो जाते हैं।1। प्रभ किरपा ते भए सुहेले ॥ जनम जनम के बिछुरे मेले ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ते = से साथ। सुहेले = आसान।1। रहाउ। अर्थ: (जिस मनुष्यों को परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वह मनुष्य) परमात्मा की कृपा से आसान (जीवन वाले) हो जाते हैं, उनको अनेक जन्मों के विछुड़ों को परमात्मा (अपने साथ) मिला लेता है।1। रहाउ। सिमरत सिमरत प्रभ का नाउ ॥ सगल रोग का बिनसिआ थाउ ॥२॥ पद्अर्थ: सगल = सारे। थाउ = जगह, निशाना।2। अर्थ: (जिन्हें परमात्मा अपने नाम की दाति देता है) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (उनके अंदर से) सारे रोगों के निशान ही मिट जाते हैं।2। सहजि सुभाइ बोलै हरि बाणी ॥ आठ पहर प्रभ सिमरहु प्राणी ॥३॥ पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम-प्यार में। प्राणी = हे प्राणी!।3। अर्थ: (जिस मनुष्य को परमात्मा नाम की दाति देता है वह) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम-प्यार में लीन हो के परमात्मा की महिमा की वाणी उचारता रहता है। हे प्राणी! (तू भी उसके दर से नाम की दाति माँग, और) आठों पहर प्रभु का नाम स्मरण करता रह।3। दूखु दरदु जमु नेड़ि न आवै ॥ कहु नानक जो हरि गुन गावै ॥४॥५९॥१२८॥ पद्अर्थ: कहु = कह। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे नानक! कह: (परमात्मा की मेहर से) जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है। कोई दुख दर्द उसके नजदीक नहीं आता, उसे मौत का डर नहीं छूता (आत्मिक मौत का उसे खतरा नहीं रह जाता)।4।59।128। गउड़ी महला ५ ॥ भले दिनस भले संजोग ॥ जितु भेटे पारब्रहम निरजोग ॥१॥ पद्अर्थ: दिनस = दिन में। संजोग = मिलाप के अवसर। जितु = जिसके द्वारा। भेटे = मिले। निरजोग = निर्लिप।1। अर्थ: (हे भाई!) वे दिन सुहावने होते हैं, वे मिलाप के अवसर सुखदायक होते हैं जब (माया से) निर्लिप प्रभु जी मिल जाते हैं।1। ओह बेला कउ हउ बलि जाउ ॥ जितु मेरा मनु जपै हरि नाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को, से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं उस समय से कुर्बान जाता हूँ जिस समय मेरा मन परमात्मा का नाम जपता है।1। रहाउ। सफल मूरतु सफल ओह घरी ॥ जितु रसना उचरै हरि हरी ॥२॥ पद्अर्थ: मूरतु = महूरत, दो घड़ी जितना समय (शब्द ‘मूरति’ और ‘मूरतु’ में फर्क स्मरणीय है)। रसना = जीभ।2। अर्थ: (हे भाई!) मनुष्य के लिए वह महूरत भाग्यशाली होता है, वह घड़ी अनमोल होती है जब उसकी जीभ परमात्मा का नाम उचारती है।2। सफलु ओहु माथा संत नमसकारसि ॥ चरण पुनीत चलहि हरि मारगि ॥३॥ पद्अर्थ: पुनीत = पवित्र। मारगि = रास्ते पर।3। अर्थ: (हे भाई!) वह माथा भी भाग्यशाली है, जो गुरु-संत के चरणों में झुकता है। वह पैर पवित्र हो जाते हैं जो परमात्मा (के मिलाप) के रास्ते पर चलते हैं।3। कहु नानक भला मेरा करम ॥ जितु भेटे साधू के चरन ॥४॥६०॥१२९॥ पद्अर्थ: करम = भाग्य, किस्मत। जितु = जिसकी बरकत से।4। अर्थ: हे नानक! कह: मेरे बड़े भाग्य (जाग पड़ते हैं) जब मैं गुरु के चरण परसता हूँ।4।60।128। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |