श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 190 भलो समो सिमरन की बरीआ ॥ सिमरत नामु भै पारि उतरीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भलो = भला, सुहावना, ठीक। समो = समय, बेला। बरीआ = वारी, अवसर।1। रहाउ। नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है। अर्थ: (हे मेरे मन! मानव जनम का ये) सुंदर समय (तुझे मिला है। ये मानव जनम ही परमात्मा के) नाम जपने की बेला है। (इस मनुष्य जन्म में ही) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए (संसार के अनेक) डरों से पार लांघ सकते हैं।1। रहाउ। नेत्र संतन का दरसनु पेखु ॥ प्रभ अविनासी मन महि लेखु ॥२॥ पद्अर्थ: नेत्र = आँखों से। पेखु = देख। लेखु = लिख।2। अर्थ: (हे भाई! तू भी) अपनी आँखों से गुरमुखों के दर्शन कर, (गुरमुखों की संगति में रह के) अपने मन में अविनाशी परमात्मा के स्मरण का लेख लिखता रह।2। सुणि कीरतनु साध पहि जाइ ॥ जनम मरण की त्रास मिटाइ ॥३॥ पद्अर्थ: साध पाहि = गुरु के पास। जाइ = जा के। त्रास = डर। मिटाइ = दूर कर।3। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में जा के तू परमात्मा के महिमा के गीत सुना कर और इस तरह जनम मरण में पड़ने वाली आत्मिक मौत का डर (अपने अंदर से) दूर कर ले।3। चरण कमल ठाकुर उरि धारि ॥ दुलभ देह नानक निसतारि ॥४॥५१॥१२०॥ पद्अर्थ: उरि = हृदय में। धारि = रख। देह = शरीर। निसतारि = पार करा।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण अपने हृदय में टिकाए रख। ये मानव शरीर बड़ी मुश्किल से मिला है, इसे (नाम जपने की इनायत से संसार समुंदर के विकारों से) पार लंघा ले।4।51।120। गउड़ी महला ५ ॥ जा कउ अपनी किरपा धारै ॥ सो जनु रसना नामु उचारै ॥१॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। रसना = जीभ से।1। अर्थ: (पर नाम स्मरणा भी जीवों के अपने वश की बात नहीं) जिस मनुष्य पे परमात्मा अपनी मेहर करता है वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम उचारता है।1। हरि बिसरत सहसा दुखु बिआपै ॥ सिमरत नामु भरमु भउ भागै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहसा = सहम। बिआपै = जोर डाले रखता है। भरमु = भटकना।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा को भुलाने से (दुनिया का) सहम-दुख (अपना) जोर डाल लेता है, (पर प्रभु का) नाम स्मरण करने से हरेक भटकना दूर हो जाती है, हरेक किस्म का डर भाग जाता है।1। रहाउ। हरि कीरतनु सुणै हरि कीरतनु गावै ॥ तिसु जन दूखु निकटि नही आवै ॥२॥ पद्अर्थ: निकटि = नजदीक।2। अर्थ: (प्रभु की कृपा से जो मनुष्य) प्रभु की महिमा सुनता है, प्रभु की महिमा गाता है, कोई दुख उस मनुष्य के समीप नहीं फटकता।2। हरि की टहल करत जनु सोहै ॥ ता कउ माइआ अगनि न पोहै ॥३॥ पद्अर्थ: सोहै = सुंदर लगता है, सुंदर जीवन वाला बन जाता है। ता कउ = उसे।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हुए मनुष्य सुंदर जीवन वाला बन जाता है, (क्योंकि) उस मनुष्य को माया (की तृष्णा की) आग सता नहीं सकती (उसके आत्मिक जीवन को जला नहीं सकती)।3। मनि तनि मुखि हरि नामु दइआल ॥ नानक तजीअले अवरि जंजाल ॥४॥५२॥१२१॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। नामु दइआल = दयाल का नाम। तजीअले = (उस मनुष्य ने) छोड़ दिए हैं। अवरि = और।4। नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है। अर्थ: हे नानक! दया के घर परमात्मा का नाम जिस मनुष्य के मन में दिल में व मुंह में बस जाता है, उस मनुष्य ने (अपने मन में से माया के मोह के) और सारे जंजाल उतार दिए होते हैं।4।42।121। गउड़ी महला ५ ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई ॥ गुर पूरे की टेक टिकाई ॥१॥ पद्अर्थ: टेक = आसरा। टिकाई = टिका के। टेक टिकाई = आसरा ले के।1। अर्थ: (हे भाई! तू भी) पूरे गुरु का आसरा ले। ये ख्याल छोड़ दे कि तू बहुत अक्लमंद और चतुर है (और जीवन-मार्ग को खुद ही समझ सकता है)।1। दुख बिनसे सुख हरि गुण गाइ ॥ गुरु पूरा भेटिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बिनसे = नाश हो जाते हैं। गाइ = गा के। भेटिआ = मिला। लिव = लगन।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरा गुरु मिल जाता है (और गुरु की मेहर से जो प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ता है, परमात्मा के गुण गा के उसे सुख (ही सुख) मिलते हैं और उसके सारे (के सारे) दुख दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। हरि का नामु दीओ गुरि मंत्रु ॥ मिटे विसूरे उतरी चिंत ॥२॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। विसूरे = झोरे। चिंत = चिन्ता।2। अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य को) परमात्मा का नाम मंत्र दिया है (उस मंत्र की इनायत से उसके सारे) झोरे (चिन्ता-फिक्र) मिट गए हैं उसकी (हरेक किस्म की) चिन्ता उतर गई है।2। अनद भए गुर मिलत क्रिपाल ॥ करि किरपा काटे जम जाल ॥३॥ पद्अर्थ: अनद = आत्मिक खुशियां। गुर मिलत = गुरु को मिल के। जम जाल = जम के जाल, आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के जाल।3। अर्थ: (हे भाई!) दया के श्रोत गुरु को मिल के आत्मिक शांति पैदा हो जाती है। गुरु कृपा करके (मनुष्य के अंदर से) आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के फंदे कट जाते हैं।3। कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ ता ते बहुरि न बिआपै माइआ ॥४॥५३॥१२२॥ पद्अर्थ: ता ते = उस से, उस (गुरु की) इनायत से। न बिआपै = जोर नहीं डालती।4। अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्य को) पूरा गुरु मिल जाता है, उस गुरु की इनायत से (उस मनुष्य पर) माया (अपना) जोर नहीं डाल सकती।4।53।122। गउड़ी महला ५ ॥ राखि लीआ गुरि पूरै आपि ॥ मनमुख कउ लागो संतापु ॥१॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। मनमुख कउ = मनमुख को, उस मनुष्य को जिसका मुंह अपनी तरफ है। संतापु = दुख, कष्ट। लागो = लगता है, चिपकता है।1। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु के अनुसार रहता है) पूरे गुरु ने खुद उसे (सदैव कामादिक वैरियों से) बचा लिया है। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को (इनका) सेक लगता ही रहता है।1। गुरू गुरू जपि मीत हमारे ॥ मुख ऊजल होवहि दरबारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मीत हमारे = हे मेरे मित्रो! ऊजल = रौशन। होवहि = होंगे।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मित्रो! सदा (अपने) गुरु को याद रखो। (गुरु का उपदेश याद रखने से) तुम्हारे मुंह परमात्मा की दरगाह में रौशन होंगे।1। रहाउ। गुर के चरण हिरदै वसाइ ॥ दुख दुसमन तेरी हतै बलाइ ॥२॥ पद्अर्थ: वसाइ = टिका रख। हतै = मार देता है, मार देगा। बलाइ = चुड़ैल।2। अर्थ: (हे भाई! तू अपने) हृदय में गुरु के चरण बसाए रख (गुरु तेरे सारे) दुख-कष्ट नाश करेगा। (कामादिक तेरे सारे) वैरियों को खत्म कर देगा (तेरे पर दबाव डालने वाली माया-) चुड़ैल को मार देगा।2। गुर का सबदु तेरै संगि सहाई ॥ दइआल भए सगले जीअ भाई ॥३॥ पद्अर्थ: सहाई = साथी। सगले = सारे।3। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द ही तेरे साथ (सदैव साथ निभाने वाला) साथी है, (गुरु का शब्द हृदय में परोए रखने से) सारे लोग दयावान हो जाते हैं।3। गुरि पूरै जब किरपा करी ॥ भनति नानक मेरी पूरी परी ॥४॥५४॥१२३॥ पद्अर्थ: भनति = कहता है। परी = पड़ी। पूरी परी = (मेहनत) पूरी हो गई।4। अर्थ: नानक कहता है: जब पूरे गुरु ने (मेरे पर) मेहर की तो मेरे जीवन की मेहनत सफल हो गई (कामादिक वैरी मेरे पर हमला करने से हट गए)।4।54।123। गउड़ी महला ५ ॥ अनिक रसा खाए जैसे ढोर ॥ मोह की जेवरी बाधिओ चोर ॥१॥ पद्अर्थ: रसा = रस, स्वादिष्ट पदार्थ। ढोर = पशु। जेवरी = जंजीर, रस्सी से।1। अर्थ: जैसे पशु (चारे से पेट भर लेते हैं, वैसे ही साधु-संगत से वंचित रह के आत्मिक मौत मरा हुआ मनुष्य) अनेक स्वादिष्ट पदार्थ खाता रहता है और (रंगे हाथ पकड़े हुए) चोर की तरह (माया) के मोह की रस्सियों में लगातार (कसता) जकड़ता चला जाता है।1। मिरतक देह साधसंग बिहूना ॥ आवत जात जोनी दुख खीना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मिरतक = मृतक, मुर्दा। देह = शरीर। मिरतक देह = आत्मिक मौत मरे हुए शरीर। बिहूना = विहीन। खीना = क्षीण, कमजोर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत से वंचित रहता है, उसका शरीर मुर्दा है (क्योंकि उसके अंदर आत्मिक मौत मरी हुई जीवात्मा है), वह मनुष्य जनम मरण के चक्र में पड़ा रहता है, जूनियों के दुखों के कारण उसका आत्मिक जीवन लगातार कमजोर होता चला जाता है।1। रहाउ। अनिक बसत्र सुंदर पहिराइआ ॥ जिउ डरना खेत माहि डराइआ ॥२॥ पद्अर्थ: बसत्र = वस्त्र, कपड़े। डरना = जानवरों को डराने के लिए खेतों में खड़ा किया गया बनावटी रखवाला।2। अर्थ: (आत्मिक मौत मरा मनुष्य) अनेक सुंदर-सुंदर कपड़े पहनता है (गरीब मैले कपडों वाले लोग उससे डरते थोड़ा परे परे रहते हैं। इस तरह गरीबों के लिए वह ऐसे होता है) जैसे खेतों में (जानवरों को) डराने के लिए बनावटी रखवाला खड़ा किया होता है।2। सगल सरीर आवत सभ काम ॥ निहफल मानुखु जपै नही नाम ॥३॥ पद्अर्थ: निहफल = निष्फल, व्यर्थ।3। अर्थ: (अन्य पशु आदि के) सारे शरीर कोई ना कोई काम आ जाते हैं। अगर मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपता, तो इसका जगत में आना व्यर्थ ही जाता है।3। कहु नानक जा कउ भए दइआला ॥ साधसंगि मिलि भजहि गुोपाला ॥४॥५५॥१२४॥ पद्अर्थ: जा कउ = जो मनुष्यों पे। साध संगि = साधु-संगत में।4। नोट: ‘गुोपाला’ शब्द में ‘ग’ के साथ दो मात्राएं हैं ‘ु’ तथा ‘ो’। असल शब्द ‘गोपाल है, यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्यों पर परमात्मा दयावान होता है, वह साधु-संगत में (सत्संगियों के साथ) मिल के जगत के पालणहार प्रभु का भजन करते हैं।4।55।124। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |