श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 186 पीऊ दादे का खोलि डिठा खजाना ॥ ता मेरै मनि भइआ निधाना ॥१॥ पद्अर्थ: खोलि = खेल के। ता = तब। मनि = मन मे। निधाना = खजाना।1। अर्थ: जब मैंने गुरु नानक देव से लेकर सारे गुरु साहिबान की वाणी का खजाना खोल के देखा, तब मेरे मन में आत्मिक आनंद का भण्डार भर गया।1। (नोट: पाठक ध्यान से पढ़ें: खोल के ‘देखा’, ना कि ‘इकट्ठा किया’। गुरु अरजन साहिब ने सारे गुरु साहिबान की वाणी स्वयं एकत्र नहीं की, आपको सारी की सारी एकत्र की हुई वाणी गुरु राम दास जी से मिल गई)। रतन लाल जा का कछू न मोलु ॥ भरे भंडार अखूट अतोल ॥२॥ पद्अर्थ: जा का = जिस का। अखूट = ना खत्म होने वाला।2। अर्थ: इस खजाने में परमात्मा की महिमा के अमोलक रत्नों-लालों के भण्डार भरे हुए (मैंने देखे), जो कभी खत्म नहीं हो सकते, जो तौले नहीं जा सकते।2। खावहि खरचहि रलि मिलि भाई ॥ तोटि न आवै वधदो जाई ॥३॥ पद्अर्थ: रलि मिलि = इकट्ठे हो के।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (सत्संग में) इकट्ठे हो के इन भण्डारों को खुद इस्तेमाल करते हैं व और लोगों को भी बाँटते हैं, उनके पास इस खजाने की कमी नहीं होती, बल्कि और-और बढ़होत्तरी होती है।3। कहु नानक जिसु मसतकि लेखु लिखाइ ॥ सु एतु खजानै लइआ रलाइ ॥४॥३१॥१००॥ पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। एतु = इस में। एतु खजाने = इस खजाने में।4। अर्थ: (पर) हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पे परमात्मा की बख्शिश का लेख लिखा होता है, वही इस (महिमा के) खजाने में भागीदार बनाया जाता है (भाव, वही साधु-संगत में आ के महिमा की वाणी का आनंद पाता है)।4।31।100। गउड़ी महला ५ ॥ डरि डरि मरते जब जानीऐ दूरि ॥ डरु चूका देखिआ भरपूरि ॥१॥ पद्अर्थ: डरि = डर के, सहम के। मरते = आत्मिक मौत मरते। चूका = समाप्त हो गया। भरपूरि = हर जगह व्यापक।1। अर्थ: जब तक हम ये समझते हैं कि परमात्मा कहीं दूर बसता है, तब तक (दुनिया के दुख रोग फिक्रों से) सहम सहम के आत्मिक मौत मरते रहते हैं। जब उसे (सारे संसार में कण कण में) व्यापक देख लिया, (उस वक्त दुनिया के दुख आदिक का) भय खत्म हो गया।1। सतिगुर अपने कउ बलिहारै ॥ छोडि न जाई सरपर तारै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बलिहारै = कुर्बान। सरपर = जरूर। तारै = पार लंघाता है।1। रहाउ। अर्थ: मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, वह (दुख-रोग-सोग आदिक के समुंदर में हम डूबतों को) छोड़ के नहीं जाता, वह (इस समुंदर में से) जरूर पार लंघाता है।1। रहाउ। दूखु रोगु सोगु बिसरै जब नामु ॥ सदा अनंदु जा हरि गुण गामु ॥२॥ पद्अर्थ: सोगु = फिक्र। गामु = गाना।2। अर्थ: (हे भाई! दुनिया का) दुख रोग फिक्र (तभी व्यापता) है जब परमात्मा का नाम भूल जाता है। जब परमात्मा के महिमा के गीत गाते हैं तो (मन में) सदा आनंद बना रहता है।2। बुरा भला कोई न कहीजै ॥ छोडि मानु हरि चरन गहीजै ॥३॥ पद्अर्थ: न कहीजै = नहीं कहना चाहिए। गहीजै = पकड़ने चाहिए।3। अर्थ: (हे भाई!) ना किसी की निंदा करनी चाहिए, ना किसी की खुशामद। (दुनिया का) मान त्याग के परमात्मा के चरण (हृदय में) टिका लेने चाहिए।3। कहु नानक गुर मंत्रु चितारि ॥ सुखु पावहि साचै दरबारि ॥४॥३२॥१०१॥ पद्अर्थ: मंतु = उपदेश। चितारि = याद रख, चेते रख। दरबारि = दरबार में।4। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) गुरु का उपदेश अपने चित्त में परोए रख, सदा कायम रहने वाले परमात्मा की दरगाह में आनंद पाऐगा।4।32।101। गउड़ी महला ५ ॥ जा का मीतु साजनु है समीआ ॥ तिसु जन कउ कहु का की कमीआ ॥१॥ पद्अर्थ: समीआ = समान, व्यापक। कहु = बताओ। का की = किस चीज की? कमीआ = कमी।1। अर्थ: जिस मनुष्य को (ये यकीन बन जाए कि उसका) सज्जन प्रभु, मित्र प्रभु हर जगह व्यापक है, (हे भाई!) बता, उस मनुष्य को (फिर) किस चीज की कमी रह जाती है?।1। जा की प्रीति गोबिंद सिउ लागी ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य का प्यार परमात्मा के साथ बन जाता है उसके हरेक दुख, हरेक दर्द, हरेक भ्रम-वहिम दूर हो जाते हैं। रहाउ। जा कउ रसु हरि रसु है आइओ ॥ सो अन रस नाही लपटाइओ ॥२॥ पद्अर्थ: कउ = को। अन = अन्य। लपटायो = चिपका हुआ।2। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का आनंद आ जाता है, वह (दुनिया के) अन्य (पदार्थों के) स्वादों से नहीं चिपकता।2। जा का कहिआ दरगह चलै ॥ सो किस कउ नदरि लै आवै तलै ॥३॥ पद्अर्थ: किस कउ = किस को। तलै = नीचे।3। नोट: ‘किस कउ’ में से शब्द ‘किसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हट गई है। अर्थ: जिस मनुष्य के बोले हुए बोल परमात्मा की हजूरी में माने जाते हैं, उसे किसी और की अधीनता नहीं रह जाती।3। जा का सभु किछु ता का होइ ॥ नानक ता कउ सदा सुखु होइ ॥४॥३३॥१०२॥ पद्अर्थ: जा का = जिस (परमात्मा) का। ता का = उस (परमात्मा) का।4। अर्थ: हे नानक! जिस परमातमा का रचा हुआ ये संसार है उस परमात्मा का सेवक जो मनुष्य बन जाता है उसे सदा आनंद प्राप्त रहता है।4।33।102। गउड़ी महला ५ ॥ जा कै दुखु सुखु सम करि जापै ॥ ता कउ काड़ा कहा बिआपै ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै = जिस के (हृदय में), जिस मनुष्य के दिल में। सम = बराबर, एक जैसा। जापै = प्रतीत होता है। काड़ा = झोरा, चिन्ता। बिआपै = प्रभाव डालता है।1। अर्थ: (प्रभु की रजा में चलने के कारण) जिस मनुष्य के हृदय में हरेक दुख सुख एक जैसा ही प्रतीत होता है, उसे कोई चिन्ता-फिक्र कभी दबा नहीं सकती।1। सहज अनंद हरि साधू माहि ॥ आगिआकारी हरि हरि राइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। हरि साधू = परमात्मा का भक्त।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के भक्त के हृदय में (सदा) आत्मिक अडोलता बनी रहती है, (सदा) आत्मिक आनंद बना रहता है। (हरि का भक्त) हरि-प्रभु की आज्ञा में ही चलता है।1। रहाउ। जा कै अचिंतु वसै मनि आइ ॥ ता कउ चिंता कतहूं नाहि ॥२॥ पद्अर्थ: अचिंतु = चिन्ता रहित प्रभु। मनि = मन में। कतहूँ = कभी भी।2। अर्थ: (हे भाई!) चिन्ता-रहित परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है, उसे कभी कोई चिन्ता नहीं सताती।2। जा कै बिनसिओ मन ते भरमा ॥ ता कै कछू नाही डरु जमा ॥३॥ पद्अर्थ: मन ते = मन से। भरमा = भटकना। ता कै = उस के हृदय।3। अर्थ: जिस मनुष्य के मन से भटकना खत्म हो जाती है, उसके मन में मौत का डर नहीं रह जाता।3। जा कै हिरदै दीओ गुरि नामा ॥ कहु नानक ता कै सगल निधाना ॥४॥३४॥१०३॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सगल = सारे। निधान = खजाने।4। अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम टिका दिया है उसके अंदर, जैसे, सारे खजाने आ जाते हैं।4।34।103। गउड़ी महला ५ ॥ अगम रूप का मन महि थाना ॥ गुर प्रसादि किनै विरलै जाना ॥१॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। प्रसादि = कृपा से।1। अर्थ: (जिस मन में महिमा के चश्मे जारी हो जाते हैं) उस मन में अगम्य (पहुँच से परे) स्वरूप वाले परमात्मा का निवास हो जाता है। (पर) किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से (ये भेद) समझा है।1। सहज कथा के अम्रित कुंटा ॥ जिसहि परापति तिसु लै भुंचा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। कथा = महिमा। कुंट = चश्मे। भुंचा = रस लिया, खाया, आस्वादन लिया।1। रहाउ। अर्थ: जिस मनुष्य के भाग्यों में प्राप्ति का लेख होता है वह (गुरु की कृपा से) आत्मिक अडोलता और महिमा के अमृत के चश्मों का आनंद पाता है।1। रहाउ। अनहत बाणी थानु निराला ॥ ता की धुनि मोहे गोपाला ॥२॥ पद्अर्थ: अनहत = एक रस। धुनि = सुर, आवाज।2। अर्थ: (जहाँ महिमा और आत्मिक अडोलता के चश्मे चल पड़ते हैं) उसका हृदय-स्थल एक-रस महिमा की वाणी की इनायत से अनोखा (सुंदर) हो जाता है। उसकी जुड़ी तवज्जो पर परमात्मा (भी) मोहित हो जाता है।2। तह सहज अखारे अनेक अनंता ॥ पारब्रहम के संगी संता ॥३॥ पद्अर्थ: अखारे = एकत्र।3। अर्थ: (जहाँ महिमा के चश्मे जारी होते हैं) वहाँ (उस आत्मिक अवस्था में टिके हुए) संत जन परमात्मा के चरणों में जुड़ के आत्मिक अडोलता के अनेक और बेअंत अखाड़े रच के रखते हैं।3। हरख अनंत सोग नही बीआ ॥ सो घरु गुरि नानक कउ दीआ ॥४॥३५॥१०४॥ पद्अर्थ: हरख = हर्ष, खुशी। बीआ = अन्य, दूसरा। गुरि = गुरु ने।4। अर्थ: (उस अवस्था में) बेअंत खुशी ही खुशी बनी रहती है, किसी तरह की अन्य कोई चिन्ता फिक्र नहीं। (हे भाई!) गुरु ने वह आत्मिक ठिकाना (मुझे) नानक को (भी) बख्शा है।4।35।104। गउड़ी मः ५ ॥ कवन रूपु तेरा आराधउ ॥ कवन जोग काइआ ले साधउ ॥१॥ पद्अर्थ: कवन रूपु = कौन सी शक्ल? जोग = योग के साधन। काइआ = काया,शरीर। साधउ = साधूँ, मैं वश में करूँ।1। अर्थ: (हे प्रभु! जगत के सारे जीव तेरा ही रूप हैं और तेरा कोई खास रूप नहीं। मैं नहीं जानता कि) तेरा वह कौन सा रूप है जिसका मैं ध्यान धरूँ। (हे प्रभु! मुझे समझ नहीं कि) जोग का वह कौन सा साधन है जिससे मैं अपने शरीर को वश में ले आऊँ (और तुझे प्रसन्न करूँ)। योग साधना के साथ तुझे खुश नहीं किया जा सकता।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |