श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मंत्रु तंत्रु अउखधु पुनहचारु ॥ हरि हरि नामु जीअ प्रान अधारु ॥ साचा धनु पाइओ हरि रंगि ॥ दुतरु तरे साध कै संगि ॥३॥

पद्अर्थ: तंत्रु = टूणा, जादू। अउखधु = दवाई। पुनह = दुबारा, पीछे से। पुनहचारु = पाप की निर्विति के लिए पाप करने के बाद किया हुआ धार्मिक कर्म, प्रायश्चित। जीअ अधारु = जीवात्मा का आसरा। साचा = सदा कायम रहने वाला। रंगि = प्रेम में। दुतरु = (दुस्तर) जिसे तैरना कठिन है।3।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की संगति में रहता है, वह इस मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार समुंदर से पार लांघ जाता है। वह मनुष्य हरि के प्रेम रंग में (मस्त हो के) सदा साथ निभने वाला नाम-धन हासिल कर लेता है। हरि का नाम ही उस मनुष्य की जिंदगी के प्राणों का आसरा बन जाता है। (मोह की नींद दूर करने के लिए परमात्मा का नाम ही उसके वास्ते) मंत्र है। नाम ही जादू है, नाम ही दवाई है और नाम ही प्रायश्चित कर्म है।3।

सुखि बैसहु संत सजन परवारु ॥ हरि धनु खटिओ जा का नाहि सुमारु ॥ जिसहि परापति तिसु गुरु देइ ॥ नानक बिरथा कोइ न हेइ ॥४॥२७॥९६॥

पद्अर्थ: सुखि = सुख में। संत सजन = हे संत सज्जन! खटिओ = कमाया, कमा लिया। जा का = जिस (धन) का। सुमारु = अंदाजा, नाप। परापति = भाग्यों में लिखा हुआ। बिरथा = खाली, व्यर्थ। हेइ = है।4।

अर्थ: हे संत जनो! प्रिवार बन के (मेर-तेर दूर करके, पूर्ण प्रेम से) आत्मिक आनंद में मिल बैठो। (जो मनुष्य गुरमुखों की संगति में बैठता है उसने) वह हरि-नाम धन कमा लिया जिसका अंदाजा नहीं लग सकता।

हे नानक! (प्रभु की मेहर से) जिसके भाग्यों में (नाम धन) लिखा हुआ है, उसे गुरु (नाम-धन) देता है, (गुरु के दर पर आ के) कोई मनुष्य खाली नहीं रह जाता।4।27।96।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ हसत पुनीत होहि ततकाल ॥ बिनसि जाहि माइआ जंजाल ॥ रसना रमहु राम गुण नीत ॥ सुखु पावहु मेरे भाई मीत ॥१॥

पद्अर्थ: हसत = हस्त, हाथ। पुनीत = पवित्र। होहि = हो जाते हैं (‘होइ’ = हो जाता है)। ततकाल = तुरंत। जंजाल = फांसी। रसना = जीभ (से)। रमहु = स्मरण करो, जपो। नीत = नित्य, सदा। भाई = हे भाई! मीत = हे मित्र! 1।

अर्थ: हे मेरे भाई! हे मेरे मित्र! अपनी जीभ से सदा परमात्मा की महिमा के गुण गाता रह, तू आत्मिक आनंद पाएगा। उस वक्त तेरे हाथ पवित्र हो जाएंगे, तेरे (माया के मोह के) बंधन दूर हो जाएंगे।1।

लिखु लेखणि कागदि मसवाणी ॥ राम नाम हरि अम्रित बाणी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लेखणि = कलम (भाव, तवज्जो)। कागदि = कागज पर। (‘करणी’ के कागज पर)। मसवाणी = दावत (‘मन’ की दवात ले के)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली।1। रहाउ।

अर्थ: (हे मेरे भाई! अपनी ‘तवज्जो’ की) कलम (ले के अपनी ‘करणी’ के) कागज़ पर (‘मन’ की) दवात से परमात्मा का नाम लिख। आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी लिख।1। रहाउ।

इह कारजि तेरे जाहि बिकार ॥ सिमरत राम नाही जम मार ॥ धरम राइ के दूत न जोहै ॥ माइआ मगन न कछूऐ मोहै ॥२॥

पद्अर्थ: इह कारजि = इस काम से। जम मार = यमों की मार, आत्मिक मौत। जोहै = ताकना, देखना। धरम राइ के दूत = (भाव, कामादिक विकार जो जीव को अपने पँजे में फंसा के धर्मराज के वश में करते हैं)। मगन = मस्त। कछूऐ = कुछ भी, कोई भी चीज।2।

अर्थ: (हे मेरे वीर! हे मेरे मित्र!) इस काम को करने से तेरे (अंदर से) विकार भाग जाएंगे। परमात्मा का नाम स्मरण करने से (तेरे वास्ते) आत्मिक मौत नहीं रहेगी। (कामादिक) दूत जो धर्मराज के वश में डालते हैं तेरी तरफ देख भी नहीं सकेंगे। तू माया (के मोह) में नहीं डूबेगा, कोई भी चीज तुझे मोह नहीं सकेगी।2।

उधरहि आपि तरै संसारु ॥ राम नाम जपि एकंकारु ॥ आपि कमाउ अवरा उपदेस ॥ राम नाम हिरदै परवेस ॥३॥

पद्अर्थ: उधरहि = तू बच जाएगा। कमाउ = नाम जपने की कमाई कर। हिरदै = हृदय में।3।

अर्थ: (हे मेरे वीर! हे मेरे मित्र!) परमात्मा का नाम जप। इक ओअंकार को स्मरण करता रह। तू खुद (विकारों से) बच जाएगा, (तेरी संगति में) जगत भी (विकारों के समुंदर से) पार लांघ जाएगा। (हे मेरे वीर!) तू स्वयं नाम जपने की कमाई कर, और लोगों को भी उपदेश कर। परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसा।3।

जा कै माथै एहु निधानु ॥ सोई पुरखु जपै भगवानु ॥ आठ पहर हरि हरि गुण गाउ ॥ कहु नानक हउ तिसु बलि जाउ ॥४॥२८॥९७॥

पद्अर्थ: जा कै माथै = जिस के माथे पर। निधानु = खजाना। बलि = सदके।4।

अर्थ: (पर हे मेरे वीर!) वही मनुष्य भगवान को याद करता है जिसके माथे पे (भगवान की कृपा से) ये खजाना (प्राप्त करने का लेख लिखा हुआ) है।

हे नानक कह: मैं उस मनुष्य से कुर्बान जाता हूँ, जो आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता रहता है।4।28।97।


रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५ चउपदे दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जो पराइओ सोई अपना ॥ जो तजि छोडन तिसु सिउ मनु रचना ॥१॥

पद्अर्थ: तजि = त्याग के। सिउ = साथ।1।

अर्थ: (माल धन आदिक) जो (अंत में) बेगाना हो जाना है, उसे हम अपना माने बैठे हैं, हमारा मन उस (माल धन) से मस्त रहता है, जिसे (आखिर) छोड़ जाना है।1।

कहहु गुसाई मिलीऐ केह ॥ जो बिबरजत तिस सिउ नेह ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहहु = बताओ। केहु = किस तरह? बिबरजत = विवर्जित, मनाही। नेह = प्यार।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) बताओ, हम प्रभु-पति से कैसे मिल सकते हैं, अगर हमारा (सदा) उस माया से प्यार है, जिससे हमें मना किया हुआ है?।1। रहाउ।

झूठु बात सा सचु करि जाती ॥ सति होवनु मनि लगै न राती ॥२॥

पद्अर्थ: जाती = जानी है। सति = सत्य। मनि = मन में। राती = रत्ती भी।2।

अर्थ: (ये ख्याल झूठा है कि हमने यहाँ सदा बैठे रहना है, पर यह) जो झूठी बात है इसे हमने ठीक समझा हुआ है। (मौत) जो अवश्यंभावी है, हमारे मन को रत्ती भर नहीं जचती।2।

बावै मारगु टेढा चलना ॥ सीधा छोडि अपूठा बुनना ॥३॥

पद्अर्थ: बावै = बाएं, उल्टी तरफ। मारगु = रास्ता। छोडि = छोड़ के। अपूठा = उल्टा।3।

अर्थ: (बुरी तरफ प्यार डालने के कारण) हमने बुरी तरफ जीवन का रास्ता पकड़ा हुआ है, हम जीवन की टेढ़ी चाल चल रहे हैं। जीवन का सीधा राह छोड़ के हम जीवन डोर की उल्टी बुनाई कर रहे हैं।3।

दुहा सिरिआ का खसमु प्रभु सोई ॥ जिसु मेले नानक सो मुकता होई ॥४॥२९॥९८॥

पद्अर्थ: दुहा सिरिआ का = दोनों तरफ का (उल्टे मार्ग का और सीधे मार्ग का)। मुकता = विकारों से मुक्त।4।

अर्थ: (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) (जीवन के अच्छे और बुरे) दोनों तरफ का मालिक परमात्मा स्वयं ही है। जिस मनुष्य को परमात्मा (अपने चरणों में) जोड़ता है, वे बुरे राह से बच जाते हैं।4।29।98।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ कलिजुग महि मिलि आए संजोग ॥ जिचरु आगिआ तिचरु भोगहि भोग ॥१॥

पद्अर्थ: कलिजुग महि = जगत में, कष्ट भरी दुनिया में। मिलि = मिल के। संजोग = (पिछले) संबंधों के कारण। आए = आ एकत्र होते हैं। जिचरु = जितना समय। भोगहि = भोगते हैं।1।

अर्थ: इस कष्टों भरी दुनिया में (स्त्री और पति) पिछले सम्बंधों के कारण मिल के आ इकट्ठे होते हैं। जितना वक्त (परमात्मा से) हुक्म मिलता है उतना समय (दोनों मिल के जगत के) पदार्थ भोगते हैं।1।

जलै न पाईऐ राम सनेही ॥ किरति संजोगि सती उठि होई ॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: (अपने मरे पति के साथ दुबारा) किए जा सकने वाले मिलाप की खातिर (स्त्री) उठ के सती हो जाती है, (पति की चिता में जल मरती है, पर आग में) जलने से प्यार करने वाला पति नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

देखा देखी मनहठि जलि जाईऐ ॥ प्रिअ संगु न पावै बहु जोनि भवाईऐ ॥२॥

पद्अर्थ: जलै = आग में जलने से। सनेही = प्यारा, प्यार करने वाला। किरति = (कृत्य) करने योग्य, जिसके करने का तमन्ना है। संजोग = मिलाप की खातिर। हठि = हठ से। जलि जाईऐ = जल जाते हैं। प्रिअ संगु = प्यारे (पति) के साथ।2।

अर्थ: एक दूसरी को देख के मन के हठ के साथ (ही) जल जाते हैं (पर मरे पति की चिता में जल के स्त्री अपने) प्यारे का साथ नहीं प्राप्त कर सकती। (इस तरह बल्कि) कई जूनियों में भटकते हैं।2।

सील संजमि प्रिअ आगिआ मानै ॥ तिसु नारी कउ दुखु न जमानै ॥३॥

पद्अर्थ: सील = मीठा स्वभाव। संजमि = संयम में, मर्यादा में, जुगति में। प्रिअ = प्यारे की। जमानै दुखु = जमों का दुख, मौत का डर, आत्मिक मौत का खतरा।3।

अर्थ: जो स्त्री मीठे स्वभाव की जुगति में रह के (अपने) प्यारे (पति) का हुक्म मानती है, उस स्त्री को यमों का दुख नहीं छू सकता।3।

कहु नानक जिनि प्रिउ परमेसरु करि जानिआ ॥ धंनु सती दरगह परवानिआ ॥४॥३०॥९९॥

पद्अर्थ: जिन = जिस (स्त्री) ने। प्रिउ = पति। करि = करके। धंनु = धन्यता के योग्य, सराहनीय।4।

अर्थ: हे नानक! कह: जिस (स्त्री) ने अपने पति को ही एक पति कर के समझा है (भाव, सिर्फ अपने पति में ही पति-भावना रखी है) जैसे भक्त का पति एक परमात्मा है। वह स्त्री असली सती है, वह भाग्यशाली है, वह परमात्मा की हजूरी में स्वीकार है।4।30।99।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ हम धनवंत भागठ सच नाइ ॥ हरि गुण गावह सहजि सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धनवंत = धन वाले, धनाढ, धनवान। भागठ = भाग्यशाली। नाइ = नाम के द्वारा। सच नाइ = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम की इनायत से। गावह = हम गाते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = श्रेष्ठ प्रेम में।1। रहाउ।

अर्थ: (ज्यों ज्यों) हम परमात्मा के गुण (मिल के) गाते हैं, सदा स्थिर प्रभु के नाम की इनायत से हम (परमात्मा के नाम धन के) धनी बनते जा रहे हैं। भाग्यशाली बनते जा रहे हैं, आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, प्रेम में मगन रहते हैं।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh