श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कबीर निरमल बूंद अकास की परि गई भूमि बिकार ॥ बिनु संगति इउ मांनई होइ गई भठ छार ॥१९५॥

पद्अर्थ: निरमल = साफ, पवित्र। अकास की बूँद = आकाश से पड़ने वाली वर्षा की बूँद, (ऊँचे मण्डलों में रहने वाले परमात्मा का अंश)। परि गई = गिर पड़ी। भूमि बिकार = नकारी धरती में। इउ = इसी तरह। मानई = मनुष्य। भठ छार = जलती हुई भट्ठी की राख।195।

अर्थ: हे कबीर! (वर्षा के समय) आकाश (से बरसात) की जो साफ बूँद नकारा धरती पर गिर पड़ी, (वह किसी का कुछ सँवार नहीं सकी, बल्कि खुद भी) वह, मानो, (जलती हुई) भट्ठी की राख हो गई। यही हाल संगति के बिना मनुष्य का होता है (परम पवित्र परमात्मा की अंश जीव जनम ले के अगर कुसंग में फंस गया तो सृष्टि की कोई सेवा करने की बजाय खुद भी विकारों में जल मरा)।195।

कबीर निरमल बूंद अकास की लीनी भूमि मिलाइ ॥ अनिक सिआने पचि गए ना निरवारी जाइ ॥१९६॥

पद्अर्थ: लीनी मिलाइ = (हल सोहागे आदि से सँवारी हुई जमीन में) मिला लेता है। रिवारी ना जाइ = आकाशी बूँद उस धरती से निखेड़ी नहीं जा सकती। पचि गए = कोशिश करके थक टूट गए।196।

अर्थ: हे कबीर! (वर्षा के वक्त) आकाश (से बरसात) की जिस साफ बूँद को (समझदार जमींदार ने हल आदि से जोत कर) सँवारी हुई अपनी ज़मीन में (हद-बन्ना ठीक करके) मिला लिया, वह बूँद ज़मीन से हटाई नहीं जा सकती, चाहे अनेक समझदार कोशिश करके थक-टूट जाएं।196।

नोट: बरखा होती है तो बादलों से बूँदें हरेक किस्म की धरती पर पड़ती हें। कहीं नकारी, कलराठी, या रेतीली धरती है, जहाँ कुछ भी पैदा नहीं होता, यहाँ पड़ने वाली बूँदें बुरी धरती की संगति के कारण कुछ नहीं सँवारतीं, बल्कि अपना आप ही गवा जाती हैं। कहीं पर ताकत वाली जमीन है, जिसमें फसल, बाग़–बगीचे आदि सुंदर लह–लह करते हैं; इस जमीन में पड़ी बूँदें सृष्टि की और ज्यादा सेवा करके अपना आप सँवार जाती हैं, कयोंकि समझदार जमीनदार हल चला के, सुहागा फेर के धरती को सँवार–बना के बरसात के पानी को उस धरती में अच्छी तरह मिला लेता है।

यही हाल है मनुष्य का। जीवात्मा ऊँचे मण्डलों में बसते परमात्मा का अंश है। जनम लेकर जीव इस धरती पर आता है, अगर कहीं विकारियों की सोहबत में बैठ जाए तो अपना आप भी गवा जाता है और किसी और की कोई सेवा नहीं कर सकता; पर परमात्मा की मेहर हो, इसको गुरु मिल जाए, तो गुरु इसके शरीर–धरती को ऐसा सँवार देता है, कि इसकी ज्ञानेन्द्रिय साथियों को ऐसा तराश देता है कि यह अपना जीवन भी सफल कर लेता है, और औरों की भी सेवा करता है; कोई विकार, कोई कुसंग इसको इस सुंदर रास्ते से हटा नहीं सकता।

(नोट: कलराठी बिना ज्योति से सँवारी धरती पर पड़ा बरखा का पानी धरती पर जाला बन जाने के कारण कहुत कम धरती में जज़्ब होता है)।

(यही हाल मनुष्य का समझो। पूरे गुरु की मेहर से उसकी जीभ कान आदि इंद्रिय पर–निंदा आदि विकारों से हट जाते हैं। इस सँवारी हुई सारी धरती से वह मनुष्य प्रभु-चरणों में ऐसा जुड़ता है कि कोई विकार उसको वहाँ से विछोड़ नहीं सकता)।196।

नोट: शलोक नं: 184 से 188 तक के पाँच शलोकों में कबीर जी ने इस्लामी शरह, बांग, नमाज़, हज, कुर्बानी का वर्णन किया है; इस वास्ते इनमें शब्दावली भी आमतौर पर इस्लामी ही बरती है।

नंबर 189 से ले के 196 तक आठ शलोकों में ब्राहमणों के रस्मी गुरु बनने और मूर्ति-पूजा का जिकर है; इन में शब्दावली भी सारी हिन्दकी ही बरती गई है।

आगे शलोक नं: 197 से 201 तक में फिर ‘कुर्बानी’ देने का जिक्र है; यहाँ फिर सारे शब्द और ख्याल आम तौर पर मुसलमानी हैं।

कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ ॥ सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किन्हि फुरमाई गाइ ॥१९७॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। जाइ था = जा रहा था। आगै = वहाँ गए को आगे। किन्हि = किस ने? फुरमाइ गाइ = गाय (ज़बह करने) का हुक्म दिया था। किनि फुरमाइ गाइ = किसने कहा था कि मेरे नाम पर गाय ज़बह करो (तो पाप बख्शे जाएंगे)? किसने कहा था कि मेरे नाम पर गाय की कुर्बानी दो (तब बख्शे जाओग)?।197।

अर्थ: हे कबीर! मैं काबे का हज करने के लिए जा रहा था, वहाँ जाते को आगे से खुदा मिल गया! वह मेरा साई (खुदा खुश होने की बजाय कि मैंउसके घर का दीदार करने आया हूँ, बल्कि) मेरे पर गुस्से हो गया (और कहने लगा) कि मैंने तो यह हुक्म नहीं दिया जो मेरे नाम पर तू गाय (आदि) की कुर्बानी दे (और, मैं तेरे गुनाह बख्श दूँगा)।197।

कबीर हज काबै होइ होइ गइआ केती बार कबीर ॥ सांई मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर ॥१९८॥

पद्अर्थ: होइ होइ गइआ = कई बार हुआ। साई = हे साई! पीर = हे पीर! हे मुरशिद! खता = दोष। हज काबै = काबे का हज।198।

अर्थ: हे कबीर! मैं कई बार, हे साई! (तेरे घर-) काबे के दीदार करने के लिए गया हूँ। पर, हे ख़ुदा! तू मेरे साथ बात ही नहीं करता, मेरे में तू कौन-कौन सी गलतियां देख रहा है? (जो हज और कुर्बानी से भी बख्शे नहीं गए)? (भाव, हज और कुर्बानी से खुदा खुश नहीं होता)।198।

कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु ॥ दफतरु दई जब काढि है होइगा कउनु हवालु ॥१९९॥

पद्अर्थ: जु = जो। जीव = जीवों को। जोरु = जबरदस्ती, धक्का। करि = कर के। कहते हहि जु = पर कहते हैं कि। हलालु = जायज़, भेटा करने योग्य, रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक। दई = (सब जीवों के साथ प्यार करने वाला) परमात्मा।

(नोट: इस शब्द ‘दई’ का प्रयोग यहाँ विशेष तौर पर मजेदार और अर्थ–भरपूर है। जो लोग ये यकीन रखते हैं कि खुदा किसी कुर्बानी दे देने से खुश होता है और गुनाह बख्श देता है, वे उसको ‘रबिल आलमीन’ भी कहते हैं। सारे आलम का पालनहार होते हुए भी वह उस गाय आदि पशू को भी पालता और ‘प्यार करता’ है। फिर ये कैसे हो सकता है कि वह उस व्यक्ति से खुश हो जो उसी के प्यारे और पाले हुए को उसी की खातिर ज़बह करे, और खुद ही खा–पी के यह समझ ले कि ये कुर्बानी खुदा को पहुँच गई है, और उसने मेरे गुनाह बख्श दिए हैं)।

दफतरि काढि है = लेखा करेगा।199।

अर्थ: हे कबीर! जो लोग जबरदस्ती करके (गाय आदि) जीवों को मारते हैं; पर कहते हैं कि (यह ज़बह किया हुआ मास) खुदा के नाम पर कुर्बानी के काबिल हो गया है, जब सब जीवों से प्यार करने वाला खुदा (इन लोगों से- कर्मों का लेखा माँगेगा, तब इनका क्या हाल होगा?) (भाव, कुबांनी देने से गुनाह बख्शे नहीं जाते)।199।

नोट: यहाँ मास खाने अथवा ना खाने पर बहस नहीं है। कबीर जी सिर्फ ये कहते हैं कि कुर्बानी देनें वाले खा–पी जाते हैं, पर मान ये लेते हैं कि खुदा के आगे भेट किया गया है और खुदा ने हमारे पाप बख्श दिए हैं। खुदा को खुश करने की जगह ये तो उसको नाराज़ करने वाली बात है।

कबीर जोरु कीआ सो जुलमु है लेइ जबाबु खुदाइ ॥ दफतरि लेखा नीकसै मार मुहै मुहि खाइ ॥२००॥

पद्अर्थ: नीकसै = निकलता है। मुहै मुहि = मुँह पर, बार बार मुँह पर। खाइ = खाता है।200।

अर्थ: हे कबीर! जो भी मनुष्य किसी पर जबरदस्ती करता है और जुल्म करता है; (और जुल्म का) लेखा खुदा माँगता है। जिस किसी की भी लेखे की बाकी निकलती है वह बड़ी सजा भुगतता है।200।

नोट: किए हुए गुनाहों को ‘कुरबानी’ दे के धोया नहीं जा सकता।

कबीर लेखा देना सुहेला जउ दिल सूची होइ ॥ उसु साचे दीबान महि पला न पकरै कोइ ॥२०१॥

पद्अर्थ: दिल सूची = दिल की सुच, दिल की स्वच्छता, दिल की पाकीज़गी। दीबान = कचहरी। पला न पकरै कोइ = कोई सख्श पल्ला नहीं पकड़ता, कोई ऐतराज नहीं करता।201

अर्थ: हे कबीर! (वह रब मनुष्य से सिर्फ दिल की पाकीज़गी की कुर्बानी माँगता है) अगर मनुष्य के दिल की पवित्रता कायम हो तो अपने किए अमलों का लेखा देना आसान हो जाता है; (इस पवित्रता की इनायत से) उस सच्ची कचहरी में कोई रोक-टोक नहीं करता।201।

नोट: कबीर जी की वाणी पर विचार करते हुए अब तक हम ये अच्छी तरह देख आए हैं कि कबीर जी मुसलमान नहीं थे, वे हिन्दू जुलाहा थे। सो, उनको हज पर जाने की कोई जरूरत नहीं थी, किसी और की खामियों को यकीनी तौर पर और तसल्ली से समझाने के लिए कविता में यह एक तरीका है कि अपने आप को भी वही काम करता जाहिर किया जाता है। हिन्दू कर्मकांड की विरोधता करते हुए सतिगुरु अरजन साहिब ने भी इसी तरह ही लिखा है;

सोरठि महला ५ असटपदी॥ पाठु पढ़िओ अरु बेदु बीचारिओ, निवलि भुअंगम साधे॥ पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ, अधिक अहंबुधि बाधे॥१॥ पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई, मै कीए करम अनेका॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै, दीजै बुधि बिबेका॥१॥ रहाउ॥ ...

चुँकि आम मुसलमान काबे को खुदा का घर समझता है, इसलिए कबीर जी भी वही ख्याल बता के कहते हैं कि खुदा मेरे हज पर खुश होने की जगह मेरे से गुस्से हो गया। अनेक बार हज करने पर भी खुदा खुश हो के क्यों हाज़ी को दीदार नहीं देता और वह हाज़ी ख़ुदा की निगाहों में अभी भी क्यों गुनहगार समझा जाता है; इस भेद का जिक्र इन शलोकों में किया गया है कि ख़ुदा के नाम पर गाय आदि की कुर्बानी देनी, मिल–जुल के खा–पी जाना सब कुछ खुद ही, और फिर ये समझ लेना कि इस कुर्बानी के इव्ज़ में हमारे गुनाह बख्श दिए गए हैं: ये बड़ा भारी भुलेखा है। यह, खुदा को खुश करने का तरीका नहीं। खुदा खुश होता है दिल की पाकीज़गी पवित्रता से।

नामदेव जी ने भी इसी तरह बीठुल–मूर्ति के पुजारियों की ताड़ना की है और बताया है कि क्यों इतने नाक रगड़ने पर भी उनको बीठल के दर्शन नहीं होते। कहते हैं कि तुम पूजा आदि तो करते हो, पर अपने ईष्ट पर पूरी श्रद्धा नहीं रखते;

गौंड नामदेव जी॥
आजु नामे बीठलु देखिआ, मूरख कउ समझाऊ रे॥१॥ रहाउ॥

कबीर धरती अरु आकास महि दुइ तूं बरी अबध ॥ खट दरसन संसे परे अरु चउरासीह सिध ॥२०२॥

पद्अर्थ: धरती अरु आकास महि = सारी सृष्टि में। दुइ = हे द्वैत! अबध = अ+बध, जिसका वध ना किया जा सके। तूं बरी अबध = तुझे बड़ी मुश्किल से मारा जा सकता है। खट दरसन = छह भेख (जोगी, जंगम, सेवड़े, बौधी, बैरागी)। संसे = संशय में, सहम में। अरु = और। सिध = पहुँचे हुए माहिर जोगी जो जोग के साधनों में प्रपक्व हो चुके हैं।

अर्थ: हे कबीर! (कह:) है द्वैत! सारी सृष्टि में ही (तू बहुत बली है) तुझे बहुत मुश्किल से मारा जा सकता है। (हज करने और कुर्बानी देने वाले मुल्ला, या ठाकुर-पूजा करने वाले ब्राहमण तो कहीं रहे) छह भेषों के त्यागी और (योग साधना में सिद्धहस्त हुए) चौरासी सिद्ध भी, हे द्वैत! तुझसे सहमे हुए हैं।

कबीर मेरा मुझ महि किछु नही जो किछु है सो तेरा ॥ तेरा तुझ कउ सउपते किआ लागै मेरा ॥२०३॥

पद्अर्थ: किआ लागै मेरा = मेरा कुछ भी खर्च नहीं होता।

अर्थ: हे कबीर! (इस ‘दुइ’ को मिटाने के लिए ना हज, कुर्बानियां, ना ठाकुर-पूजा ना ब्राहमण की सेवा, ना त्याग और ना ही योग साधना- ये कोई भी सहायता नहीं करते। सिर्फ एक ही तरीका है वह यह कि अपना आप प्रभु के हवाले किया जाए, इसी का नाम ‘दिल-साबति’ है। सो, प्रभु के दर पे अरदास कर और कह:) हे प्रभु जो कुछ मेरे पास है (यह तन मन धन), इसमें कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसको मैं अपनी कह सकूँ; जो कुछ मेरे पास है सब तेरा ही दिया हुआ है। (यदि तेरी मेहर हो तो) तेरा बख्शा हुआ (यह तन मन धन) मैं तेरी भेट करता हूँ, इसमें मेरे पल्ले से कुछ भी खर्च नहीं होता।

कबीर तूं तूं करता तू हूआ मुझ महि रहा न हूं ॥ जब आपा पर का मिटि गइआ जत देखउ तत तू ॥२०४॥

पद्अर्थ: तूं तूं करता = तूं तूं कहता, (हे प्रभु!) तेरा जाप करता, हर वक्त तुझे स्मरण करते हुए। तू हूआ = मैं तेरा ही रूप हो गया हूँ, मैं तेरे में ही लीन हो गया हूँ। हूँ = (ये ख्याल कि) मैं हूँ, ‘मैं मैं’ का स्वभाव, अपनी बड़ाई की चाह। आपा पर का = अपने पराए वाला भेदभाव। जत = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तत = उधर। तू = (हे प्रभु!) तू ही (दिख रहा है)।

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के दर पर यूँ कह: हे प्रभु! तेरी मेहर से) हर वक्त तेरा स्मरण करते हुए मैं तेरे में लीन हो गया हूं, मेरे अंदर ‘मैं मैं’ का विचार रह ही नहीं गया है। (तेरा स्मरण करते हुए अब) जब (मेरे अंदर से) अपने-पराए वाला भेदभाव मिट गया है (‘दुइ’ मिट गई है), मैं जिधर देखता हूँ मुझे (हर जगह) तू ही दिख रहा है।204।

नोट: शलोक नं: 203 और 204 दोनों एक साथ पढ़ने हैं।

कबीर बिकारह चितवते झूठे करते आस ॥ मनोरथु कोइ न पूरिओ चाले ऊठि निरास ॥२०५॥

पद्अर्थ: बिकार = विकार, बुरे काम। बिकारह चितवते = बुरे काम की सोचे सोचते। झूठे आस करते = उन पदार्थों की तमन्नाएं करते जो नाशवान हैं। मनोरथु = मनो+रथु, मन की भाग दौड़, मन की वह आशा जिसकी खातिर दौड़ भाग करते रहे। निरास = आशा पूरी हुए बिना ही, दिल की आशाएं साथ ले के।

अर्थ: हे कबीर! (जो मनुष्य ‘दुइ’ में फसे रह के प्रभु का स्मरण नहीं करते) जो सदा बुरे काम करने की सोचे सोचते रहते हैं, जो सदा इन नाशवान पदार्थों की ही तमन्नाएं पालते रहते हैं, वे मनुष्य दिल की आशाएं साथ ले के ही (यहाँ से) चल पड़ते हैं, उनके मन की कोई दौड़-भाग पूरी नहीं होती (भाव, किसी भी पदार्थ के मिलने से उनके मन की दौड़-भाग खत्म नहीं होतीं, आशाएं और-और बढ़ती जाती हैं)।205।

कबीर हरि का सिमरनु जो करै सो सुखीआ संसारि ॥ इत उत कतहि न डोलई जिस राखै सिरजनहार ॥२०६॥

पद्अर्थ: संसारि = संसार में। इत = यहाँ, इस मौजूदा जनम में। उत = वहाँ, इस जनम के बाद, परलोक में। कतहि = कहीं भी। राखै = रखवाली करता है, (विकारों और आशाओं से) बचाता है।

अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य परमात्मा की याद हृदय में बसाता है, वह इस जगत में सुखी जीवन व्यतीत करता है; वह मनुष्य इस लोक में परलोक में कहीं भी (इन आशाओं ओर विकारों के कारण) भटकता नहीं है, क्योंकि परमातमा सवयं उसको इनसे बचाता है।206।

कबीर घाणी पीड़ते सतिगुर लीए छडाइ ॥ परा पूरबली भावनी परगटु होई आइ ॥२०७॥

पद्अर्थ: घाणी पीढ़ते = (विकारों और आशाओं की) घाणी में पीढ़े जाते (जैसे तिल कोल्हू में पीढ़े जाते हैं)। परा पूरबली = पहले जनम के समय की। भावनी = श्रद्धा, प्यार।

अर्थ: हे कबीर! (दुनिया के जीव विकारों और दुनियावी आशाओं की) घाणी में (इस तरह) पीढ़े जा रहे हैं, (जैसे कोल्हू में तिल पीढ़े जाते हैं;) (पर जो जो ‘हरि का स्मरण करै’) उनको सतिगुरु (इस घाणी में से) बचा लेता है। (प्रभु-चरणों से उनका) प्यार जो धुर से चला आ रहा था (पर जो इन विकारों और आशाओं के तले दब गया था, वह नाम-जपने की इनायत और सतिगुरु की मेहर से) दोबारा हृदय में चमक उठता है।207।

कबीर टालै टोलै दिनु गइआ बिआजु बढंतउ जाइ ॥ ना हरि भजिओ न खतु फटिओ कालु पहूंचो आइ ॥२०८॥

पद्अर्थ: टालै टोलै = टाल मटोल में, आज कल करते हुए (क्योंकि विकारों और आशाओं की तरफ से रुचि नाम-जपने की ओर लगने नहीं देती)। दिनु = उम्र का हरेक दिन। बिआजु = (शाहूकार अपनी राशि-पूंजी ज्यों ज्यों सूद पर चढ़ाता है, त्यों त्यों सूद बढ़ के वह रकम बड़ी होती जाती है, इसी तरह मनुष्य के अंदर विकारों और आशाओं की इकट्ठी हुई राशि-पूंजी और-और विकारों और आशाओं की तरफ़ प्रेरित करती है, इस तरह ये विकार और अधिक मनुष्य के हृदय में बढ़ते जाते हैं) ब्याज, सूद। खतु = लेखा, (विकारों और आशाओं के) संस्कार (जो मन में बने रहते हैं)।

अर्थ: हे कबीर! (जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं आते, उनके किए विकारों और बनाई हुई आशाओं के कारण नाम-जपने की ओर से) आजकल उनकी उम्र का वक्त गुज़रता जाता है, (विकारों और आशाओं का) ब्याज बढ़ता जाता है। ना ही वे परमात्मा का स्मरण करते हें, ना ही उनका (विकारों और आशाओं का यह) लेखा खत्म होता है। (बस! इन विकारों और आशाओं में फसे हुओं के सिर पर) मौत आ पहुँचती है।208।

महला ५ ॥ कबीर कूकरु भउकना करंग पिछै उठि धाइ ॥ करमी सतिगुरु पाइआ जिनि हउ लीआ छडाइ ॥२०९॥

पद्अर्थ: कूकरु = कुक्ता। भउकना = भौंकने वाला। करंग = कंकाल, मुरदा। करमी = (प्रभु की) मेहर से। जिनि = जिस (गुरु) ने। हउ = मुझे।209।

अर्थ: हे कबीर! भौंकने वाला (भाव लालच का मारा हुआ) कुक्ता सदा मुरदे की तरफ ही दौड़ता है (इसी तरह विकारों और आशाओं में फसा मनुष्य सदा विकारों और आशाओं की ओर ही दौड़ता है, तभी ये स्मरण से टाल-मटोले करता है)। मुझे परमातमा की मेहर से सतिगुरु मिल गया है, उसने मुझे (इन विकारों और आशाओं के पँजे से) छुड़ा लिया है।209।

नोट: यह शलोक नं: 209 ओर इसके आगे के दो शलोक 210 और 211 गुरु अरजन साहिब जी के हैं, क्योंकि इन तीनों ही शलोकों का शीर्षक ‘महला ५’ है।

शलोक नं: 207 में कबीर जी ने कहा था कि जिनको सतिगुरु मिल जाता है, उनको वह विकारों और आशाओं के चक्करों में से निकाल लेता है। शलोक नं: 208 में कहते हैं कि जिनको गुरु नहीं मिलता, वे प्रभु का स्मरण नहीं कर सकते, और ना ही विकारों और आशाओं से उनकी खलासी हो सकती है। कबीर जी के इसी ही ख्याल को गुरु अरजन साहिब और खोल के बयान करते हैं कि गुरु के बिना ये जीव टाल–मटोल करने पर मजबूर है क्योंकि इसका स्वभाव कुत्ते जैसा है, इस की आदत ही ऐसी है कि हर वक्त मुर्दे के पीछे दौड़ता फिरे। जिस पर प्रभु की अपनी मेहर हो उसको सतिगुरु मिलता है, वही इन विकारों और आशाओं से बचाता है।

महला ५ ॥ कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ॥ धरती भारि न बिआपई उन कउ लाहू लाहि ॥२१०॥

पद्अर्थ: धरती साध की = सतिगुरु की धरती, सतिगुरु की संगति। तसकर = चोर, विकारी लोग। बैसहि = आ बैठते हैं, अगर आ बैठें। गाहि = गहि, पकड़ के, सिदक से, और विचार छोड़ के।

(नोट: कई टीकाकार इस शब्द ‘गाहि’ का अर्थ ‘कभी’ करते हैं, और इसको फारसी का शब्द समझते हैं, पर यह गलत है। इस शलोक के हरेक शब्द को ध्यान से पढ़ें, हरेक शब्द हिन्दी = संस्कृत का है। इस्लामी मत का भी यहाँ कोई प्रसंग नहीं हैं सो, बाकी शब्दों की ही तरह ये भी संस्कृत के नजदीक ही है)।

भारि = भार से, भार तले, तस्करों के भार तले। न बिआपई = नहीं वयापता, कोई मुश्किल नहीं समझती, असर तले नहीं आती। उन कउ = उन तस्करों को। लाहू = लाह ही, लाभ ही (मिलता है)। लाहि = लहहि, उह तसकर लाभ ही लहहि, वे विकारी बल्कि लाभ ही उठाते हैं

अर्थ: हे कबीर! अगर विकारी मनुष्य (सौभाग्यों से) और आशाएं छोड़ के (और दरवाजे छोड़ के) सतिगुरु की संगति में आ बैठें, तो विकारियों का असर उस संगति पर नहीं पड़ता। हाँ, विकारी लोगों को अवश्य लाभ पहुँचता है, वह विकारी लोग जरूर फायदा उठाते हैं।210।

नोट: शलोक नं: 209 वाले ही ख्याल को जारी रखा गया है। विकारी लोगों का जोर गुरु और गुर–संगति पर नहीं पड़ सकता, क्योंकि गुरु महान ऊँचा है। पर हाँ, सतिगुरु और उसकी संगति की इनायत से विकारियों को अवश्य लाभ पहुँचता है।

महला ५ ॥ कबीर चावल कारने तुख कउ मुहली लाइ ॥ संगि कुसंगी बैसते तब पूछै धरम राइ ॥२११॥

पद्अर्थ: तुख = तोह, चावलों के छिल्के। लाइ = लगती है, बजती है।

अर्थ: हे कबीर! (छिल्कों से) चावल (अलग करने) की खातिर (छड़ने के वक्त) तोहों को मुसली (की चोट) लगती है। इसी तरह जो मनुष्य विकारियों की सोहबति में बैठता है (वह भी विकारों की चोट खाता है, विकार करने लग जाता है) उससे धर्मराज लेखा माँगता है।211।

नोट: शलोक नं: 210 में ‘साध की धरती’ और ‘तस्कर’ की मिसाल दे के कबीर जी ने कहा है कि ‘तस्करों’ का असर ‘धरती’ पर नहीं हो सकता। क्यों? इसलिए कि ‘धरती’ का भार ‘तसकरों’ के भार से बहुत ज्यादा है। ‘साध की धरती’ भारी है, बलवान है, इसलिए तस्कर जोर नहीं डाल सकते। अगर भलाई वाला पासा तगड़ा हो, तो वहाँ विकारी व्यक्ति भी आ के भलाई की ओर पलट आते हैं।

नं: 211 में ‘चावल’ और ‘तुख’ की मिसाल है। वज़न में ‘चावल’ भारा है ‘तुख’ हल्का है। ‘तुख’ (तोह, छिल्का) कमजोर होने के कारण मार खाता है; इसी तरह विकारियों के तगड़े समूह में अगर कोई साधारण सा मनुष्य (चाहे वह भला ही हो, पर उनके मुकाबले में कमजोर दिल हो) बैठना शुरू कर दे, तो वह भी उसी स्वभाव वाला बन के विकारों से मार खाता है।

नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत ॥ काहे छीपहु छाइलै राम न लावहु चीतु ॥२१२॥

पद्अर्थ: छीपहु = ठेक रहे हो। छाइलै = रजाईयों के अंबरे।212।

अर्थ: त्रिलोचन कहता है: हे मित्र नामदेव! तू तो माया में फसा हुआ लगता है। ये अंबरे क्यों ठेक रहा है? (रजाईयां चादरें धो-धो के बिछाए जा रहा है, धोबी वाले काम कर रहा है) परमात्मा के (चरणों) से चिक्त क्यों नहीं जोड़ता?।212।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh