श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1374

कबीर भली भई जो भउ परिआ दिसा गईं सभ भूलि ॥ ओरा गरि पानी भइआ जाइ मिलिओ ढलि कूलि ॥१७७॥

पद्अर्थ: भली भई = (मनुष्य के मन की हालत) अच्छी हो जाती है। जो = जब। भउ = (परमात्मा का) डर, ये डर कि परमात्मा को बिसार के माया के पीछे भटकने से कई ठोकरें खानी पड़ती हैं। दिसा = (और-और) दिशाएं, और-और दिशाओं की भटकना। ओरा = ओला, अहिण। गरि = (सेक से) गल के। ढलि = ढलक के, नीचे के तल की तरफ ढलक के। कूलि = नदी।

अर्थ: हे कबीर! जब मनुष्य के अंदर (यह) डर पैदा होता है (कि परमात्मा को बिसार के माया के पीछे भटकते हुए कई ठोकरें खानी पड़ती हैं) तो (इसके) मन की हालत अच्छी हो जाती है, इसको (परमात्मा की ओट के बिना और) सारी दिशाएं भूल जाती हैं। (परमात्मा का डर मनुष्य के कठोर हुए मन के लिए, मानो, सेक का काम देता है; जैसे सेक लगने से तापमान बढ़ने से) ओला पिघल के फिर पानी बन जाता है, और बह के नदी में जा मिलता है।172।

नोट: बरखा पड़ने पर बरसात की बूँदें मिल के नदी में जा मिलती हैं पर बहुत ठंड हो जाने पर वह बूँदे जम के ओले (अहिण) बन जाती हैं, ये ओले आपस में रगड़ खा के टकरा के धरती पर इधर–उधर गिरते हैं ढलकते हैं बिखरते हैं। जब इनको फिर गर्मी मिलती है तापमान बढ़ने से, ये दोबारा पानी बन कर अपने मूल नदी के पानी में जा मिलते हैं।

माया मनुष्य के अंदर कठोरता पैदा कर देती है; लोगों से भी रूखा और ईश्वर के प्रति भी रूखा; माया की भटकना में इधर–उधर ठोकरें खाता फिरता है। जब प्रभु का डर–रूप सेक इसको लगता है, तो और तरफों से भूल के ये प्रभु-चरणों में आ जुड़ता है।

कबीरा धूरि सकेलि कै पुरीआ बांधी देह ॥ दिवस चारि को पेखना अंति खेह की खेह ॥१७८॥

पद्अर्थ: धूरि = धूल, मिट्टी। सकेलि कै = इकट्ठी कर के। पुरीआ = नगरी। देह = शरीर। को = का। पेखना = देखने को सुंदर। अंति = आखिर को। खेह की खेह = मिट्टी से पैदा हुई फिर मिट्टी में जा मिली।

अर्थ: हे कबीर! (जैसे) मिट्टी इकट्ठी करके एक नगरी बसाई जाती है वैसे ही (पाँच तत्व इकट्ठे कर के परमात्मा ने) यह शरीर रचा है। देखने को चार दिन सुंदर लगता है, पर आखिर में जिस मिट्टी से बना है उसी मिट्टी में ही मिल जाता है।178।

कबीर सूरज चांद कै उदै भई सभ देह ॥ गुर गोबिंद के बिनु मिले पलटि भई सभ खेह ॥१७९॥

पद्अर्थ: सूरज चांद कै उदै = सूर्य और चँद्रमा के प्रकाश की खातिर।

अर्थ: हे कबीर! (पाँच-तत्वों से यह) शरीर-रचना इस वास्ते हुई है कि इसमें सूरज और चँद्रमा का उदय हो (भाव, नर्म-दिली और शीतलता पैदा हों, पर ये गुण तभी पैदा हो सकते हैं अगर गुरु मिले ओर गुरु के द्वारा गोबिंद के चरणों में जुड़ें)। गुरु परमात्मा के मेल के बिना ये शरीर दोबारा मिट्टी का मिट्टी ही हो जाता है (भाव, यह मनुष्य-शरीर बिल्कुल व्यर्थ ही चला जाता है)।179।

नोट: इस शलोक को पिछले शलोक के साथ मिला के पढ़ो। ‘अंति खेह की खेह’ और ‘पलटि भई सभ खेह’ से साफ दिखता है कि दोनों शलोक इकट्ठे ही विचारने हैं।

भले ही ये नगरी चार दिनों के वास्ते ही है, पर इसमें सूरज का प्रकाश होना चाहिए, इसमें चँद्रमा की ठंडी–मीठी किरणें पड़नी चाहिए। और, सूरज वाला प्रकाश और चँद्रमा वाली शीतलता तब ही उदय हो सकती है यदि गुरु के माध्यम से परमात्मा मिले।

शलोक नं: 174 से ले कर 177 तक ध्यान से पढ़ें। जीव के चारों तरफ विकारों की तपश है (दाझन है), इसकी अंतरात्मा को चँद्रमा वाली शीतलता की जरूरत है, जैसे चँदन को उसकी अपनी ठंडक साँपों के जहर से बचाए रखती है। माया के असर तले सदा यह खतरा है कि जीव ओले (अहिण) की तरह कठोर ना बन जाएं, इनको अंतरात्मे सूरज की गरमी की जरूरत है। ये गर्मी (प्यार) और ये शीतलता गुरु परमात्मा के चरणों में जुड़ने से मिलता है।

जह अनभउ तह भै नही जह भउ तह हरि नाहि ॥ कहिओ कबीर बिचारि कै संत सुनहु मन माहि ॥१८०॥

पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस हृदय में। अनभउ = अंदरूनी समझ, ज्ञान, जिंदगी के सही रास्ते की समझ। भै = दुनिया वाले डर फिक्र। भउ = सहम, संशा। सुनहु मन माहि = मन लगा के सुनो, ध्यान से सुनो।180।

अर्थ: हे संत जनो! ध्यान लगा के सुनो, मैं कबीर ये बात विचार के कह रहा हूँ- जिस हृदय में जिंदगी के सही रास्ते की समझ पैदा हो जाती है, वहाँ (दाझन, संशय, कठोरता आदि) कोई खतरा नहीं रह जाता। पर, जिस हृदय में अभी (शांत जीवन को भुला देने के लिए खिझ, सहम, बेरहमी आदि कोई) डर मौजूद है, वहाँ परमात्मा का निवास नहीं हुआ।180।

कबीर जिनहु किछू जानिआ नही तिन सुख नीद बिहाइ ॥ हमहु जु बूझा बूझना पूरी परी बलाइ ॥१८१॥

पद्अर्थ: तिन बिहाइ = उनकी उम्र गुजरती है। सुख नीद = (संशय = सहमों में पड़े रहने से भी) गफ़लत की नींद, बेपरवाही में। बूझा = समझ लिया। बूझना = समझने योग्य बात कि ‘जह अनभउ तह भै नही, जह भउ तह हरि नाहि’। पूरी परी बलाइ = पूरी बला गले में पड़ गई है, जगत के संशयों का मुकाबला करने का मुश्किल काम कभी बिसरता ही नहीं।181।

अर्थ: हे कबीर! जिस लोगों ने (जीवन के इस भेद को) रक्ती भर भी नहीं समझा वह (इस दाझन, संशय, कठोरता आदि में बिलकते हुए भी) बेपरवाही से उम्र गुजार रहे हैं; पर (‘गुर गोबिंद’ की मेहर से) मैंने ये बात समझ ली है कि ‘जह अनभउ तह भै नही, जह भउ तह हरि नाहि’; मुझे ये बात किसी भी वक्त नहीं बिसरती।181।

(नोट: यहाँ ये भाव नहीं कि कबीर जी इस राह पर चलने को पसंद नहीं करते। कबीर जी कहते हैं कि लोग तो इन कामादिकों की चोटें खाते हुए और ‘हाय हाय’ करते हुए भी बेपरवाह बन रहे हैं; पर मैं दिन-रात इनका मुकाबला कर रहा हूँ, वैसे ये काम है बड़ा मुश्किल)।

कबीर मारे बहुतु पुकारिआ पीर पुकारै अउर ॥ लागी चोट मरम की रहिओ कबीरा ठउर ॥१८२॥

पद्अर्थ: मारे = जिसको (‘दाझन संसा’ आदि की) मार पड़ती है। बहुत पुकारिआ = वह बहुत हाहाकार करता है, बहुत दुखी होता है। पीर = चोट, पीड़ा। पीर पुकारै अउर = ज्यों ज्यों (‘दाझन संसे’ आदि की) पीड़ा उठती है त्यों त्यों और पुकारता है और दुखी होता है। चोट = शब्द की चोट। मरंम की = दिल को भेदने वाली। रहिओ ठउर = जगह पर ही रह गया हूँ, पुकारने के लायक ही नहीं रहा, ना ‘दाझन संसे’ आदि मारते हैं और ना ही मैं पुकारता हूँ।182।

अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य को (‘दाझन संसे’ आदि की) मार पड़ती है, वह बहुत हाहाकार करता है, ज्यों-ज्यों वह पीड़ा उठती है त्यों-त्यों और दुखी होता है (पर फिर भी माया का पीछा नहीं छोड़ता)। मुझे कबीर को गुरु के शब्द की चोट लगी है जिसने मेरा दिल भेद लिया है, अब मैं एक जगह पर (भाव, प्रभु-चरणों में) टिक गया हूँ। (मुझे यह दाझन संसा आदि दुखी कर ही नहीं सकते)।182।

कबीर चोट सुहेली सेल की लागत लेइ उसास ॥ चोट सहारै सबद की तासु गुरू मै दास ॥१८३॥

पद्अर्थ: सेल = नेज़ा, गुरु का शब्द रूप नेज़ा। सुहेली = सुख देने वाली।

लेइ उसास = भरी हुई साँसें लेता है, प्रभु को मिलने की तमन्ना पैदा होती है।

अर्थ: हे कबीर! गुरु के शब्द-रूप नेज़े की चोट है भी सुखदाई। जिस मनुष्य को ये चोट लगती है (बिरही नारी की तरह उसके अंदर) पति-प्रभु को मिलने की तीव्र इच्छा पैदा हो जाती है। जो (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु-शब्द की चोट खाता रहता है, उस पूजनीय मनुष्य का मैं (हर समय) दास (बनने को तैयार) हूँ।183।

(नोट: ‘दाझन संसे’ आदि की चोट तो दुखी करती है, पर गुरु के शब्द रूप नेज़े की चोट सुख पहुँचाती है)।

नोट: गउड़ी राग में कबीर जी प्रभु चरणों के प्रेमी की हालत एक विरहणी नारि जैसी बताते हें। परदेस गए पति का वह नारी राह देखती है, उसकी आँखें वैराग जल से भर जाती हैं, वह गहरी साँसें लेते हैं, पर उन आहों में से भी उसे ढारस नहीं मिलती क्योंकि राह देखती का दिल भरता ही नहीं, देखती जाती है।

पंथु निहारे कामिनी, लोचन भरीले उसासा॥
उरु न भिजै पगु न खिसै, हरि दरसन की आसा॥१॥ ....–गउड़ी कबीर

कबीर मुलां मुनारे किआ चढहि सांई न बहरा होइ ॥ जा कारनि तूं बांग देहि दिल ही भीतरि जोइ ॥१८४॥

पद्अर्थ: मुलां = हे मुल्लां! किआ चढहि = चढ़ने का कोई फायदा नहीं। मुनारे किआ चढहि = मीनार पर चढ़ने का तुझे खुद को कोई लाभ नहीं, बांग देने का तुझे खुद को कोई फायदा नहीं (मुल्ला मीनार पे चढ़ के बांग देता है ताकि मुसलमान सुन के नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में आ जाएं। पर उसके अपने दिल में कठोरता है, तो जहाँ तक उसकी अपनी ज़ात का ताल्लुक है, उसको इस बांग देने से कोई लाभ नहीं। रब दिल में बसता है, अगर वह बसता दिख जाए तो दिल में नरमी और प्यार पैदा होना चाहिए। यदि ये अवस्था नहीं बनी तो ऊँचा बोल = बोल के हम रब को धोखा नहीं दे सकते)। बहरा = बहरा।

जा कारनि = जिस रब की नमाज़ की खातिर। जोइ = देख, ढूँढ।184।

अर्थ: हे कबीर! (कह:) हे मुल्ला्! मस्जिद की मीनार पर चढ़ने का तुझे खुद ही कोई लाभ नहीं हो रहा। जिस (रब की नमाज़) की खातिर तू बांग दे रहा है, उसको अपने दिल में देख (तेरे अंदर ही बसता है। यदि तेरे अपने अंदर शांती नहीं है, सिर्फ लोगों को ही बुला रहा है, तो) खुदा बहरा नहीं (वह तेरे दिल की हालत भी जानता है, उसको ठगा नहीं जा सकता)।184।

(नोट: बहरे व्यक्ति को ऊँचा कूक के आदर-प्यार की बात कह के, पर धीमी आवाज में गालियां निकाल के ठगा जा सकता है, पर रब तो दिल की हालत भी समझता है, वह नहीं ठगा जा सकता)।

सेख सबूरी बाहरा किआ हज काबे जाइ ॥ कबीर जा की दिल साबति नही ता कउ कहां खुदाइ ॥१८५॥

पद्अर्थ: सबूरी = संतोष। दिल साबति = दिल की साबती, दिल की शांती, अडोलता। ता कउ = उस की मर्जी से। कहा खुदाय = रब कहीं भी नहीं।185।

अर्थ: हे शेख! अगर तेरे अपने अंदर संतोष नहीं है, तो काबे का हज करने जाने का भी कोई लाभ नहीं है; क्योंकि, हे कबीर! जिस मनुष्य के अपने दिल में शांति नहीं आई, उसकी बाबत रब कहीं भी नहीं है।185।

कबीर अलह की करि बंदगी जिह सिमरत दुखु जाइ ॥ दिल महि सांई परगटै बुझै बलंती नांइ ॥१८६॥

पद्अर्थ: बलंती = जलती हुई आग, तृष्णा की जलती आग। नांइ = नाम से।186।

अर्थ: हे कबीर! रब की बँदगी कर, बँदगी करने से ही दिल का विकार दूर होता है, दिल में रब का ज़हूर होता है, और इस बँदगी की इनायत से लालच की जलती हुई आ्रग दिल में से बुझ जाती है।186।

कबीर जोरी कीए जुलमु है कहता नाउ हलालु ॥ दफतरि लेखा मांगीऐ तब होइगो कउनु हवालु ॥१८७॥

पद्अर्थ: जोरी कीए = जबरदस्ती करने से। हलालु = जायज़, भेटा करने योग्य, रब के नाम पर कुर्बानी देने के योग्य।187।

अर्थ: हे कबीर! (मुल्लां को बता कि) किसी पर जबरदस्ती करना जुल्म है, (तू जानवर को पकड़ कर बिसमिल्ला कह के ज़बह करता है और) तू कहता है कि यह (ज़बह किया हुआ जानवर) रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक हो गया है (और इस कुर्बानी से खुदा तेरे पर खुश हो गया है); (पर, ये मास तू खुद ही खा लेता है। इस तरह पाप बख्शे नहीं जाते, कभी सोच कि) जब रब की दरगाह में तेरे अमलों का हिसाब होगा तो तेरा क्या हाल होगा?।187।

कबीर खूबु खाना खीचरी जा महि अम्रितु लोनु ॥ हेरा रोटी कारने गला कटावै कउनु ॥१८८॥

पद्अर्थ: खूबु खाना = अच्छी खुराक। लोनु = नमक। हेरा = मास। कारने = गरज से, नीयत से। कटावै कउनु = मैं कटने को तैयार नहीं हूँ।188।

अर्थ: हे कबीर! (मुललां को बेशक कह कि कुर्बानी के बहाने मास खाने से) खिचड़ी खा लेनी अच्छी है जिसमें सिर्फ स्वाद का नमक ही डाला गया है। मैं तो इस बात के लिए तैयार नहीं हूँ कि मास रोटी खाने की नीयत मेरी अपनी हो पर (कुर्बानी बहाना बना के किसी पशू को) ज़बह करता फिरूँ।188।

नोट: कोई भी मज़हब धर्म हो आदमी के लिए वह तब तक ही लाभदायक है जब तक उसके बताए पद्चिन्हों पर चल कर मनुष्य अपने दिल में भलाई पैदा करने की कोशिश करता है, ख़ालिक और उसकी ख़लकति के लिए दिल में मुहब्बत बनाता है। जब मनुष्य रिवाजी तौर पर मज़हब के असूलों और रस्मों को करने लग जाता है, पर ये नहीं देखता कि दिल में कोई भली तब्दीली आई है अथवा नहीं, या, कहीं भलाई की जगह अंदर कठोरता तअसुब आदि तो नहीं बढ़ रहे, उस वक्त उसके सारे धार्मिक उद्यम व्यर्थ हो जाते हैं।

पठानों–मुग़लों के राज के वक्त हमारे देश में इस्लामी शरह का कानून चलता था। भारत वासियों के लिए और आम पठानों–मुग़लों के लिए भी अरबी बोली बेगाने देश की बोली थी; सो, हरेक मुसलमान कुरान–शरीफ़ को नहीं समझ सकता था। इसका नतीजा ये निकला कि जहाँ तक कानून को बरतने का संबन्ध पड़ता था, राजसी ताकत काज़ियों–मौलवियों के ही हाथ में ही थी क्योंकि ये लोग कुरान–शरीफ़ के अर्थ करने में ऐतबार–योग माने जाते थे। एक तरफ ये लोग राजसी ताकत के मालिक; दूसरी तरफ, यही लोग धार्मिक नेता आम लोगों को जीवन का सही राह बताने वाले। ये दोनों विरोधी बातें इकट्ठी हो गई। राज–प्रबंध चलाने के वक्त गुलाम हिन्दू कौम पर कठोरता बरतनी इन लोगों के लिए स्वाभाविक बात थी। पर इस कठोरता को अपनी तरफ से ये लोग इस्लामी शरह समझते और बताते थे। सो, मज़हब में से इनको स्वाभाविक रूप से ही दिल की कठोरता ही मिलती गई। जिस भी देश में राज–प्रबंध किसी विशेष मज़हब के असूलों के अनुसार चलाया जाता रहा है, उस मज़हब के प्रचारकों का यही हाल होता रहा है।

कबीर जी अपने वक्त के काजियों–मौलवियों की यह हालत देख के इन शलोकों में कह रहे हैं कि मज़हब ने, मज़हब के रीति–रिवाजों ने, बांग निमाज हज आदि ने, साफ–दिली सिखानी थी। पर, अगर रिश्वत, कठोरता, तअसुब आदि के कारण ना सिर्फ दिल निर्दयी हो चुका है, बल्कि यही कर्म दिल को और कठोर बनाए जा रहे हैं, तो इनके करने का कोई लाभ नहीं। यही ख्याल कबीर जी ने प्रभाती राग के शब्द नं: 4 में बताया है;

...मुलां, कहहु निआउ खुदाई॥
तेरे मन का भरम न जाई॥१॥ रहाउ॥
पकरि जीउ आनिआ, देह बिनासी, माटी कउ बिसमिल कीआ॥
जोति सरूप अनाहत लागी, कहु हलालु किआ कीआ॥२॥
किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ, किआ मसीति सिरु लाइआ॥
जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु, किआ हज काबै जाइआ॥३॥

कबीर गुरु लागा तब जानीऐ मिटै मोहु तन ताप ॥ हरख सोग दाझै नही तब हरि आपहि आपि ॥१८९॥

पद्अर्थ: तब जानीऐ = तब जानो, तब ये समझो। गुरु लागा = गुरु मिल गया है। तन ताप = शरीर के कष्ट, शरीर को जलाने वाले दुख-कष्ट। हरख = खुशी। सोग = चिन्ता। दाझै नही = ना जलाए। आपहि आप = हर जगह खुद ही खुद दिखता है।189।

अर्थ: हे कबीर! (जनेऊ आदि पहन के हिन्दू समझता है कि मैंने फलाणे ब्राहमण को अपना गुरु धार लिया है; पर) तभी समझो कि गुरु मिल गया है जब (गुरु धारण करने वाले मनुष्य के दिल में से) माया का मोह दूर हो जाए, जब शरीर को जलाने वाले कष्ट मिट जाएं, जब हरख-सोग कोई भी चिक्त को ना जलाए। ऐसी हालत में पहुँचने पर हर जगह परमात्मा ही दिखाई देता है।189।

कबीर राम कहन महि भेदु है ता महि एकु बिचारु ॥ सोई रामु सभै कहहि सोई कउतकहार ॥१९०॥

पद्अर्थ: भेदु = फर्क। एकु बिचारु = एक खास समझने वाली बात। सभै = सारे जीव। सोई = वही राम, उसी राम को। कउतकहार = रास धरने वाले, रास धारिए।190।

अर्थ: हे कबीर! (जनेऊ दे के ब्राहमण राम की पूजा-पाठ का उपदेश भी करता है; पर) राम-राम कहने में भी फर्क पड़ जाता है, इसमें भी एक बात समझने वाली है। एक राम तो वह है जिसको हरेक जीव स्मरण करता है (ये है सर्व-व्यापी राम, इसका स्मरण करना मनुष्य-मात्र का फर्ज है)। पर यही राम नाम रासधारिए भी (रासों में स्वांग बना-बना के) लेते हैं (यह राम अवतारी राम है और राजा दशरथ का पुत्र है, यही मूर्ति-पूजा व्यर्थ है)।190।

कबीर रामै राम कहु कहिबे माहि बिबेक ॥ एकु अनेकहि मिलि गइआ एक समाना एक ॥१९१॥

पद्अर्थ: रामै राम कहु = हर वक्त राम का नाम स्मरण कर। बिबेक = परख, पहचान। कहिबे माहि = कहने में, स्मरण में। अनेकहि = अनेक जीवों में। समाना एक = सिर्फ एक शरीर में टिका हुआ था।191।

अर्थ: हे कबीर! सदा राम का नाम जप, पर जपने के वक्त ये बात याद रखनी कि एक राम तो अनेक जीवों में व्यापक है (इसका नाम जपना हरेक मनुष्य का धर्म है), पर एक राम (दशरथ का पुत्र) सिर्फ एक शरीर में ही आया (अवतार बना; इसका जाप कोई गुण नहीं दे सकता)।191।

नोट: पिछले पाँच शलोक काज़ियों–मोलवियों की कमजोरियां बताने के लिए थे, अगले शलोकों में ब्राहमण द्वारा डाले गए भुलेखों की ओर ध्यान दिला रहे हैं।

कबीर जा घर साध न सेवीअहि हरि की सेवा नाहि ॥ ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन माहि ॥१९२॥

पद्अर्थ: जा घर = जिन घरों में। साध = भले मनुष्य, वह लोग जिन्होंने अपने मन को सुधार कर लिया है, सत्संगी। न सेवीअहि = नहीं सेवे जाते। सेवा = पूजा, भक्ति। ते घर = वह (सारे) घर। मरहट = मरघट, मसाण। सारखे = जैसे।

अर्थ: हे कबीर! (ठाकुरों की पूजा के हरेक दिन-दिहार के समय ब्राहमण की सेवा- बस! यह है शिक्षा जो ब्राहमण अपने श्रद्धालुओं को दे रहा है। श्रद्धालू बेचारे भी ठाकुर-पूजा और ब्राहमण सेवा करके अपने आप को सदाचारी और उत्तम हिन्दू समझ लेते हैं; पर असल बात यह है कि) जिस घरों में नेक बंदों की सेवा नहीं होती, और परमात्मा की भक्ति नहीं की जाती, वह घर (भले ही कितने ही पवित्र और साफ रखे जाते हों) मसानों जैसे हैं, उन घरों में (मनुष्य नहीं) भूतने बसते हैं।192।

कबीर गूंगा हूआ बावरा बहरा हूआ कान ॥ पावहु ते पिंगुल भइआ मारिआ सतिगुर बान ॥१९३॥

पद्अर्थ: गूँगा = (भाव) जो अपनी जीभ से झूठे या बुरे बोल नहीं बोलता, पराई निंदा नहीं करता। बावरा = पागल, बेसमझ। बहरा = कान से ना सुन सकने वाला, जो पराई निंदा नहीं सुनता। पिंगुला = लूला। पावहु ते = पैरों से (भाव, उन जगहों पर नहीं जाता जहाँ बुरे काम होते हों)। बान = शब्द का तीर, बाण।193।

अर्थ: हे कबीर! (जनेऊ पहन के ब्राहमण को गुरु धार के, ठाकुर-पूजा और हरेक दिन-त्यौहार के समय ब्राहमण की ही सेवा-पूजा करके गुरु वाला नहीं बना जा सकता; जिसको सचमुच पूरा गुरु मिलता है उसका सारा जीवन ही बदल जाता है) जिस मनुष्य के हृदय में सतिगुरु अपने शब्द का तीर मारता है, वह (दुनिया के लिए) गूँगा, कमला, बहरा और लूला हो जाता है (क्योंकि वह मनुष्य मुँह से बुरे बोल नहीं बोलता, उसको किसी की अधीनता नहीं होती, कानो से निंदा नहीं सनता, और पैरों से बुरी तरफ चल के नहीं जाता)।193।

कबीर सतिगुर सूरमे बाहिआ बानु जु एकु ॥ लागत ही भुइ गिरि परिआ परा करेजे छेकु ॥१९४॥

पद्अर्थ: भुइ = धरती पर, मिट्टी में। भुइ गिरि परिआ = (भाव,) निर अहंकार हो गया। परा करेजे छेक = कलेजे में छेद हो गया, हृदय शब्द में भेदा गया, हृदय प्रभु चरणों में परोया गया। सूरमा सतिगुर = वह गुरु जो स्वयं इन कामादिक वैरियों का मुकाबला सूरमों की तरह कर सकता है और करता है।194।

अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य को सूरमा सतिगुरु अपने शब्द का एक तीर मारता, तीर बजते ही वह मनुष्य अहंकार-हीन हो जाता है, उसका हृदय प्रभु-चरणों में परोया जाता है।194।

नोट: शलोक नं: 189 से ले के कबीर जी कह रहे हैं कि ब्राहमण के पास से जनेऊ पहनवा के उसको गुरु धार के ठाकुर-पूजा और दिन–दिहार के समय ब्राहमण की सेवा को हिन्दू अपना मुख्य धर्म समझ लेता है; पर इस बात की तरफ कभी ध्यान नहीं देता कि जीवन में क्या फर्क पड़ा है। पराई निंदा करनी और सुननी, विकारों की ओर जाना, अहंकार– ऐसे बुरे कर्मों को त्यागने का ख्याल भी नहीं आता। फिर भी समझता है कि मैं गुरु–परोहित वाला हूँ। जिन्हें सतिगरू मिलता है, उनमें ये विकार रह ही नहीं सकते, वे हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़े रहते हैं।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh