श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1292

रागु मलार बाणी भगत नामदेव जीउ की ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सेवीले गोपाल राइ अकुल निरंजन ॥ भगति दानु दीजै जाचहि संत जन ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सेवीले = मैंने तुझे स्मरण किया है। गोपाल = (गो = धरती। पाल = पालनहार) सृष्टि की रक्षा करने वाले परमात्मा। अकुल = अ+कुल, जिसका कोई खास कुल नहीं। निरंजन = (निर+अंजन) जो माया की कालिख से रहित है, जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। दीजै = कृपा करके दे। जाचहि = मांगते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: वह परमात्मा (मानो) एक बहुत बड़ा राजा है (जिसका इतना बड़ा शामियाना है कि) यह चारों दिशाएं (उस शामियाने की मानो) कनातें हैं, (राजाओं के राज-महलों में तस्वीर घर होते हैं, परमात्मा एक ऐसा राजा है कि) सारा बैकुंठ उसका (जैसे) तस्वीर-घर है, और सारे ही जगत में उसका हुक्म एक-सार चल रहा है।

(राजाओं की रानियों का जोबन तो चार दिनों का होता है, परमात्मा एक ऐसा राजा है) जिसके महल में लक्ष्मी है, जो सदा जवान रहती है (जिसका जोबन कभी नाश होने वाला नहीं), ये चाँद-सूर्य (उसके महल के, मानो) छोटे से दीपक हैं, जिस काल का हाला हरेक जीव के सिर पर है (जिस काल का हाला हरेक जीव को भरना पड़ता है, जिस काल से जगत का हरेक जीव थर-थर काँपता है) और जो काल (इस जगत-रूप शहर के सिर पर) कोतवाल है, वह काल बेचारा (उस परमात्मा के घर में, जैसे, एक) खिलौना है।1।

जां चै घरि दिग दिसै सराइचा बैकुंठ भवन चित्रसाला सपत लोक सामानि पूरीअले ॥ जां चै घरि लछिमी कुआरी चंदु सूरजु दीवड़े कउतकु कालु बपुड़ा कोटवालु सु करा सिरी ॥ सु ऐसा राजा स्री नरहरी ॥१॥

पद्अर्थ: च = का। चो = का। ची = की। चे = के। जां चै धरि = जिसके घर में।

नोट: शब्द ‘घरि’ व्याकरण के अनुसार अधिकरण कारक है; इसके साथ शब्द ‘चे’ भी ‘चै’ बन गया है। ‘चे’ और ‘के’ और ‘दे’ का एक ही भाव है; इसी तरह ‘चै’, ‘दै’ और ‘कै’ का भी एक ही अर्थ है। इसी ही शब्द के बंद नंबर 2 में ‘चै’ की जगह ‘कै’ है।

कुआरी = सदा जवान, कभी बुढी ना होने वाली, सदा सुंदर टिकी रहने वाली। दीवड़े = सुंदर दीए। दिग दिसै = (शब्द ‘दिस’ व्याकरण के अनुसार विशेष हालातों में ‘दिक’ ‘दिग’ बन जाता है, ‘दिश’ और ‘दिग’ के अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता), सारी दिशाएं, चारों दिशाओं की। सराइचा = कनात। चित्र = तस्वीर। साला = शाला, घर। चित्रसाला = तस्वीर घर। सपत लोक = (भाव,) सारी सृष्टि। सामानि = एक समान। पूरीअले = भरपूर है, व्यापक है, मौजूद है। कउतकु = खिलौना। बपुड़ा = बेचारा। कोटवालु = कोतवाल, शहर का रखवाला। सु = वह (काल)। करा = कर, हाला। सिरि = सब के सिरों पर। नरहरी = परमात्मा।1।

अर्थ: मैंने तो उस प्रभु का स्मरण किया है, जो सारी सृष्टि का रक्षक है, जिसकी कोई खास कुल नहीं है, जिस पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती और (जिस के दर पर) सारे भक्त मँगते हैं (और कहते हैं कि हे दाता! हमें) अपनी भक्ति की दाति बख्श।1। रहाउ।

जां चै घरि कुलालु ब्रहमा चतुर मुखु डांवड़ा जिनि बिस्व संसारु राचीले ॥ जां कै घरि ईसरु बावला जगत गुरू तत सारखा गिआनु भाखीले ॥ पापु पुंनु जां चै डांगीआ दुआरै चित्र गुपतु लेखीआ ॥ धरम राइ परुली प्रतिहारु ॥ सुो ऐसा राजा स्री गोपालु ॥२॥

पद्अर्थ: कुलालु = कुंभिआर, कुम्हार, बर्तन घड़ने वाला। चतुरमुख = चार मुँह वाला। डांवड़ा = सच्चे में ढालने वाला। जिनि = जिस (ब्रहमा) ने। बिस्व संसारु = सारा जगत। राचीले = रचा है, सिरजा है। जां कै घरि = जिस के घर में। ईसरु = शिव। बावला = कमला। सारखा = (संस्कृत: सार्ष्टि Possessing the same station condition or rank) जैसा, बराबर का। भाखीले = (जिसने) उचारा है। तत सारखा गिआनु भाखीले = जिसने अस्लियत बताई है, जो मौत की याद दिलाता है। जां चै दुआरे = जिसके दरवाजे पर। डांगीआ = चौबदार। लेखीआ = मुनीम, लेखा लिखने वाला। प्रतिहारु = दरबार। चित्रगुपतु = (one of the beings in yama’s world recording the vices and virtues of mankind) जमराज का वह दूत जो मनुष्यों के किए अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब लिखता है। परुली = प्रलय लाने वाला।2।

नोट: ‘सुो’– असल शब्द ‘सो’ है, यहाँ इसको ‘सु’ पढ़ना है; इस वास्ते ‘ो’ और ‘ु’ दोनों मात्राएं प्रयोग की गई हें।

अर्थ: सृष्टि का मालिक वह परमात्मा एक ऐसा राजा है कि (कि लोगों के ख्याल के अनुसार) जिस ब्रहमा ने सारा संसार पैदा किया है, चार मुँहों वाला वह ब्रहमा भी उसके घर में बर्तन घड़ने वाला एक कुम्हार ही है (भाव, उस परमात्मा के सामने लोगों का जाना-माना ब्रहमा भी इतनी ही हस्ती रखता है जितनी कि किसी गाँव के चौधरी के सामने गाँव का गरीब कुम्हार)। (इन लोगों की नजरों में तो) शिव जी जगत का गुरु (है), जिसने (जगत के जीवों के लिए) असल समझने-योग्य उपदेश सुनाया है (भाव, जो सारे जीवों को मौत का संदेशा पहुँचाता है, जो सब जीवों का नाश-कर्ता माना जा रहा है), ये शिव जी (सृष्टि के मालिक) उस परमात्मा के घर में (जैसे) एक बावला सा मसखरा है। (राजाओं के राज-महलों के दरवाजों पर चौबदार खड़े होते हैं, जो राजाओं की हजूरी में जाने वालों को रोकते व आज्ञा देते हैं, घट-घट में बसने वाले राजन-प्रभु ने ऐसा नियम बनाया है कि हरेक जीव का किया) अच्छा या बुरा काम उस प्रभु के महल के दर पर चौबदार है (भाव, हरेक जीव के अंदर हृदय-घर में प्रभु बस रहा है, पर जीव के अपने किए अच्छे-बुरे काम ही उस प्रभु से दूरी बना देते हैं)। जिस चित्रगुप्त का सहम हरेक जीव को लगा हुआ है, (वह) चित्रगुप्त उसके घर में एक मुनीम (जितनी हस्ती रखता) है। (लोगों के हिसाब से) पर्लय लाने वाला धर्मराज उस प्रभु के महल का एक (मामूली सा) दरबान है।2।

जां चै घरि गण गंधरब रिखी बपुड़े ढाढीआ गावंत आछै ॥ सरब सासत्र बहु रूपीआ अनगरूआ आखाड़ा मंडलीक बोल बोलहि काछे ॥ चउर ढूल जां चै है पवणु ॥ चेरी सकति जीति ले भवणु ॥ अंड टूक जा चै भसमती ॥ सुो ऐसा राजा त्रिभवण पती ॥३॥

पद्अर्थ: गण = शिव जी के विशेष सेवकों का संघ, जो गणेश की निगरानी में रहता है। गंधरब = देवताओं के रागी। गावंत आछै = गा रहे हैं। गरूआ = बड़ा। अनगरूआ = छोटा सा। काछे = (कांक्षित) मन इच्छित, सुंदर। मंडलीक = (मंडलीक = A tributary king) वह राजे जो किसी बड़े महाराजे के आगे हाला भरते हों। जां चै = जां चै (घरि), जिसके दरबार में। चेरी = दासी। सकति = माया। जीति ले = (जिस ने) जीत लिया है। अंड = ब्रहमंड, सृष्टि। अंड टूक = ब्रहमण्ड का टुकड़ा, धरती। भसमती = चूल्हा।3।

अर्थ: तीन भवनों का मालिक परमात्मा एक ऐसा राजा है, जिसके दर पर (शिव जी के) गण-देवताओं के रागी और सारे ऋषी - ये बेचारे ढाढी (बन के उसकी सिफतों की वारें) गाते हैं। सारे शास्त्र (जैसे) बहु-रूपीये हैं, (यह जगत, जैसे, उसका) छोटा सा अखाड़ा है, (इस जगत के) राजे उसका हाला भरने वाले हैं, (उसकी कीर्ति के) सुंदर बोल बोलते हैं। वह प्रभु एक ऐसा राजा है कि उसके दर पर पवन चौर-बरदार है, माया उसकी दासी है जिसने सारा जगत जीत लिया है, यह धरती उसके लंगर में, मानो, चूल्हा है (भाव, सारी धरती के जीवों को वह खुद ही रिज़क देने वाला है)।3।

जां चै घरि कूरमा पालु सहस्र फनी बासकु सेज वालूआ ॥ अठारह भार बनासपती मालणी छिनवै करोड़ी मेघ माला पाणीहारीआ ॥ नख प्रसेव जा चै सुरसरी ॥ सपत समुंद जां चै घड़थली ॥ एते जीअ जां चै वरतणी ॥ सुो ऐसा राजा त्रिभवण धणी ॥४॥

पद्अर्थ: कूरमा = (कौजले ऊर्मि वेगो स स्य) विष्णु का दूसरा अवतार, कछुआ, जिसने धरती को स्तम्भ बन के रखा हुआ है। जब देवता और दैत्य क्षीर = समुंदर मथने लगे उन्होंने मंद्राचल को मथानी के रूप में बरता। पर मथानी इतनी भारी थी कि नीचे धसती जाती थी। विष्णु ने कछूए का रूप धारण करके मंद्राचल के नीचे पीठ दी। पालु = पलंघ। सहस्र = हजार। फनी = फनों वाला। बासकु = शेशनाग। वालूआ = तनियां। पाणीहारीआ = पानी भरने वाले। नख = नाखून। प्रसेव = पसीना। नख प्रसेव = नाखूनों का पसीना। जा चै = जा चै (घरि)। सुरसरी = देव नदी, गंगा। सपत = सात। घड़थली = घड़वंजी। वरतणी = बर्तन।4।

अर्थ: तीनों भवनों का मालिक वह प्रभु एक ऐसा राजा है कि विष्णु का कछु-अवतार जिसके घर में, जैसे, एक पलंघ है; हजार फनों वाला शेशनाग जिसकी सेज की तनियों (का काम देता) है; जगत की सारी बनस्पति (उसको फूल भेट करने वाली) मालिन है, छिआन्नवे करोड़ बादल उसका पानी भरने वाले (नौकर) हैं, गंगा उसके दर पर उसके नाखूनों का पसीना है, और सातों ही समुंदर उसके पनघट (घड़वंजी) हैं, जगत के ये सारे जीव-जंतु उसके बर्तन हैं।4।

जां चै घरि निकट वरती अरजनु ध्रू प्रहलादु अ्मबरीकु नारदु नेजै सिध बुध गण गंधरब बानवै हेला ॥ एते जीअ जां चै हहि घरी ॥ सरब बिआपिक अंतर हरी ॥ प्रणवै नामदेउ तां ची आणि ॥ सगल भगत जा चै नीसाणि ॥५॥१॥

पद्अर्थ: निकट वरती = नजदीक रहने वाला, निज का सेवक। नै = एक ऋषि का नाम है। हेला = खेल। बानवै = बावन, बावन बीर। हहि = हैं। घरी = घर में। जां चै घरी = जां चै घरि, जिसके घर में। तां ची = उसकी। आणि = ओट। जा चै नीसाणि = जिसके निशान तले, जिसके झण्डे तले।5।

अर्थ: वह प्रभु एक ऐसा राजा है जिसके घर में उसके नजदीक रहने वाले अर्जुन, प्रहलाद, अंबरीक, नारद, नेजै (जोग-साधना में) सिद्धहस्त योगी, ज्ञानवान मनुष्य, शिव जी के गण-देवताओं के रागी, बावन बीर आदि उसकी (एक साधारण सी) खेल हैं। जगत के यह सारे जीव-जंतु उस प्रभु के घर में हैं, वह हरि-प्रभु सब में व्यापक है, सबके अंदर बसता है।

नामदेव विनती करता है: मुझे उस परमात्मा की ओट का आसरा है सारे भक्त जिसके झंडे तले (आनंद ले रहे) हैं।5।1।

नोट: नामदेव जी परमात्मा के अनन्य भक्त थे, देवी-देवते अवतार आदि की पूजा की वे हमेशा निषोध करते रहे। गौंड राग में आप लिखते हैं;

हउ तउ एकु रमईआ लै हउ॥
आन देव बदलावनि दै हउ॥

पर, हिन्दू कौम में बेअंत देवी-देवताओं की पूजा आदि काल से चली आ रही है। इस शब्द में भक्त जी लोगों को इस तरह की (ईश्वर को छोड़ के) अन्य-पूजा और अनेक की पूजा से मना करते हैं, और कहते हें कि उस परमात्मा का आसरा लो जो सारी सृष्टि का मालिक है और यह सारे देवी-देवता जिस के दर पर साधारण से सेवक मात्र हैं।

मलार ॥ मो कउ तूं न बिसारि तू न बिसारि ॥ तू न बिसारे रामईआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: न बिसारे = ना बिसार। रामईआ = हे सुंदर राम!।1। रहाउ।

अर्थ: हे सुंदर राम! मुझे तू ना बिसारना, मुझे तू ना भुलाना, मुझे तू ना बिसारना।1। रहाउ।

आलावंती इहु भ्रमु जो है मुझ ऊपरि सभ कोपिला ॥ सूदु सूदु करि मारि उठाइओ कहा करउ बाप बीठुला ॥१॥

पद्अर्थ: आलावंती = (आलय = घर, ऊँचा घर, ऊँची जाति) हम घर वाले हैं, हम ऊँचे घराने वाले हैं, हम ऊँची जाति वाले हैं। भ्रमु = वहम, भुलेखा। कोपिला = कोप किया है, क्रोध किया है, गुस्से हो गए हैं। सूदु = शूद्र। सूदु सूदु करि = “शूद्र आ गया, शूद्र आ गया” कह कह के। मारि = मार कुटाई कर के। कहा करउ = मैं क्या करूँ? इनके आगे मेरे अकेले की पेश नहीं चलती। बाप बीठुला = हे बीठुला (सं: विष्ठल One situated at a distance) माया के प्रभाव से परे है।1।

अर्थ: (इन पण्डियों को) यह वहम है कि ये ऊँची जाति वाले हैं, (इस करके ये) सारे मेरे ऊपर गुस्से हो गए हैं; शूद्र-शूद्र कह: कह के और मार-पीट के मुझे इन्होंने उठा दिया है। हे मेरे बीठल पिता! इनके आगे मेरे अकेले की पेश नहीं चलती।1।

मूए हूए जउ मुकति देहुगे मुकति न जानै कोइला ॥ ए पंडीआ मो कउ ढेढ कहत तेरी पैज पिछंउडी होइला ॥२॥

पद्अर्थ: जउ = अगर। कोइला = कोई भी। पंडीआ = पांडे, पुजारी। मो कउ = मुझे। ढेढ = नीच। पैज = इज्जत। पिछंउडी होइला = पिछेतरी हो रही है, पीछे पड़ रही है, कम हो गई है।2।

अर्थ: यदि तूने मुझे मरने के बाद मुक्ति दे दी, तेरी मुक्ति का किसी को पता नहीं लगना; ये पांडे मुझे नीच कह रहे हैं, इस तरह तो तेरी अपनी ही इज्जत कम हो रही है (क्या तेरी बँदगी करने वाला कोई व्यक्ति नीच रह सकता है?)।2।

तू जु दइआलु क्रिपालु कहीअतु हैं अतिभुज भइओ अपारला ॥ फेरि दीआ देहुरा नामे कउ पंडीअन कउ पिछवारला ॥३॥२॥

पद्अर्थ: अतिभुज = बड़ी भुजाओं वाला, बहुत बली। अपारला = बेअंत। नामे कउ = नामदेव की ओर। पंडीअन कउ = पांडों की तरफ, पुजारियों की ओर। पिछवारला = पिछला पासा, पीठ।3।

अर्थ: (हे सुहणे राम!) तू तो (सब पर, चाहे कोई नीच कुल का हो अथवा ऊँची कुल का) दया करने वाला है, तू मेहर का घर है, (फिर तू) है भी बहुत बली और बेअंत। (क्या तेरे सेवक पर कोई तेरी मर्जी के बिना धक्का कर सकता है?) (मेरी नामदेव जी की आरजू सुन के प्रभु ने) देहुरा मुझ नामदेव की तरफ फेर दिया, और पांडों की ओर पीठ हो गई।3।2।

नोट: अगर नामदेव जी किसी बीठुल मूर्ति के पुजारी होते, तो वह पूजा आखिर तो बीठुल के मन्दिर में जा के ही हो सकती थी, और बीठुल के मन्दिर में रोजाना जाने वाले नामदेव को ये पांडे धक्के क्यों मारते? इस मन्दिर में से धकके खा के नामदेव बीठुल के आगे पुकार कर रहा है, यह मन्दिर जरूर बीठुल का ही होगा। यहाँ धक्के पड़ने से साफ जाहिर है कि नामदेव इससे पहले कभी किसी मन्दिर में नहीं गया, ना ही किसी मन्दिर में रखी किसी बीठुल-मूर्ति का वह पुजारी था। बीठुल मूर्ति कृष्ण जी की है, पर ‘रहाउ’ की तुक में नामदेव अपने ‘बीठुल’ को ‘रमईआ’ कह के बुलाते हैं। किसी एक अवतार की मूर्ति का पुजारी अपने ईष्ट को दूसरे अवतार के नाम से याद नहीं कर सकता। सो, यहाँ नामदेव उसी महान ‘बाप’ को बुला रहा है जिस को राम, बीठुल, मुकंद आदि सारे प्यारे नामों से बुलाया जा सकता है।

शब्द का भाव: स्मरण का नतीजा- निर्भयता और स्वाभिमान।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh