श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः १ ॥ घर महि घरु देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु ॥ पंच सबद धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु नीसाणु ॥ दीप लोअ पाताल तह खंड मंडल हैरानु ॥ तार घोर बाजिंत्र तह साचि तखति सुलतानु ॥ सुखमन कै घरि रागु सुनि सुंनि मंडलि लिव लाइ ॥ अकथ कथा बीचारीऐ मनसा मनहि समाइ ॥ उलटि कमलु अम्रिति भरिआ इहु मनु कतहु न जाइ ॥ अजपा जापु न वीसरै आदि जुगादि समाइ ॥ सभि सखीआ पंचे मिले गुरमुखि निज घरि वासु ॥ सबदु खोजि इहु घरु लहै नानकु ता का दासु ॥१॥

पद्अर्थ: घरु = प्रभु के रहने की जगह। सुजाणु = समझदार। पंच सबद = पाँच किस्म के साज़ों की आवाज़ (तार, धात, घड़ा, चंमड़ा और फूक से बजने वाले साज़)। धुनि = सुर, आवाज़। धुनिकार = एक रस सुर।

(नोट: शब्द ‘कार’ का भाव समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।

नीसाणु = नगारा। तार = ऊँची सुर। घोर = घनघोर। बाजिंत्र = बाजे। तह = उस अवस्था में। सुखमन कै घरि = (भाव, मिलाप अवस्था में) (सुखमना के घर में जहाँ जोगी प्राण टिकाते हैं)। सुंनि = शून्य में, अफुर अवस्था में, वह अवस्था जहाँ मन के फुरने शून्य हों। मनसा = मन का फुरना। कमलु = हृदय कमल। अंम्रिति = नाम अमृत से। सखीआ = ज्ञान-इंद्रिय। पंचे = सत, संतोख, दया, धर्म, धीरज। निज घरि = सिर्फ अपने घर में। घर महि = हृदय घर में। तखति = तख्त पर। साचि तखत = सदा कायम रहने वाले तख़्त पर। सुनि = सुन के। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ी रखता है। मनहि = मनि ही, मन में ही। सभि = सारी (बहुवचन)। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने वाला मनुष्य। खोजि = खोज कर के, समझ के। लहै = पा लेता है, ढूँढ लेता है। ता का = उस (मनुष्य) का।

नोट: ‘मनहि’ में से ‘मनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: वह है समझदार सतिगुरु पुरख जो हृदय-घर में परमात्मा के रहने की जगह दिखा देता है; (जब मनुष्य) उस घर में (पहुँचता है) तब गुरु का शब्द-रूप नगारा बजता है (भाव, गुरु-शब्द का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि कोई और आकर्षण उस पर असर नहीं डाल सकता, तब मानो,) पाँच किस्म के साजों की एक-रस संगीतक आवाज़ उठती है (जो मस्ती पैदा करती है) इस अवस्था में (पहुँच के) मनुष्य (बेअंत कुदरति के करिश्मे) द्वीपों, लोकों, पातालों, खण्डों और मण्डलों को देख के हैरान होता है; (इस सारी कुदरति का) पातशाह सच्चे तख़्त पर बैठा दिखता है, उस हालत में पहुँचने से, मानो, साज़ों की ऊँची सुर की घनघोर झड़ी लगी हुई रहती है, इस ईश्वरीय मिलाप में बैठा मनुष्य (मानो) राग सुन-सुन के अफुर अवस्था में तवज्जो जोड़े रखता है (भाव, ईश्वरीय मिलाप की मौज में इतना मस्त होता है कि जगत का कोई फुरना उसके मन में नहीं उठता)। यहाँ पर (इस अवस्था में) बेअंत प्रभु के गुण ज्यों-ज्यों विचारे जाते हैं, त्यों-त्यों मन का फुरना मन में ग़रक होता जाता है; ये मन किसी और तरफ़ नहीं जाता क्योंकि हृदय-रूप कमल-फूल (माया से) पलट के नाम-अमृत से भर जाता है; उस प्रभु में, जो सबका आदि है और जुगों के बनने से भी पहले का है, मन इस तरह लीन होता है कि प्रभु की याद (किसी वक्त) नहीं भूलती, जीभ हिलाए बग़ैर ही स्मरण होता रहता है।

(इस तरह) गुरु के सन्मुख होने पर मनुष्य पूरी तरह से अपने घर में टिक जाता है (जहाँ से इसको कोई बेदख़ल नहीं कर सकता, इसकी) सारी ज्ञान-इंद्रिय और पाँचों (दैवी गुण, भाव, सत-संतोख-दया-धर्म-धैर्य) संगी बन जाते हैं। सतिगुरु के शब्द को समझ के जो मनुष्य इस (सिर्फ अपने) घर को पा लेता है, नानक उसका सेवक है।1।

मः १ ॥ चिलिमिलि बिसीआर दुनीआ फानी ॥ कालूबि अकल मन गोर न मानी ॥ मन कमीन कमतरीन तू दरीआउ खुदाइआ ॥ एकु चीजु मुझै देहि अवर जहर चीज न भाइआ ॥ पुराब खाम कूजै हिकमति खुदाइआ ॥ मन तुआना तू कुदरती आइआ ॥ सग नानक दीबान मसताना नित चड़ै सवाइआ ॥ आतस दुनीआ खुनक नामु खुदाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: चिलमिलि = बिजली की चमक। बिसीआर = बहुत। फानी = नाश होने वाली। कालूबि अकल = अकल का कालब, अक्ल का पुतला, (भाव,) मूर्ख। मन = (फारसी) मैं। गोर = कब्र (भाव, मौत)। कमतरीन = बहुत ही बुरा। पुराब = पुर+आब, पानी से भरा हुआ। खाम = कच्चा। हिकमति = कारीगरी। सग = कुक्ता। दीबान = दरबार का। आतस = आतिश, आग। खुनक = ठंढा। मन न मानी = मैंने याद ही ना रखा। एकु चीजु = एक चीज़, अपना नाम। अवर = और। न भाइआ = अच्छी नहीं लगतीं। कूजै = कटोरा, प्याला। खुदाइआ = हे खुदा! तुआना तू = तू बलवान है। मन कुदरती आइआ = मैं तेरी कुदरति से (जगत में) आया हूँ। मसताना = मस्त। चढ़ै सवाइआ = बढ़ती रहे।

अर्थ: बिजली की चमक (की तरह) दुनिया (की चमक) बहुत है, पर है नाश हो जाने वाली, (जिस चमक को देख के) मुझ मूर्ख को मौत याद ही ना रही। मैं कमीना हूँ, मैं बहुत ही बुरा हूँ, पर, हे ख़ुदा! तू दरिया (-दिल) है; मुझे अपना एक ‘नाम’ दे, और चीज़ें ज़हर (जैसी) हैं, ये मुझे अच्छी नहीं लगतीं।

हे ख़ुदा! (मेरा शरीर) कच्चा कूज़ा (प्याला) है जो पानी से भरा हुआ है, यह तेरी (अजीब) कारीगरी है, (हे ख़ुदा!) तू तुआना (बलवान) है, मैं तेरी कुदरति से (जगत में) आया हूँ। हे ख़ुदा! नानक तेरे दरबार का कुक्ता है और मस्ताना है (मेहर कर, ये मस्ती) नित्य बढ़ती रहे, (क्योंकि) दुनिया आग (की तरह) है और तेरा नाम ठंढ डालने वाला है।2।

पउड़ी नवी मः ५ ॥ सभो वरतै चलतु चलतु वखाणिआ ॥ पारब्रहमु परमेसरु गुरमुखि जाणिआ ॥ लथे सभि विकार सबदि नीसाणिआ ॥ साधू संगि उधारु भए निकाणिआ ॥ सिमरि सिमरि दातारु सभि रंग माणिआ ॥ परगटु भइआ संसारि मिहर छावाणिआ ॥ आपे बखसि मिलाए सद कुरबाणिआ ॥ नानक लए मिलाइ खसमै भाणिआ ॥२७॥

पद्अर्थ: सभो = सारा। चलतु = तमाशा। सबदि = गुरु के शब्द से। नीसाणु = नगारा। निकाणिआ = बेमुथाज। छावाणिआ = साइबान। वखाणिआ = कहा जा सकता है। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जाणिआ = सांझ डाली जा सकती है। सभि = सारे। उधारु = पार उतारा, बचाव। परगटु = प्रकट। संसारि = संसार में। बखसि = मेहर कर के। खसमै = खसम को, पति को। भाणिआ = अच्छे लगते हैं।

अर्थ: यह सारा (जगत परमात्मा का) तमाशा हो रहा है, इसको तमाशा ही कहा जा सकता है, (इस तमाशे को रचने वाला) पारब्रहम परमात्मा सतिगुरु के माध्यम से जाना जाता है, सतिगुरु के शब्द (-रूप) नगारे से सारे विकार उतर जाते हैं (भाग जाते हैं), सतिगुरु की संगति में (रहने से, विकारों से) बचाव हो जाता है और बेमुथाज हो जाया जाता है। (गुरु की इनायत से) दातार प्रभु को स्मरण कर-कर के, (मानो) सारे रंग भोग लेते हैं (भाव, स्मरण के आनंद के मुकाबले में दुनियावी रंग फीके पड़ जाते हैं) (स्मरण करने वाला मनुष्य) जगत में भी प्रकट हो जाता है, प्रभु की मेहर की छतरी (सायबान) उस पर, मानो, तन जाती है।

मैं प्रभु से सदके हूँ, वह (गुरु से) खुद ही मेहर करके अपने साथ जोड़ लेता है। हे नानक! जो लोग पति-प्रभु को प्यारे लगते हैं उनको अपने साथ मिला लेता है।27।

नोट: कई विद्वान ये मानते हैं कि जब सतिगुरु नानक देव जी ने ‘वार’ उचारी; साथ-साथ ही ‘पउड़ियों’ के साथ सलोक भी उचारे। यह विचार ठीक नहीं है। ‘आसा दी वार’ और ‘माझ की वार’ में इस बारे विचार की जा चुकी है। यह पउड़ी नं: 27 एक और सबूत है। गुरु नानक देव जी की कुल पौड़ियां 27 हैं, पर यह पौड़ी गुरु अरजन साहिब ने ‘नई’ मिलाई, इसके साथ के शलोक गुरु नानक साहिब जी के ही हैं; क्या ये शलोक उन्होंने ‘पउड़ी’ के बग़ैर ही लिख दिए? ‘काव्य रचना’ के नियम से ये बात मेल नहीं खा सकती कि ‘मूल’ तो हो ही ना, पर उसके साथ संबंध रखने वाली ‘शाखा’ बना दी जाए। अस्लियत यह है कि ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियों’ में है। ‘सलोकों’ और ‘वार’ की ‘पौड़ियों’ को रचने का मौका एक नहीं है।

पर, यहाँ एक और प्रश्न उठता है: गुरु अरजन साहिब ने यह ‘नई पौड़ी’ क्यों मिलाई? कई विद्वान यह कह देते हैं कि फरीद जी और कबीर जी के शलोकों में जहाँ कहीं गुरु साहिब के अपने शलोक आए हैं, उनका कारण ये है कि भगतों के साथ-लगते शलोकों में कोई ना कोई कमी रह गई थी। कितना अनुचित और नीचे दर्जे का और बेअदबी भरा ख्याल है; वाणी के जिस ‘संग्रह’ को सिख अपना ‘गुरु’ मानता है उसी में कई अंग ‘कमी’ वाले बता रहा है। वह सुंदरता कैसी जिसमें कमी रह गई? हिन्दू भाई के इसी कच्चपने का भक्त नामदेव जी ने निषोध किया था। देखें, राग गौंड में “आज नामे बीठुल देखिआ”; एक तरफ़ शिव जी को अपना ‘ईष्ट’ मानना और साथ ही यह भी कहना कि वह क्रोध में आकर लोगों के लड़कों को श्राप दे के मार देता था। पर अगर विद्वान सज्जनों ने अभी भी इसी विचार पर अड़ना है तो क्या यह पउड़ी नं: 27 भी गुरु अरजन साहिब को इसीलिए दर्ज करनी पड़ी कि गुरु नानक साहिब की ‘वार’ में कोई ‘कमी’ रह गई थी? एक ही ‘संग्रह’ में जगह-जगह पैतड़े बदलना थिड़कना ही पड़ेगा।

फिर, यह ‘पउड़ी’ गुरु अरजन साहिब जी ने क्यों दर्ज की? इस बात का उक्तर तलाशने के लिए पढ़ें पउड़ी नं: 23, 24, 25 और 26। इन पौड़ियों में इस बात पर जोर है कि विद्वता, बुद्धिमक्ता, भगवा वेश और देश रटन जिंदगी का सही रास्ता नहीं हैं, ‘सतिगुरु बोहिथु बेड़ु’ है जो तृष्णा-अग्नि से बचाता है। पउड़ी नं: 26 में यह मानो इशारे मात्र वर्णन था। गुरु अरजन साहिब ने पउड़ी नं: 27 में इसकी और भी स्पष्ट व्याख्या कर दी है।

सलोक मः १ ॥ धंनु सु कागदु कलम धंनु धनु भांडा धनु मसु ॥ धनु लेखारी नानका जिनि नामु लिखाइआ सचु ॥१॥

पद्अर्थ: भांडा = दवात। मसु = स्याही। धनु = धन्य, भाग्यशाली, मुबारक। सु = वह (एकवचन)। सचु = सदा कायम रहने वाला।

अर्थ: मुबारिक है वह कागज़ और कलम, मुबारक है वह दवात और स्याही; और, हे नानक! मुबारक है वह लिखने वाला जिसने प्रभु का सच्चा नाम लिखाया (प्रभु की महिमा लिखाई)।1।

मः १ ॥ आपे पटी कलम आपि उपरि लेखु भि तूं ॥ एको कहीऐ नानका दूजा काहे कू ॥२॥

अर्थ: (हे प्रभु!) तू स्वयं ही तख़्ती (पट्टी) है, तू स्वयं ही कलम है, (पट्टी पर महिमा का) लेख भी तू स्वयं ही है।

हे नानक! (महिमा करने-कराने वाला) एक प्रभु को ही कहना चाहिए। और दूसरा कैसे हो सकता है?।2।

पउड़ी ॥ तूं आपे आपि वरतदा आपि बणत बणाई ॥ तुधु बिनु दूजा को नही तू रहिआ समाई ॥ तेरी गति मिति तूहै जाणदा तुधु कीमति पाई ॥ तू अलख अगोचरु अगमु है गुरमति दिखाई ॥ अंतरि अगिआनु दुखु भरमु है गुर गिआनि गवाई ॥ जिसु क्रिपा करहि तिसु मेलि लैहि सो नामु धिआई ॥ तू करता पुरखु अगमु है रविआ सभ ठाई ॥ जितु तू लाइहि सचिआ तितु को लगै नानक गुण गाई ॥२८॥१॥ सुधु

पद्अर्थ: गति = हालत। मिति = माप। गति मिति = कैसा है और कितना बड़ा है। अगोचरु = इन्द्रियों की पहुँच से परे। गुर गिआनि = गुरु के बख्शे ज्ञान से। रविआ = व्यापक। जितु = जिस (काम) में। अगिआनु = आत्मिक जीवन की तरफ से बेसमझी। भरमु = भटकना। पुरख = व्यापक। सचिआ = हे सदा कायम रहने वाले! लाइहि = तू लगाता है। को = कोई जीव। तितु = उस (काम) में।

अर्थ: हे प्रभु! जगत की बणतर तूने खुद ही बनाई है और तू खुद ही इसमें हर जगह मौजूद है; तेरे जैसा तेरे बिना और कोई नहीं, तू ही हर जगह गुप्त बरत रहा है। तू किस तरह का है और कितना बड़ा है; यह बात तू खुद ही जानता है, अपना मूल्य तू स्वयं ही डाल सकता है। तू अदृश्य है, तू (मानवीय) इन्द्रियों की पहुँच से परे है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, गुरु की मति तेरे दीदार करवाती है।

मनुष्य के अंदर जो अज्ञान, दुख और भटकना है ये गुरु के बताए ज्ञान द्वारा दूर होते हें।

हे प्रभु! जिस पर तू मेहर करता है उसको अपने साथ मिला लेता है वह तेरा नाम स्मरण करता है। तू सबको बनाने वाला है, सब में मौजूद है (फिर भी) अगम्य (पहुँच से परे) है, और है सब जगह व्यापक। हे नानक! (कह:) हे सच्चे प्रभु! जिधर तू जीव को लगाता है उधर ही वह लगता है तू (जिसको प्रेरता है) वही तेरे गुण गाता है।28।1। सुधु।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh