श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ पावतु रलीआ जोबनि बलीआ ॥ नाम बिना माटी संगि रलीआ ॥१॥

पद्अर्थ: पावतु = पाता है। रलीआ = मौजें। जोबनि = जवानी में, जवानी के समय में। बलीआ = बलवान, ताकत वाला। माटी संगि = मिट्टी के साथ। रलीआ = मिल जाता है, घुल मिल जाता है।1।

अर्थ: (हे भाई! जब तक) जवानी में (शारीरिक) शक्ति मिली हुई है (मनुष्य बेपरवाह हो के) मौजें करता है, अंत में शरीर मिट्टी के साथ मिल जाता है, (और जीवात्मा) परमातमा के नाम के बिना (खाली हाथ) ही रह जाती है।1।

कान कुंडलीआ बसत्र ओढलीआ ॥ सेज सुखलीआ मनि गरबलीआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कान = कानों में। कुंडलीआ = (सोने के) कुण्डल। ओढलीआ = पहिनता। सेज सुखलीआ = सुखदाई सेज, नर्म नर्म बिस्तरे। मनि = मन में। गरबलीआ = गरब करता है, अहंकार करता है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! मनुष्य) कानों में (सोने के) कुण्डल पहन के (सुंदर-सुंदर) कपड़े पहनता है, नर्म-नर्म बिस्तरों पर (सोता है), (और इन मिले हुए सुखों का अपने) मन में गुमान करता है (पर ये नहीं समझता कि ये शरीर आखिर मिट्टी हो जाना है, ये पदार्थ यहीं रह जाने हैं। सदा का साथ निभाने वाला सिर्फ परमात्मा का नाम ही है)।1। रहाउ।

तलै कुंचरीआ सिरि कनिक छतरीआ ॥ हरि भगति बिना ले धरनि गडलीआ ॥२॥

पद्अर्थ: तलै = नीचे। कुंचरीआ = हाथी। सिरि = सिर पर। कनिक छतरीआ = सोने के छत्र। धरनि = धरती। गडलीआ = दबा दी।2।

अर्थ: (हे भाई! मनुष्य को यदि सवारी करने के वास्ते अपने) नीचे हाथी (भी मिला हुआ है, और उसके) सिर पर सोने का छत्र झूल रहा है, (तो भी शरीर आखिर) धरती में ही मिलाया जाता है (इन पदार्थों के गुमान में मनुष्य) परमात्मा की भक्ति से वंचित ही रह जाता है।2।

रूप सुंदरीआ अनिक इसतरीआ ॥ हरि रस बिनु सभि सुआद फिकरीआ ॥३॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। फिकरीआ = फीके।3।

अर्थ: (हे भाई! अगर) सुंदर रूप वाली अनेक स्त्रीयां (भी मिली हुई हों तो भी क्या हुआ?) परमात्मा के नाम के स्वाद के मुकाबले में (दुनिया वाले ये) सारे स्वाद फीके हैं।3।

माइआ छलीआ बिकार बिखलीआ ॥ सरणि नानक प्रभ पुरख दइअलीआ ॥४॥४॥५५॥

पद्अर्थ: छलीआ = छलने वाली, ठगने वाली। बिखलीआ = विषौली, जहरीले। नानक = हे नानक! प्रभ = हे प्रभु! पुरख दइअलीआ = हे दयालु पुरख!।4।

अर्थ: (हे भाई! याद रखो कि) माया ठगने वाली ही है (आत्मिक जीवन की संपत्ति लूट लेती है), (दुनिया के विषौ-) विकार जहर भरे हैं (आत्मिक मौत का कारण बनते हैं)।

हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हे दयालु पुरख! मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे इस माया से इन विकारों से बचाए रख)।4।4।55।

आसा महला ५ ॥ एकु बगीचा पेड घन करिआ ॥ अम्रित नामु तहा महि फलिआ ॥१॥

पद्अर्थ: बागीचा = बाग़, संसार बगीचा। पेड = पेड़, वृक्ष, जीव। घन = बहुत, अनेक। करिआ = पैदा किए हैं। फलिआ = फल लगा।1।

अर्थ: हे भाई! ये जगत एक बग़ीचा है जिस में (विधाता माली ने) बेअंत पौधे लगाए हुए हैं (रंग-बिरंगे जीव पैदा किए हुए हैं, इनमें से इनके अंदर) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (सींचा जा रहा) है, उनमें (ऊँचे आत्मिक जीवन का) डर लग रहा है।1।

ऐसा करहु बीचारु गिआनी ॥ जा ते पाईऐ पदु निरबानी ॥ आसि पासि बिखूआ के कुंटा बीचि अम्रितु है भाई रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गिआनी = हे ज्ञानवान मनुष्य! जा ते = जिस (विकार) की सहायता से। पदु = दर्जा। निरबानी = वासना रहित, जहाँ माया की वासनाएं छू ना सकें। आसि पासि = तेरे चार चुफेरे। बिखूआ = जहर। कुंटा = कुंड, चश्में। बीचि = (तेरे) अंदर। भाई रे = हे भाई!।1। रहाउ।

अर्थ: हे ज्ञानवान मनुष्य! कोई ऐसी विचार कर जिसकी इनायत से वह (आत्मिक) दर्जा प्राप्त हो जाए जहाँ कोई वासना ना छू सके। हे भाई! तेरे चारों तरफ (माया के मोह के) जहर के चश्मे (चल रहे हैं जो आत्मिक मौत ले आते हैं; पर तेरे) अंदर (नाम-) अमृत (का चश्मा चल रहा है)।1। रहाउ।

सिंचनहारे एकै माली ॥ खबरि करतु है पात पत डाली ॥२॥

पद्अर्थ: एकै माली = एक माली को ही (हृदय में संभाल के रख)। खबरि करत है = सार लेता है। पात पत = हरेक पत्ते की।2।

अर्थ: (हे भाई! आत्मिक जीवन के वास्ते नाम-जल) सींचने वाले उस एक (विधाता-) माली को (अपने हृदय में संभाल के रखो) जो हरेक बूटे के पत्र पत्र डाली-डाली की संभाल करता है (जो हरेक जीव के आत्मिक जीवन के हरेक पहलू का ख्याल रखता है)।2।

सगल बनसपति आणि जड़ाई ॥ सगली फूली निफल न काई ॥३॥

पद्अर्थ: सगल बनसपति = सारी बनस्पति, बेअंत जीव-जंतु। आणि = ला के। जड़ाई = सजा दी है। फूली = फूल दे रही है, फूल लग रहे हैं। निफल = निष्फल।3।

अर्थ: (हे भाई! उस माली ने इस जगत-बगीचे में) सारी बनस्पति ला के सजा दी है (रंग-बिरंगे जीव पैदा करके संसार-बग़ीचे को सुंदर बना दिया है)। सारी बनस्पति फल-फूल रही है, कोई भी पौधा फल से खाली नहीं (हरेक जीव माया के मकसद से लगा हुआ है)।3।

अम्रित फलु नामु जिनि गुर ते पाइआ ॥ नानक दास तरी तिनि माइआ ॥४॥५॥५६॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुर ते = गुरु से। तरी = पार कर ली, तैर ली। तिनि = उस (मनुष्य) ने।4।

अर्थ: (पर) हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने गुरु से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त कर लिया है उसने माया (की नदी) पार कर ली है।4।5।56।

आसा महला ५ ॥ राज लीला तेरै नामि बनाई ॥ जोगु बनिआ तेरा कीरतनु गाई ॥१॥

पद्अर्थ: राज लीला = राज का मौज मेला, राज से मिलने वाला सुख आनंद। तेरै नामि = तेरे नाम ने। गाई = मैं गाता हूँ।1।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे नाम ने मेरे वास्ते वह मौज बना दी है जो राजाओं को राज से मिलती प्रतीत होती है, जब मैं तेरी महिमा के गीत गाता हूँ तो मुझे जोगियों वाला जोग प्राप्त हो जाता है (दुनिया वाला सुख और फकीरी वाला सुख दोनों ही मुझे तेरी महिमा में से मिल रहे हैं)।1।

सरब सुखा बने तेरै ओल्है ॥ भ्रम के परदे सतिगुर खोल्हे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तेरै ओल्है = तेरे आसरे (रहने से)। भ्रम = भटकना।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! (जब से) सतिगुरु ने (मेरे अंदर से माया की खातिर) भटकना पैदा करने वाले परदे खोल दिए हैं (और तेरे से मेरी दूरी समाप्त हो गई है, तब से) तेरे भरोसे रहने से मेरे वास्ते सारे सुख ही सुख बन गए हैं।1। रहाउ।

हुकमु बूझि रंग रस माणे ॥ सतिगुर सेवा महा निरबाणे ॥२॥

पद्अर्थ: बूझि = समझ के। निरबाणे = वासना रहित अवस्था।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी रजा को समझ के मैं सारे आत्मिक आनंद ले रहा हूँ, सतिगुरु की (बताई) सेवा की इनायत से मुझे बड़ी ऊँची वासना-रहित अवस्था प्राप्त हो गई है।2।

जिनि तूं जाता सो गिरसत उदासी परवाणु ॥ नामि रता सोई निरबाणु ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। तूं = तुझे। उदासी = त्यागी। परवाणु = स्वीकार। नामि = नाम में। निरबाणु = वासना रहित।3।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य ने तेरे साथ गहरी सांझ डाल ली, वह चाहे गृहस्थी है चाहे त्यागी, तेरी नजरों में स्वीकार है। जो मनुष्य, हे प्रभु! तेरे नाम (-रंग) में रंगा हुआ है वही सदा दुनिया की वासना से बचा रहता है।3।

जा कउ मिलिओ नामु निधाना ॥ भनति नानक ता का पूर खजाना ॥४॥६॥५७॥

पद्अर्थ: जा कउ = जिस को। निधाना = खजाना। भनति = कहता है। पूर = भरा हुआ।4।

अर्थ: नानक कहता है: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा नाम-खजाना मिल गया है उसका (उच्च आत्मिक जीवन के गुणों का) खजाना सदा भरा रहता है।4।6।57।

आसा महला ५ ॥ तीरथि जाउ त हउ हउ करते ॥ पंडित पूछउ त माइआ राते ॥१॥

पद्अर्थ: तीरथि = (किसी) तीर्थ पर। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। हउ हउ = मैं (धर्मी) मैं (धर्मी)। पंडित = (बहुवचन)। पूछउ = पूछूँ, मैं पूछता हूँ। राते = मस्त, रंगे हुए।1।

अर्थ: हे मित्र! अगर मैं (किसी) तीर्थ पर जाता हूँ, तो वहां मैं लोगों को ‘मैं (धरमी) मैं (धरमी)’ कहते हुए देखता हूँ, यदि मैं (जा के) पण्डितों को पूछता हूँ तो वह भी माया के रंग में रंगे हुए हैं।1।

सो असथानु बतावहु मीता ॥ जा कै हरि हरि कीरतनु नीता ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: असथानु = स्थान। मीता = हे मित्र! जा के = जिसके पास, जिसके अंदर, जिसके द्वारा। नीता = नित्य, सदा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मित्र! मुझे वह जगह बता जहां हर वक्त परमात्मा की महिमा होती हो।1। रहाउ।

सासत्र बेद पाप पुंन वीचार ॥ नरकि सुरगि फिरि फिरि अउतार ॥२॥

पद्अर्थ: नरकि = नरक में। सुरगि = स्वर्ग में। अउतार = जनम।2।

अर्थ: (हे मित्र!) शास्त्र और वेद पुण्य और पाप के विचार ही बताते हैं (ये बताते हैं कि फलाणे काम पाप हैं फलाणे काम पुण्य हैं, जिनके करने से) बार बार (कभी) नर्क में (तो कभी) स्वर्ग में पड़ जाते हैं।2।

गिरसत महि चिंत उदास अहंकार ॥ करम करत जीअ कउ जंजार ॥३॥

पद्अर्थ: चिंत = चिन्ता। उदास = उदास अवस्था में, त्याग में। करम = कर्मकांड, निहित धार्मिक कर्म। जीअ कउ = जिंद को। जंजार = जंजाल, बंधन।3।

अर्थ: (हे मित्र!) गृहस्थ में रहने वालों को चिन्ता दबा रही है, (गृहस्थ का) त्याग करने वाले अहंकार (से आफरे हुए हैं), (निरे) कर्मकांड करने वालों की जिंद को (माया के) जंजाल (पड़े हुए हैं)।3।

प्रभ किरपा ते मनु वसि आइआ ॥ नानक गुरमुखि तरी तिनि माइआ ॥४॥

पद्अर्थ: ते = से, साथ। वसि = वश में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। तिनि = उसने।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) परमात्मा की कृपा से जिस मनुष्य का मन वश में आ जाता है उसने गुरु की शरण पड़ के माया (की फुंकार मारती नदी) पार कर ली है।4।

साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ इहु असथानु गुरू ते पाईऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥७॥५८॥

पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। ते = से द्वारा। रहाउ दूजा।

अर्थ: (हे मित्र!) साधु-संगत में रह के (सदा) परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए (इसकी इनायत से अहंकार, माया का मोह, चिन्ता, अहम् के जंजाल आदि कोई भी छू नहीं सकता) पर ये जगह गुरु के द्वारा ही मिलती है।1। रहाउ दूसरा।7।58।

आसा महला ५ ॥ घर महि सूख बाहरि फुनि सूखा ॥ हरि सिमरत सगल बिनासे दूखा ॥१॥

पद्अर्थ: घर महि = हृदय घर में। बाहरि फुनि = बाहर दुनिया के साथ बरताव व्यवहार करने में भी। फुनि = भी। सगल = सारे।1।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने वाले मनुष्य को अपने) हृदय-घर में आनंद प्रतीत होता रहता है, बाहर दुनिया के साथ बरताव-व्यवहार करते हुए भी उसका आत्मिक आनंद बना रहता है (क्योंकि, हे भाई!) परमात्मा का स्मरण करने से सारे दुख नाश हो जाते हैं।1।

सगल सूख जां तूं चिति आंवैं ॥ सो नामु जपै जो जनु तुधु भावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चिति = चित्त में। आंवैं = आवहि, आता है। तुधु भावै = तुझे प्यारा लगता है।1। रहाउ।

नोट: साधारण तौर पर वर्तमान काल, मध्यम पुरुष एकवचन वास्ते क्रिया के साथ ‘हि’ बरता जाता है; जैसे ‘करहि’ तू करता है। ‘वेखहि = तू देखता है।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के चित्त में तू आ बसता है उसे सारे सुख ही सुख प्रतीत होते हैं। (पर) वही मनुष्य तेरा नाम जपता है जो तुझे प्यारा लगता है (जिस पे तेरी मेहर होती है)।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh