श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कामु क्रोधु अहंकारु गाखरो संजमि कउन छुटिओ री ॥ सुरि नर देव असुर त्रै गुनीआ सगलो भवनु लुटिओ री ॥१॥

पद्अर्थ: गाखरो = मुश्किल, तकलीफ़ देने वाला। संजमि कउन = किस युक्ति से? सुर नर = भले मनुष्य। देव = देवते। असुर = दैंत। त्रै गुनीआ = त्रिगुणी जीव। भवनु = संसार।1।

अर्थ: हे बहन! ये काम, क्रोध, ये अहंकार (ये हरेक, जीवों को) बहुत मुश्किलें देने वाले हैं, (तेरे अंदर से) किस युक्ति से इनका नाश हुआ? हे बहन! भले मनुष्य, देवते, दैत्य, सारे त्रिगुणी जीव- सारा जगत ही इन्होंने लूट लिया है (सारे जगत का आत्मिक जीवन की संपत्ति इन्होंने लूट लिया है)।1।

दावा अगनि बहुतु त्रिण जाले कोई हरिआ बूटु रहिओ री ॥ ऐसो समरथु वरनि न साकउ ता की उपमा जात न कहिओ री ॥२॥

पद्अर्थ: दावा अगनि = जंगल की आग। त्रिण = घास, वनस्पति। बूट = पौधा। ऐसो समरथ = ऐसा बली जो इस आग से बचा रहा। वरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकती। उपमा = बड़ाई।2।

अर्थ: हे सहेली! जब जंगल को आग लगती है तो बहुत सारा घास-बूटा जल जाता है, कोई विरला हरा पौधा ही बचता है (इसी तरह जगत-जंगल को तृष्णा की आग जला रही है, कोई विरला आत्मिक तौर पे बली मनुष्य ही बच सकता है, जो इस तृष्णा-अग्नि की जलन से बचा है) ऐसे बली मनुष्य की आत्मिक अवस्था मैं बयान नहीं कर सकती, मैं बता नहीं सकती कि उस जैसा और कौन हो सकता है।2।

(नोट: उपरोक्त प्रश्न का उत्तर:)

काजर कोठ महि भई न कारी निरमल बरनु बनिओ री ॥ महा मंत्रु गुर हिरदै बसिओ अचरज नामु सुनिओ री ॥३॥

पद्अर्थ: काजर कोठ = काजल की कोठरी। कारी = काली। बरनु = वर्ण, रंग। निरमल = सफेद। मंत्र गुर = गुरु का मंत्र।3।

अर्थ: हे बहन! मेरे हृदय में सतिगुरु का (शब्द रूपी) बड़ा बली मंत्र बस रहा है, मैं आश्चर्य (ताकत वाले) प्रभु का नाम सुनती रहती हूँ, (इस वास्ते इस) काजल भरी कोठरी (संसार में रहते हुए भी) मैं विकारों की (कालिख़ से) काली नहीं हुई, मेरा साफ-सुथरा रंग ही टिका रहा है।3।

करि किरपा प्रभ नदरि अवलोकन अपुनै चरणि लगाई ॥ प्रेम भगति नानक सुखु पाइआ साधू संगि समाई ॥४॥१२॥५१॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। नदरि = मेहर की निगाह (से)। अवलोकन = देखना (क्रिया)। चरणि = चरणों में। साधू संगि = गुरु की संगति में। समाई = मैं समा गई।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे बहिन! प्रभु ने कृपा करके अपनी (मेहर की) निगाह से मुझे देखा, मुझे अपने चरणों में जोड़े रखा, मुझे उसका प्रेम प्राप्त हुआ, मुझे उसकी भक्ति (की दाति) मिली, मैं (तृष्णा-अग्नि में जल रहे संसार में भी) आत्मिक आनंद पा रही हूँ, मैं साधु-संगत में लीन रहती हूँ।4।12।51।

नोट: ‘घरु ६’ के 12 शब्द यहीं सम्पन्न होते हैं। महला ५ के कुल शब्दों का जोड़ 51 है।


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ७ महला ५ ॥

लालु चोलना तै तनि सोहिआ ॥ सुरिजन भानी तां मनु मोहिआ ॥१॥

पद्अर्थ: तै तनि = तेरे शरीर पर। सोहिआ = शोभा दे रहा है, सुंदर लग रहा है। सुरिजन भानी = सज्जन हरि को प्यारी लगी। तां = तभी। मोहिआ = मोह लिया है।1।

अर्थ: (हे बहिन!) तेरे शरीर पे लाल रंग का चोला सुंदर लग रहा है (तेरे मुंह की लाली सुंदर झलक मार रही है। शायद) तू सज्जन हरि को प्यारी लग रही है, तभी तो तूने मेरा मन (भी) मोह लिया है।1।

कवन बनी री तेरी लाली ॥ कवन रंगि तूं भई गुलाली ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कवन = कैसे? री = हे सहेली! लाली = मुँह की लाली। रंगि = रंग से। गुलाली = गाढ़े रंग वाली।1। रहाउ।

अर्थ: हे बहिन! (बता,) तेरे चेहरे पे लाली कैसे आ गई है? किस रंग की इनायत से तू सुंदर गाढ़े गुलाल रंग वाली बन गई है?।1। रहाउ।

तुम ही सुंदरि तुमहि सुहागु ॥ तुम घरि लालनु तुम घरि भागु ॥२॥

पद्अर्थ: सुंदरि = (स्त्री-लिंग) सुंदरी। तुमहि सुहागु = तेरा ही सुहाग। तुम घरि = तेरे हृदय घर में। लालनु = प्रीतम प्रभु।2।

अर्थ: हे बहिन! तू बड़ी खूबसूरति दिख रही है। तेरे सुहाग-भाग्य उघड़ के सामने आ गए हैं (ऐसा प्रतीत होता है कि) तेरे हृदय घर में प्रीतम प्रभु आ बसा है, तेरे हृदय घर मेंकिस्मत जाग पड़ी है।2।

तूं सतवंती तूं परधानि ॥ तूं प्रीतम भानी तुही सुर गिआनि ॥३॥

पद्अर्थ: सतसंगी = ऊँचे आचरण वाली। परधानि = जानी मानी। प्रीतम भानी = प्रीतम प्रभु को भाने लगी। सुर गिआनि = श्रेष्ठ ज्ञान वाली।3।

अर्थ: हे बहिन! तू स्वच्छ आचरण वाली हो गई है तू अब हर जगह आदर-मान पा रही है। (अगर) तू प्रीतम प्रभु को अच्छी लग रही है (तो) तू श्रेष्ठ ज्ञान वाली बन गई है।3।

प्रीतम भानी तां रंगि गुलाल ॥ कहु नानक सुभ द्रिसटि निहाल ॥४॥

पद्अर्थ: रंगि गुलाल = गाढ़े रंग में। निहाल = देखा, ताका।4।

अर्थ: हे नानक! कह: (हे बहिन! मैं) प्रीतम प्रभु को अच्छी लग गई हूँ, तभी तो मैं गाढ़े प्रेम रंग में रंगी गई हूँ। वह प्रीतम प्रभु मुझे अच्छी (प्यार भरी) निगाह से देखता है।4।

सुनि री सखी इह हमरी घाल ॥ प्रभ आपि सीगारि सवारनहार ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥५२॥

नोट: यहां से आगे ‘घरु ७’ में गाए जाने वाले शबदों का संग्रह आरम्भ होता है।

पद्अर्थ: घाल = मेहनत। प्रभ आपि = प्रभु ने खुद ही। सीगारि = श्रृंगार के, सजा के। रहाउ दूजा।

नोट: ‘रहाउ दूजा’ में पहले ‘रहाउ’ में किए गए प्रश्न का उत्तर है।

अर्थ: (पर) हे सहेली! तू पूछती है (मैंने कौन सी मेहनत की, बस!) यही है मेहनत जो मैंने की कि उस सुंदरता की दाति देने वाले प्रभु ने खुद ही मुझे (अपने प्यार की दाति दे के) सुंदरी बना लिया है।1। रहाउ दूसरा।1।52।

नोट: आखिरी अंक १ बताता है कि ‘घरु’ ८ का ये पहला शब्द है। अब तक महला ५ के कुल 52 शब्द आ चुके हैं।

आसा महला ५ ॥ दूखु घनो जब होते दूरि ॥ अब मसलति मोहि मिली हदूरि ॥१॥

पद्अर्थ: घनो = बहुत। दूरि = (परमात्मा की हजूरी से) दूर। मसलति = सलाह, शिक्षा, गुरु की शिक्षा। मोहि = मुझे। हदूरि = हजूरी, परमात्मा की हजूरी।1।

अर्थ: हे सखी! हे सहेली! जब मैं प्रभु-चरणों से दूर रहती थी मुझे बहुत दुख (होता था) अब (गुरु की) शिक्षा की इनायत से मुझे (प्रभु की) हजूरी प्राप्त हो गई है (मैं प्रभु-चरणों में टिकी रहती हूँ, इस वास्ते कोई दुख-कष्ट मुझे छू नहीं सकता)।1।

चुका निहोरा सखी सहेरी ॥ भरमु गइआ गुरि पिर संगि मेरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चुका = समाप्त हो गया। निहोरा = उलाहमा, गिला शिकवा। सखी सहेरी = हे सखी! हे सहेली! गुरि = गुरु ने। मेरी = मेली, मिला दी।1। रहाउ।

अर्थ: हे सखी! हे सहेली! मुझे गुरु ने पति-प्रभु के साथ मिला दिया है, अब मेरी भटकना दूर हो गई है (प्रभु चरणों से पहले विछोड़े के कारण पैदा हुए दुख-कष्टों का) उलाहमा देना खत्म हो गया है।1। रहाउ।

निकटि आनि प्रिअ सेज धरी ॥ काणि कढन ते छूटि परी ॥२॥

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। आनि = ला के। प्रिअ सेज = प्यारे की सेज पे। धरी = बैठा दी। काणि = अधीनता। ते = से। छूटि परी = बच गई हूँ।2।

अर्थ: हे सखी! (गुरु ने) मुझे प्रभु-चरणों के नजदीक ला के प्यारे प्रभु-पति की सेज पर बैठा दिया है (प्रभु-चरणों में जोड़ दिया है)। अब (हरेक की) अधीनता करने से मैं बच गई हूँ।2।

मंदरि मेरै सबदि उजारा ॥ अनद बिनोदी खसमु हमारा ॥३॥

पद्अर्थ: मंदरि = हृदय मंदिर में। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। उजारा = आत्मिक जीवन का प्रकाश। अनद बिनोदी = सारे आनंदों का खेल तमाशों का मालिक।3।

अर्थ: (हे सखी! हे सहेली!) गुरु के शब्द की इनायत से मेरे हृदय मंदिर में (सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, सारे आनंदों और खेल-तमाशों का मालिक मेरा पति-प्रभु (मुझे मिल गया है)।3।

मसतकि भागु मै पिरु घरि आइआ ॥ थिरु सोहागु नानक जन पाइआ ॥४॥२॥५३॥

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। घरि = हृदय घर में। थिरु = सदा कायम रहने वाला।4।

अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे सखी!) मेरे माथे (के) भाग जाग पड़े हैं (क्योंकि) मेरा पति-प्रभु मेरे (हृदय-) घर में आ गया है, मैंने अब वह सुहाग ढूँढ लिया है।4।2।53।

आसा महला ५ ॥ साचि नामि मेरा मनु लागा ॥ लोगन सिउ मेरा ठाठा बागा ॥१॥

पद्अर्थ: साचि = स्थिर रहने वाले में। नामि = नाम में। सिउ = साथ। ठाठा बागा = ठाह ठीया, काम चलाने जितना उद्यम, उतना ही वरतन व्यवहार जितने की बहुत जरूरत पड़े।1।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा मन सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में (सदा) जुड़ा रहता है, दुनिया के लोगों से मेरा उतना ही वरतन-व्यवहार है जितने की अति जरूरी जरूरत पड़ती है।1।

बाहरि सूतु सगल सिउ मउला ॥ अलिपतु रहउ जैसे जल महि कउला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाहरि = दुनिया में, दुनिया से बरतने के समय। सूतु मउला = सूत्र मिला हुआ है, प्यार बना हुआ है, प्यार का संबंध है। अलिपतु = निर्लिप। रहउ = मैं रहता हूँ। कउला = कमल फूल।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) दुनिया से बरतने-व्यवहार के समय मैं सबसे प्यार वाला संबंध रखता हूँ, (पर दुनिया के साथ बरतता हुआ भी दुनिया से ऐसे) निर्लिप रहता हूँ जैसे पानी में (रहते हुए भी) कमल का फूल (पानी से निर्लिप रहता है)।1। रहाउ।

मुख की बात सगल सिउ करता ॥ जीअ संगि प्रभु अपुना धरता ॥२॥

पद्अर्थ: मुख की बात = मुंह की बात। जीअ संगि = हृदय में, प्राणों में।2।

अर्थ: (हे भाई!) मैं सब लोगों से (जरूरत के मुताबिक) मुंह से बातें करता हूँ (पर, कहीं भी मोह में अपने मन को फसने नहीं देता) अपने हृदय में मैं सिर्फ परमात्मा को ही टिकाए रखता हूँ।2।

दीसि आवत है बहुतु भीहाला ॥ सगल चरन की इहु मनु राला ॥३॥

पद्अर्थ: भीहाला = डरावना, रूखा, बे मेहरा, कोरा। राला = चरण धूल, ख़ाक।3।

अर्थ: (हे भाई! मेरे इस तरह के आत्मिक जीवन के अभ्यास के कारण लोगों को मेरा मन) बड़ा रूखा और कोरा दिखता है; पर (दरअसल मेरा) ये मन सबके चरणों की धूल बना रहता है।3।

नानक जनि गुरु पूरा पाइआ ॥ अंतरि बाहरि एकु दिखाइआ ॥४॥३॥५४॥

पद्अर्थ: जनि = जन ने, दास ने। अंतरि = अंदर बसता। बाहरि = सारे जगत में बसता।4।

अर्थ: हे नानक! जिस (भी) मनुष्य ने पूरा गुरु पा लिया है (गुरु ने उसको) उसके अंदर और बाहर सारे जगत में एक परमात्मा ही बसता दिखा दिया है (इस वास्ते वह दुनिया से प्यार करने वाला सलूक भी रखता है और निर्मोही रहके तवज्जो अंदर रहके तवज्जो को अंदर बसते प्रभु में भी जोड़े रखता है)।4।3।54।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh