श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारंग महला ९ ॥ मन करि कबहू न हरि गुन गाइओ ॥ बिखिआसकत रहिओ निसि बासुर कीनो अपनो भाइओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन करि = मन से, मन लगा के। कबहू = कभी भी। बिखिआसकत = (बिख्या+आसक्त। बिख्या = माया। आसक्त = लंपट) माया के साथ लिपटा हुआ। निस = रात। बासुर = दिन। अपनो भाइओ = जो अपने आप को अच्छा लगता था।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मैं मन लगा के कभी भी तेरे गुण नहीं गाता रहा। मैं दिन-रात माया में ही मगन रहा, वही कुछ करता रहा, जो मुझे अपने आप को अच्छा लगता था।1। रहाउ।

गुर उपदेसु सुनिओ नहि काननि पर दारा लपटाइओ ॥ पर निंदा कारनि बहु धावत समझिओ नह समझाइओ ॥१॥

अर्थ: हे हरि! मैंने कानों से गुरु की शिक्षा (कभी) नहीं सुनी, पराई स्त्री के लिए काम-वासना रखता रहा। दूसरों की निंदा करने के लिए बहुत दौड़-भाग करता रहा। समझाने पर भी मैं (कभी) नहीं समझा (कि ये काम बुरा है)।1।

कहा कहउ मै अपुनी करनी जिह बिधि जनमु गवाइओ ॥ कहि नानक सभ अउगन मो महि राखि लेहु सरनाइओ ॥२॥४॥३॥१३॥१३९॥४॥१५९॥

पद्अर्थ: कहा = क्या? कहाउ = मैं कहूँ। करनी = आचरण। जिह बिधि = जिस तरीके से। कहि = कहे, कहता है। मो महि = मेरे अंदर।2।

अर्थ: हे हरि! जिस तरह मैंने अपना जीवन व्यर्थ गवा लिया, वह मैं कहाँ तब अपनी करतूत बताऊँ? नानक कहता है: हे प्रभु! मेरे अंदर सारे अवगुण ही हैं। मुझे अपनी शरण में रख।2।4।3।13।139।4।159।

शबदों का वेरवा:
गुरु नानक देव जी--------------3
गुरु रामदास जी----------------13
गुरु अरजन देव जी-----------139
गुरु तेग बहादर जी--------------4
कुल----------------------------159

रागु सारग असटपदीआ महला १ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि बिनु किउ जीवा मेरी माई ॥ जै जगदीस तेरा जसु जाचउ मै हरि बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! किउ जीवा = मैं कैसे जी सकूँ? मेरी जिंद व्याकुल होती है। जगदीस = हे जगत के ईश! (जगदीस = जगत+ईस। ईस = मालिक)। जसु = महिमा। जाचउ = मैं माँगता हूँ। रहनु न जाई = रहा नहीं जा सकता, मन डोलता हैं1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी माँ! परमात्मा के नाम के बिना मेरी जिंद व्याकुल होती है। हे जगत के मालिक! तेरी ही सदा जै (जीत) है। मैं (तुझसे) तेरी महिमा (की दाति) माँगता हूँ।

परमात्मा के नाम स्मरण के बिना मेरा मन घबराता है।1। रहाउ।

हरि की पिआस पिआसी कामनि देखउ रैनि सबाई ॥ स्रीधर नाथ मेरा मनु लीना प्रभु जानै पीर पराई ॥१॥

पद्अर्थ: पिआसी = मिलाप के लिए उतावली। कामनि = स्त्री। रैनि = रात। सबाई = सारी। स्रीधर = (श्री धर, श्री = लक्ष्मी। धर = आसरा), हे लक्ष्मी के आसरे! हे प्रभु! नाथ = हे पति प्रभु! पीर = पीड़ा।1।

अर्थ: जैसे स्त्री को अपने पति से मिलने की चाहत होती है वह सारी रात उसका इन्तजार करती है, वैसे ही मुझे हरि के दीदार की है, मैं सारी उम्र ही उसका इन्तजार करती चली आ रही हूँ। हे लक्ष्मी-पति! हे (जगत के) नाथ! मेरा मन तेरी याद में मस्त है।

(हे माँ!) परमात्मा ही पराई पीड़ समझ सकता है।1।

गणत सरीरि पीर है हरि बिनु गुर सबदी हरि पांई ॥ होहु दइआल क्रिपा करि हरि जीउ हरि सिउ रहां समाई ॥२॥

पद्अर्थ: गणत = चिन्ता, गिनती, फिक्र। सरीरि = शरीर में, हृदय में। पांई = मैं पा सकती हूँ। रहां समाई = समाई रहूँ, लीन रहूँ।2।

अर्थ: (हे माँ!) परमात्मा की याद के बिना मेरे हृदय में (और ही) चिन्ता-फिक्रें-तकलीफें टिकी रहती हैं। वह परमात्मा गुरु के शब्द से ही मिल सकता है।

हे प्यारे हरि! मेरे पर दयावान हो, मेरे ऊपर कृपा कर, मैं तेरी याद में लीन रहूँ।2।

ऐसी रवत रवहु मन मेरे हरि चरणी चितु लाई ॥ बिसम भए गुण गाइ मनोहर निरभउ सहजि समाई ॥३॥

पद्अर्थ: रहत रवहु = चाल चलो। बिसम = हैरान, आश्चर्य, मगन। मनोहर = मन को मोह लेनें वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में।3।

अर्थ: हे मेरे मन! ऐसा रास्ता पकड़ कि (तू) परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहे। मन को मोहने वाले परमात्मा के गुण गा के (भाग्यशाली व्यक्ति आनंद में) मस्त रहते हैं, दुनिया वाले डर-सहम से निडर हो के वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।3।

हिरदै नामु सदा धुनि निहचल घटै न कीमति पाई ॥ बिनु नावै सभु कोई निरधनु सतिगुरि बूझ बुझाई ॥४॥

पद्अर्थ: धुनि = लगन। निहचल = अडोल। निरधनु = कंगाल। सतिगुरि = गुरु ने। बूझ = समझ।4।

अर्थ: (हे मेरे मन!) अगर हृदय में प्रभु का नाम बस जाए, अगर (प्रभु-प्यार की) सदीवी अटल लहर चल जाए, तब वह कभी कम नहीं होती, दुनिया का कोई सुख, दुनिया का कोई पदार्थ उसकी बराबरी नहीं कर सकता। सतिगुरु ने मुझे बख्श दी है कि परमात्मा के नाम के बिना हरेक जीव कंगाल (ही) है (चाहे उसके पास कितना ही धन-पदार्थ हो)।4।

प्रीतम प्रान भए सुनि सजनी दूत मुए बिखु खाई ॥ जब की उपजी तब की तैसी रंगुल भई मनि भाई ॥५॥

पद्अर्थ: सुनि = सुन। सजनी = हे सखी! प्रान = जिंद। दूत = कामादिक विकार। खाई = खा के। रंगुल = रंगली। मनि = मन में। भाई = भा गई, प्यारी लगी है।5।

अर्थ: हे सहेलिऐ! (हे सत्संगी सज्जन!) सुन! (गुरु की कृपा से) मेरे मन को प्रीतम, प्यारा लग रहा है, मैं उसके प्रेम में रंगी गई हूँ, जब से (प्रभु-चरणों में प्रीति) पैदा हुई है, तब से वैसी ही कायम है (कम नहीं हुई), मेरी जिंद प्रीतम-प्रभु के साथ एक-मेक हो गई है, कामादिक वैरी (मेरी बाबत तो) मर गए हैं, उन्होंने (जैसे) जहर खा लिया है।5।

सहज समाधि सदा लिव हरि सिउ जीवां हरि गुन गाई ॥ गुर कै सबदि रता बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥६॥

पद्अर्थ: समाधि = टिकाव, एकाग्रता। जीवां = मैं जीवित हूँ, मेरे अंदर धैर्य पैदा होता है। बैरागी = वैरागवान, प्रेमी। ताड़ी लाई = टिक जाता है।6।

अर्थ: गुरु के शब्द में रंगे जा के मैं (प्रभु-चरणों का) प्रेमी बन गया हूँ, अब मैं अपने अंदर ही प्रभु की याद में जुड़ा रहता हूँ, मैं सदा प्रभु में लगन लगाए रखता हूँ, और आत्मिक अडोलता में टिका रहता हूँ, ज्यों-ज्यों मैं हरि के गुण गाता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन विकसित होता है।6।

सुध रस नामु महा रसु मीठा निज घरि ततु गुसांईं ॥ तह ही मनु जह ही तै राखिआ ऐसी गुरमति पाई ॥७॥

पद्अर्थ: सुध = पवित्र। गुसांई = हे धरती के पति!।7।

अर्थ: हे धरती के मालिक प्रभु! मुझे सतिगुरु की ऐसी मति प्राप्त हो गई है कि जहाँ (अपने चरणों में) तूने मेरा मन जोड़ा है वहीं पर जुड़ा हुआ है। हे प्रभु! पवित्रता का रस देने वाला तेरा नाम मुझे बहुत ही स्वादिष्ट रस वाला प्रतीत हो रहा है मुझे मीठा लग रहा है, तू जगत-का-मूल मुझे मेरे हृदय में ही मिल गया है।7।

सनक सनादि ब्रहमादि इंद्रादिक भगति रते बनि आई ॥ नानक हरि बिनु घरी न जीवां हरि का नामु वडाई ॥८॥१॥

पद्अर्थ: सनक सनादि = सनक, सनंदन, सनतकुमार, सनातन (ये चारों ब्रहमा के पुत्र हैं)। रते = रंगे गए। बनि आई = प्रीत बन गई।8।

अर्थ: इन्द्र जैसे देवता, ब्रहमा और उसके पुत्र सनक जैसे महापूरुष जब परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगे गए, तब उनकी प्रीति प्रभु-चरणों के साथ बन गई।

हे नानक! (कह:) परमात्मा के नाम से एक घड़ी-मात्र विछुड़ने पर भी मेरे प्राण व्याकुल हो जाते हैं। परमात्मा का नाम ही मेरे वास्ते (सबसे श्रेष्ठ) आदर-मान है।8।1।

सारग महला १ ॥ हरि बिनु किउ धीरै मनु मेरा ॥ कोटि कलप के दूख बिनासन साचु द्रिड़ाइ निबेरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किउ धीरै = कैसे धैर्य करे? कोटि = करोड़। कलप = चार युगों का समुदाय। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। द्रिढ़ाइ = दृढ़ करने से, मन में टिकाने से। निबेरा = दुखों से निबेड़ा, दुख समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: परमात्मा के नाम से विछुड़ के मेरा मन (अब) किसी भी तरह से धैर्य नहीं धरता (टिकता नहीं) क्योंकि इसको अनेक दुख-रोग आ व्याप्ते हैं। पर अगर करोड़ों युगों के दुख नाश करने वाले और सदा ही स्थिर रहने वाले परमात्मा को (मन में) टिका लें तो सारे दुखों-रोगों का नाश हो जाता है (मन ठिकाने पर आ जाता है)।1। रहाउ।

क्रोधु निवारि जले हउ ममता प्रेमु सदा नउ रंगी ॥ अनभउ बिसरि गए प्रभु जाचिआ हरि निरमाइलु संगी ॥१॥

पद्अर्थ: निवारि = दूर कर के। हउ = मैं, अहम्। ममता = अपनत्व। नउ रंगी = नए रंग वाला, सदा नया रहने वाला। अन भउ = औरों का डर सहम। बिसरि गए = बिसर गया, भूल जाता है। जाचिआ = माँगा। निरमाइलु = पवित्र। संगी = साथी।1।

अर्थ: जिस मनुष्य ने प्रभु (के दर से नाम का दान) माँगा है, पवित्र-स्वरूप प्रभु उसका (सदा के लिए) साथी बन गया है, उसके क्रोध को (अपने अंदर से) निकाल दिया है, उसका अहंकार और ममता जल जाती है, नित्य नया रहने वाला प्रेम (उसके हृदय में जाग उठता है)।1।

चंचल मति तिआगि भउ भंजनु पाइआ एक सबदि लिव लागी ॥ हरि रसु चाखि त्रिखा निवारी हरि मेलि लए बडभागी ॥२॥

पद्अर्थ: चंचल = सदा भटकते रहने वाली। तिआगि = त्याग के। भउ भंजनु = डर सहम का नाश करने वाला। लिव = लगन। चाखि = चख के। त्रिखा = (माया की) तृष्णा।2।

अर्थ: जिस मनुष्य ने एक परमात्मा की महिमा के शब्द में तवज्जो जोड़ी है उसने (मायावी पदार्थों के पीछे) भटकने वाली मति (की अगवाई) त्याग के डर नाश करने वाला परमात्मा पा लिया है। परमात्मा के नाम का स्वाद चख के उसने (अपने अंदर से माया की) प्यास दूर कर ली है, उस अति भाग्यशाली मनुष्य को प्रभु ने अपने चरणों में मिला लिया है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh