श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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संतन कै चरन लागे काम क्रोध लोभ तिआगे गुर गोपाल भए क्रिपाल लबधि अपनी पाई ॥१॥

पद्अर्थ: कै चरन = के चरणों में। तिआगे = त्याग के। लबधि = जिस वस्तु को ढूँढते थे।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य संत-जनों के चरण लगते हैं, काम, क्रोध लोभ (आदि विकार) छोड़ देते हैं, उन पर गुर-गोपाल मेहरवान होता है, उनको अपनी वह नाम-वस्तु मिल जाती है जिसकी (अनेक जन्मों से) तलाश करते आ रहे थे।1।

बिनसे भ्रम मोह अंध टूटे माइआ के बंध पूरन सरबत्र ठाकुर नह कोऊ बैराई ॥ सुआमी सुप्रसंन भए जनम मरन दोख गए संतन कै चरन लागि नानक गुन गाई ॥२॥३॥१३२॥

पद्अर्थ: अंध = अंधे (करने वाले)। बंध = बंधन, फंदे। पूरन = व्यापक। सरबत्र = सब जगह। बैराई = वैरी। सुप्रसंन = दयावान। दोख = पाप। लागि = लग के। गाई = गाती है।2।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य संत जनों के चरणों से लग के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उन पर मालिक-प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं, उनके जनम-मरण के चक्कर और पाप सभ समाप्त हो जाते हैं। उनके अंदर से भ्रम और मोह के अंधेरे नाश हो जाते हैं, माया के मोह के फंदे टूट जाते हैं, प्रभु-मालिक उनको हर जगह व्यापक दिखाई देता है, कोई भी उन्हें वेरी नहीं लगता।2।3।132।

सारग महला ५ ॥ हरि हरे हरि मुखहु बोलि हरि हरे मनि धारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मुखहु = मुँह से। बोलि = उचारा कर। मनि = मन में। धारे = बसाए रख।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सदा सदा ही परमात्मा का नाम अपने मुँह से उचारा कर और अपने मन में बसाए रख।1। रहाउ।

स्रवन सुनन भगति करन अनिक पातिक पुनहचरन ॥ सरन परन साधू आन बानि बिसारे ॥१॥

पद्अर्थ: स्रवन = कानों से। पातिक = पाप। पुनहचरन = (पापों की निर्विति के लिए किए गए) पछतावे के कर्म, पश्चाताप वाले कर्म। साधू = गुरु। आन = अन्य। बानि = आदत।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम कानों से सुनना प्रभु की भक्ति करनी - यही है अनेक पापों को दूर करने के लिए किए हुए पछतावे-मात्र धार्मिक कर्म। हे भाई! गुरु की शरण पड़े रहना- ये उद्यम अन्य (बुरी) आदतों को (मन में से) दूर कर देता है।1।

हरि चरन प्रीति नीत नीति पावना महि महा पुनीत ॥ सेवक भै दूरि करन कलिमल दोख जारे ॥ कहत मुकत सुनत मुकत रहत जनम रहते ॥ राम राम सार भूत नानक ततु बीचारे ॥२॥४॥१३३॥

पद्अर्थ: नीति नीति = नित्य नित्य, सदा सदा। पावन = पवित्र। भै = डर। कलिमल = पाप। दोख = पाप। जारे = जला देता है। मुकत = विकारों से बचा हुआ। रहत = सद जीवन मर्यादा रखते हुए। रहते = बच जाते हैं। सार भूत = सब से श्रेष्ठ पदार्थ। ततु = अस्लियत।2।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! सदा सदा प्रभु के चरणों से प्यार बनाए रखना- ये जीवन को बहुत ही पवित्र बना देता है। प्रभु-चरणों से प्रीति सेवक के सारे डर दूर करने वाली है, सेवक के सारे पाप विकार जला देती है।

हे भाई! प्रभु का नाम स्मरण करने वाले और सुनने वाले विकारों से बचे रहते हैं, सदाचार (अच्छी रहन-सहन) रखने वाले जूनियों से बच जाते हैं। हे भाई! नानक (सारी विचारों का यह) सारांश बताता है कि परमात्मा का नाम सबसे श्रेष्ठ है।2।4।133।

सारग महला ५ ॥ नाम भगति मागु संत तिआगि सगल कामी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मागु = मांगता रह। कामी = काम।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! और सारे काम छोड़ के (भी) संत जनों से परमात्मा के नाम की भक्ति माँगता रहा कर।1। रहाउ।

प्रीति लाइ हरि धिआइ गुन गुोबिंद सदा गाइ ॥ हरि जन की रेन बांछु दैनहार सुआमी ॥१॥

पद्अर्थ: लाइ = लगा के। गाइ = गाया कर। रेन = चरण धूल। बांछु = मांगता रह, चाहत कर। दैनहार = देने की समर्थता वाले से।1।

नोट: ‘गुोबिंद’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! प्यार से परमात्मा के नाम का ध्यान धरा कर, सदा गोबिंद के गुण गाता रहा कर। उस सब कुछ दे सकने वाले मालिक-प्रभु से संतजनों के चरणों की धूल माँगता रहा कर।1।

सरब कुसल सुख बिस्राम आनदा आनंद नाम जम की कछु नाहि त्रास सिमरि अंतरजामी ॥ एक सरन गोबिंद चरन संसार सगल ताप हरन ॥ नाव रूप साधसंग नानक पारगरामी ॥२॥५॥१३४॥

पद्अर्थ: सरब = सारे। कुसल = सुख। बिस्राम = विश्राम, ठिकाना। त्रास = डर। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। ताप हरन = दुख दूर करने वाला। नाव = नाँव, बेड़ी। नाव रूप = नाँव जैसा है। पारगरामी = (संसार समुंदर से) पार लंघाने वाला।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सारे सुखों का सारी खुशियों का, सारे आनंदों का श्रोत है। हरेक के दिल की जानने वाले प्रभु का नाम स्मरण किया कर, जमों का (भी) कोई डर नहीं रह जाता।

हे नानक! एक परमात्मा के चरणों की शरण जगत के सारे दुख-कष्ट दूर करने योग्य है। (यह शरण साधु-संगत में ही मिलती है, और) साधु-संगत बेड़ी की तरह (संसार-समुंदर से) पार लंघाने वाली है।2।5।134।

सारग महला ५ ॥ गुन लाल गावउ गुर देखे ॥ पंचा ते एकु छूटा जउ साधसंगि पग रउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुन लाल = सुंदर प्रभु के गुण। गावउ = मैं गाता हूँ। गुर देखे = गुरु के दर्शन करके। पंचा ते = (कामादिक) पाँचों से। एकु = मन। जउ = जब। साध संगि = साधु-संगत में। पग रउ = मैं पकड़ू (हरि के चरण)।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जब गुरु का दर्शन करके मैं सुंदर हरि के गुण गाता हूँ, जब गुरु की संगति में टिक के मैं (प्रभु के चरण) पकड़ता हूँ, तब (मेरा यह) मन (कामादिक) पाँचों (के पँजे) से निकल जाता है।1। रहाउ।

द्रिसटउ कछु संगि न जाइ मानु तिआगि मोहा ॥ एकै हरि प्रीति लाइ मिलि साधसंगि सोहा ॥१॥

पद्अर्थ: द्रिसटउ = दृष्टमान, दिखाई देता जगत। संगि = साथ। जाइ = जाता। मानु = अहंकार। मिलि = मिल के। सोहा = जीवन सुंदर बन जाता है।1।

अर्थ: हे भाई! (यह जो) दिखाई देता जगत (है, इस में से) कुछ भी (किसी के) साथ नहीं जाता (इसलिए इसका) मान और मोह छोड़ दे। साधु-संगत में मिल के एक परमात्मा के चरणों के साथ प्रीत जोड़ (इस तरह जीवन) सुंदर बन जाता है।1।

पाइओ है गुण निधानु सगल आस पूरी ॥ नानक मनि अनंद भए गुरि बिखम गार्ह तोरी ॥२॥६॥१३५॥

पद्अर्थ: गुण निधान = गुणों का खजाना हरि। मनि = मन में। गुरि = गुरु ने। बिखम = मुश्किल। गार्ह = गांठ। तोरी = तोड़ दी है।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैंने गुणों का खजाना प्रभु पा लिया है, मेरी सारी आशा पूरी हो गई है। गुरु ने (मेरे अंदर से माया के मोह की) कठिन गाँठ खोल दी है, अब मेरे मन में आनंद ही आनंद बन गए हैं।2।6।135।

सारग महला ५ ॥ मनि बिरागैगी ॥ खोजती दरसार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। बिरागैरी = वैरागवान होगी (मेरी जिंद), (मेरी जिंद) वैरागवान होती है। खोजती = खोज करती करती। दरसार = दर्शन।1। रहाउ।

अर्थ: हे सखी! (प्रभु के) दर्शनों के प्रयत्न करती-करती मेरी जिंद मन में वैराग वाली होती जा रही है।1। रहाउ।

साधू संतन सेवि कै प्रिउ हीअरै धिआइओ ॥ आनंद रूपी पेखि कै हउ महलु पावउगी ॥१॥

पद्अर्थ: सेवि कै = सेवा करके। प्रिउ = प्यारा प्रभु। हीअरै = हृदय में। पेखि कै = देख के, दर्शन कर के। हउ = मैं। महलु = (प्रभु चरणों में) ठिकाना। पावउगी = मैं प्राप्त करूँगी।1।

अर्थ: हे सखी! संत जनों की सेवा करके (साधु-संगत की इनायत से) मैंने प्यारे प्रभु को अपने हृदय में बसा लिया है, और, उस आनंद-स्वरूप के दर्शन करके मैंने उसके चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लिया है।1।

काम करी सभ तिआगि कै हउ सरणि परउगी ॥ नानक सुआमी गरि मिले हउ गुर मनावउगी ॥२॥७॥१३६॥

पद्अर्थ: काम करी = काम कार, काम धंधे। गर = गले से। गुर मनावउगी = मैं गुरु की प्रसन्नता हासिल करूँगी।2।

अर्थ: हे सखी! (जगत के) काम-धंधों का सारा मोह छोड़ के मैं प्रभु की शरण पड़ी रहती हूँ। हे नानक! (कह: हे सखी! जिस गुरु की कृपा से) मालिक-प्रभु जी (मेरे) गले से आ लगे हैं, मैं (उस) गुरु की प्रसन्नता प्राप्त करती रहती हूँ।2।7।136।

सारग महला ५ ॥ ऐसी होइ परी ॥ जानते दइआर ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसी = ऐसी हालत। होइ परी = हो गई है। जानते = जानता है। दइआर = दयालु प्रभु।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (मेरे मन की हालत) ऐसी हो गई है (और, इस हालत को) दयालु प्रभु (स्वयं) जानता है।1। रहाउ।

मातर पितर तिआगि कै मनु संतन पाहि बेचाइओ ॥ जाति जनम कुल खोईऐ हउ गावउ हरि हरी ॥१॥

पद्अर्थ: मातर = माँ। पितर = पिता। तिआगि कै = (मोह) छोड़ के। पाहि = पास। बेचाइओ = बेच दिया है। खोईऐ = गवा दी है। हउ = मैं। गावउ = गाता रहता हूँ।1।

अर्थ: हे भाई! (गुरु के उपदेश की इनायत से) माता-पिता (आदि संबन्धियों का मोह) छोड़ के मैंने अपना मन संत जनों के हवाले कर दिया है, मैंने (ऊँची) जाति कुल जनम (का गुमान) छोड़ दिया है, और मैं (हर वक्त) परमात्मा की महिमा ही करता हूँ (अपने कुल आदि को सराहने की जगह)।1।

लोक कुट्मब ते टूटीऐ प्रभ किरति किरति करी ॥ गुरि मो कउ उपदेसिआ नानक सेवि एक हरी ॥२॥८॥१३७॥

पद्अर्थ: ते = से। टूटीऐ = टूट गई है। किरति = कृत्य, निहाल। करी = कर दिया है। गुरि = गुरु ने। मो कउ = मुझे। नानक = हे नानक! सेवि = सेवा कर, शरण पड़ा रह।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से मेरी प्रीति) लोगों से कुटुंब से टूट गई है, प्रभु ने मुझे निहाल-निहाल कर दिया है। गुरु ने मुझे शिक्षा दी है कि सदा एक परमात्मा की शरण पड़ा रह।2।8।137।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh