श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 241 मोहन लाल अनूप सरब साधारीआ ॥ गुर निवि निवि लागउ पाइ देहु दिखारीआ ॥३॥ पद्अर्थ: मोहन = हे (मन को) मोहने वाले प्रभु! अनूप = हे सुंदर! सरब साधारीआ = हे सब के आसरे! निवि = झुक के। लागउ = मैं लगता हूँ। गुर पाइ = गुरु के पैरों पर। देहु दिखारीआं = दिखारि देहु।3। अर्थ: हे मन को मोह लेने वाले सुंदर लाल! हे सब जीवों के आसरे प्रभु! मैंझुक झुक के गुरु के चरणों में लगता हूँ (और गुरु के आगे विनती करता हूँ कि मुझे तेरा) दर्शन करवा दे।3। मै कीए मित्र अनेक इकसु बलिहारीआ ॥ सभ गुण किस ही नाहि हरि पूर भंडारीआ ॥४॥ पद्अर्थ: इकसु = एक से। पूर = भरे हुए। भंडारीआ = खजाने।4। नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसु’ की ‘ु’मात्रा ‘ही’ के कारण हट गया है। अर्थ: मैंने अनेको साक-संबंधियों को अपना मित्र बनाया (पर किसी के साथ भी सिरे का साथ नहीं निभता, अब मैं) एक परमात्मा से ही कुर्बान जाता हूँ (वही साथ निभने वाला साथी है)। सारे गुण (भी) और किसी में नहीं हैं, एक परमात्मा ही भरे खजानों वाला है।4। चहु दिसि जपीऐ नाउ सूखि सवारीआ ॥ मै आही ओड़ि तुहारि नानक बलिहारीआ ॥५॥ पद्अर्थ: चहु दिसि = चारों दिशाओं में। दिस = दिशा। सूखि = सुख में। आही = चाही है। ओड़ि = ओट, आसरा। तुहारि = तुम्हारी, तेरी।5। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) चारों तरफ तेरा ही नाम जपा जा रहा है, (जो मनुष्य जपता है वह) सुख-आनंद में (रहता है, उसका जीवन) सँवर जाता है। (हे प्रभु!) मैंने तेरा आसरा लिया है, मैं तुझसे सदके जाता हूँ।5। गुरि काढिओ भुजा पसारि मोह कूपारीआ ॥ मै जीतिओ जनमु अपारु बहुरि न हारीआ ॥६॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। भुजा = बाँह। पसारि = पसार के, खिलार के। कूप = खू। बहुरि = मुड़, फिर।6। अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मुझे बाँह फैला के मोह के कूएं में से निकाल लिया है, (उसकी इनायत से) मैंने कीमती मानव जन्म (की बाजी) जीत ली है, दुबारा मैं (मोह के मुकाबले में) बाजी नहीं हारूँगा।6। मै पाइओ सरब निधानु अकथु कथारीआ ॥ हरि दरगह सोभावंत बाह लुडारीआ ॥७॥ पद्अर्थ: सरब निधानु = सारे गुणों का खजाना। अकथु = जिसको बयान नहीं किया जा सकता। बाह लुडारीआ = बाँह हुलारते हैं।7। अर्थ: (गुरु की कृपा) मैंने सारे गुणों का खजाना वह परमात्मा ढूँढ लिया है, जिसकी महिमा की कहानियां बयान नहीं की जा सकतीं। (जो मनुष्य सरब-निधान प्रभु को मिल लेते हैं) वह उसकी दरगाह में शोभा हासिल कर लेते हैं, वह वहाँ बाँह उलार के चलते हैं (अर्थात, मौज-आनंद में रहते हैं)।7। जन नानक लधा रतनु अमोलु अपारीआ ॥ गुर सेवा भउजलु तरीऐ कहउ पुकारीआ ॥८॥१२॥ पद्अर्थ: अमोलु = जिस का मुल्य ना पाया जा सके। अपारीआ = बेअंत। भउजलु = संसार समुंदर। तरीऐ = तारा जा सकता है। कहउ = मैं कहता हूँ। पुकारीआ = पुकार के।8। अर्थ: हे दास नानक! (कह: जिन्होंने गुरु का पल्ला पकड़ा, उन्होंने) परमात्मा का बेअंत कीमती नाम-रत्न हासिल कर लिया। (हे भाई!) मैं पुकार के कहता हूँ कि गुरु की शरण पड़ने से संसार समुंदर में (से बेदाग रह के) पार लांघ जाते हैं।8।12। गउड़ी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नाराइण हरि रंग रंगो ॥ जपि जिहवा हरि एक मंगो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रंगो = रंग चढ़ाओ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जप, हरि के दर से उसका नाम मांग, हरि परमात्मा के प्यार रंग में अपने मन को रंग।1। रहाउ। तजि हउमै गुर गिआन भजो ॥ मिलि संगति धुरि करम लिखिओ ॥१॥ पद्अर्थ: तजि = त्याग के। भजो = भजो, याद करो। मिलि = मिल के। धुरि = प्रभु की दरगाह से। करम = बख्शिश।1। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के बख्शे ज्ञान की इनायत से (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके परमात्मा का नाम स्मरण कर। जिस मनुष्य के माथे पर धुर दरगाह से बख्शिश का लेख लिखा जाता है, वह साधु-संगत में मिल के (अहंकार दूर करता है और हरि-नाम जपता है)।1। जो दीसै सो संगि न गइओ ॥ साकतु मूड़ु लगे पचि मुइओ ॥२॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। लगे = लगि, लग के। पचि = खुआर हो के।2। अर्थ: (हे भाई! जगत में आँखों से) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये किसी के भी साथ नहीं जाता, पर मूर्ख माया में ग्रसित मनुष्य (इस दिखते प्यार में) लग के परेशान हो के आत्मिक मौत बर्दाश्त करता है।2। मोहन नामु सदा रवि रहिओ ॥ कोटि मधे किनै गुरमुखि लहिओ ॥३॥ पद्अर्थ: मोहन नामु = मोहन का नाम। रवि रहिओ = व्यापक हो के, हर जगह मौजूद है। लहिओ = ढूँढा।3। अर्थ: (हे भाई!) करोड़ों में किसी विरले मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर उस मोहन प्रभु का नाम प्राप्त किया है जो सदा हर जगह व्याप रहा है।3। हरि संतन करि नमो नमो ॥ नउ निधि पावहि अतुलु सुखो ॥४॥ पद्अर्थ: नमो = नमसकार। पावहि = तू पाएगा। नउ निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के संत जनों को सदा सदा नमस्कार करता रह, तू बेअंत सुख पाएगा, तूझे वह नाम मिल जाएगा, जो, मानो, धरती के नौ खजाने हैं।4। नैन अलोवउ साध जनो ॥ हिरदै गावहु नाम निधो ॥५॥ पद्अर्थ: अलोवउ = मैं देखता हूँ, अवलोकन करता हूँ। निधो = निधि, खजाना।5। अर्थ: हे साधु जनो! अपने हृदय में परमात्मा का नाम गाते रहो जो सारे सुखों का खजाना है, (मेरी तो यही प्रार्थना है कि) मैं अपनी आँखों से (उनका) दर्शन करता रहूँ (जो नाम जपते हैं)।5। काम क्रोध लोभु मोहु तजो ॥ जनम मरन दुहु ते रहिओ ॥६॥ पद्अर्थ: तजो = त्यागो। दुहु ते = दोनों से। रहिओ = बच जाता है।6। अर्थ: (हे भाई! अपने मन में से) काम-क्रोध-लोभ-मोह दूर करो। (जो मनुष्य इन विकारों को मिटाता है) वह जनम और मरन दोनों (के चक्र) से बच जाता है।6। दूखु अंधेरा घर ते मिटिओ ॥ गुरि गिआनु द्रिड़ाइओ दीप बलिओ ॥७॥ पद्अर्थ: घरि ते = हृदय घर से। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइओ = पक्का कर दिया। दीप = दीया।7। अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के साथ गहरी सांझ पक्की कर ली, उसके अंदर (आत्मिक सूझ का) दीपक जग जाता है, उसके हृदय-घर में दुख का अंधकार मट जाता है।7। जिनि सेविआ सो पारि परिओ ॥ जन नानक गुरमुखि जगतु तरिओ ॥८॥१॥१३॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।8। अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने परमात्मा का स्मरण किया, वह संसार समुंदर से पार लांघ गया। गुरु की शरण पड़ कर जगत (संसार समुंदर को) तैर जाता है।8।1।13। महला ५ गउड़ी ॥ हरि हरि गुरु गुरु करत भरम गए ॥ मेरै मनि सभि सुख पाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करत = करते हुए, जपते हुए। भरम = सब भटकनें। मेरै मनि = मेरे मन ने। सभि = सारे।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए, गुरु गुरु करते हुए मेरे मन की सारी भटकनें दूर हो गई हैं, और मेरे मन ने सारे ही सुख प्राप्त कर लिए हैं।1। रहाउ। बलतो जलतो तउकिआ गुर चंदनु सीतलाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: बलतो = जलता। तउकिआ = छिड़का। गुर चंदनु = गुरु का शब्द-चंदन।1। अर्थ: (हे भाई! मन विकारों में) जल रहा था, तप रहा था। (जब) गुरु का शब्द रूपी चँदन (घिसा के इस पर) छिड़का, तो यह मन शीतल हो गया।1। अगिआन अंधेरा मिटि गइआ गुर गिआनु दीपाइओ ॥२॥ पद्अर्थ: दीपाइओ = जल पड़ा, रौशन हो गया।2। अर्थ: (हे भाई! मन विकारों में) सड़ रहा था, जल रहा था, (जब) गुरु का शब्द-चंदन (घिसा के इस पर) छिड़का तो ये मन ठण्डा-ठार हो गया।2। पावकु सागरु गहरो चरि संतन नाव तराइओ ॥३॥ पद्अर्थ: पावक = आग। सागरु = समुंदर। गहरो = गहरा। चरि = चढ़ के। नाव = बेड़ी।3। अर्थ: (हे भाई!) ये गहरा संसार-समुंदर (विकारों की तपश से) आग (आग बना पड़ा था) मैं साधु-संगत बेड़ी में चढ़ के इससे पार गुजर आया हूँ।3। ना हम करम न धरम सुच प्रभि गहि भुजा आपाइओ ॥४॥ पद्अर्थ: सुच = पवित्रता। प्रभि = प्रभु ने। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। आपाइओ = अपना बना लिया।4। अर्थ: (हे भाई!) मेरे पास ना कोई कर्म, ना धर्म, ना पवित्रता (आदि राशि-पूंजी) थी, प्रभु ने मेरी बाँह पकड़ के (खुद ही मुझे) अपना (दास) बना लिया है।4। भउ खंडनु दुख भंजनो भगति वछल हरि नाइओ ॥५॥ पद्अर्थ: भउ खंडनु = डर नाश करने वाला। भगति वछल हरि नाइओ = भक्ति से प्यार करने वाले हरि का नाम।5। अर्थ: (हे भाई!) भक्ति से प्यार करने वाले हरि का वह नाम जो हरेक किस्म का डर व दुख नाश करने में समर्थ है (मुझे उसकी अपनी मेहर से ही मिल गया है)।5। अनाथह नाथ क्रिपाल दीन सम्रिथ संत ओटाइओ ॥६॥ पद्अर्थ: संम्रिथ = समर्थ, सब ताकतों का मालिक। ओटाइओ = आसरा।6। अर्थ: तेरा नाम है डर और दु:ख दूर करने वाला, संतों के सहारा,।6। निरगुनीआरे की बेनती देहु दरसु हरि राइओ ॥७॥ पद्अर्थ: हरि राइओ = हे प्रभु पातशाह।7। अर्थ: हे अनाथों के नाथ! हे दीनों पर दया करने वाले! सर्वसशाली भक्तों का समर्थन।7। नानक सरनि तुहारी ठाकुर सेवकु दुआरै आइओ ॥८॥२॥१४॥ पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर!।8। अर्थ: हे नानक! (अरदास कर, और कह:) हे ठाकुर! मैं तेरा सेवक तेरी शरण आया हूँ, तेरे दर पर आया हूँ।8।2।14। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |