श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 229 गउड़ी महला १ ॥ गुर परसादी बूझि ले तउ होइ निबेरा ॥ घरि घरि नामु निरंजना सो ठाकुरु मेरा ॥१॥ पद्अर्थ: बेझि ले = समझ ले। तउ = तब। निबेरा = निर्णय, खलासी, माया के मोह के अंधेरे से निजात। घरि घरि = हरेक हृदय घर में। ठाकुरु = पालणहार, मालिक।1। अर्थ: (हे भाई!) अगर तू गुरु की कृपा से ये बात समझ ले कि माया रहित प्रभु का नाम हरेक हृदय-घर में बसता है और वही निरंजन मेरा भी पालनहार मालिक है, तो माया के प्रभाव से पैदा हुए आत्मिक अंधेरे में से तुझे निजात मिल जाएगी।1। बिनु गुर सबद न छूटीऐ देखहु वीचारा ॥ जे लख करम कमावही बिनु गुर अंधिआरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: न छूटीऐ = (माया के मोह के अंधकार से) खलासी नहीं होती। जे कमावही = अगर तू कमाए, अगर तू करे। अंधिआरा = अंधेरा, आत्मिक अंधेरा, माया के प्रभाव का अंधकार।1। रहाउ। अर्थ: (माया के मोह ने जीवों की आत्मिक आँखों के आगे अंधकार खड़ा कर दिया है, हे भाई!) विचार करके देख लो, गुरु के शब्द के बिना (इस आत्मिक अंधेरे से) खलासी नहीं हो सकती। (हे भाई!) अगर तू लाखों ही धर्म-कर्म करता रहे, तो भी गुरु की शरण आए बिना ये आत्मिक अंधेरा (टिका ही रहेगा)।1। रहाउ। अंधे अकली बाहरे किआ तिन सिउ कहीऐ ॥ बिनु गुर पंथु न सूझई कितु बिधि निरबहीऐ ॥२॥ पद्अर्थ: अकली बाहरे = अक्ल से खाली। किआ तिन सिउ कहीऐ = उन्हें समझाने का कोई लाभ नहीं। पंथु = (जीवन का सीधा) रास्ता। कितु बिधि निरबहीऐ = (सही जीवन-राह के राही का उनके साथ) किसी तरह भी निर्बाह नहीं हो सकता, साथ नहीं निभ सकता।2। अर्थ: जिस लोगों को माया के मोह ने अंधा कर दिया है और बुद्धि हीन कर दिया है, उन्हें ये समझाने का कोई लाभ नहीं। गुरु की शरण के बिना उन्हे जीवन का सही रास्ता मिल नहीं सकता, सही जीवन-राह के राही का उनके साथ किसी तरह का भी साथ नहीं निभ सकता।2। खोटे कउ खरा कहै खरे सार न जाणै ॥ अंधे का नाउ पारखू कली काल विडाणै ॥३॥ पद्अर्थ: कहै = कहता है। सार = कद्र, कीमत। पारखू = समझदार। विडाणै = आश्चर्य का। कली काल विडाणै = आश्चर्यजनक कलिजुग का हाल। आश्चर्य माया में फंसी दुनिया का हाल।3। (नोट: सतिगुरु जी ये नहीं कह रहे कि कोई एक युग किसी दूसरे युग से अच्छा है या बुरा। माया में मोह जगत का जिक्र है। जिस समय का नाम ब्राहमण ने कलियुग रख दिया था, उसी में आने के कारण आप शब्द ‘जगत’ की जगह ‘कली काल’ बरत रहे हैं)। अर्थ: माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य उस धन को जिसका प्रभु की दरगाह में कोई मूल्य नहीं है, असल धन कहता है। पर (जो नाम-धन) असल धन (है उस) की कद्र ही नहीं समझता। माया में अंधे हुए मनुष्य को समझदार कहा जा रहा है - ये आश्चर्यजनक चाल है दुनिया के समय की।3। सूते कउ जागतु कहै जागत कउ सूता ॥ जीवत कउ मूआ कहै मूए नही रोता ॥४॥ पद्अर्थ: सूते कउ = (माया के मोह में) सोए हुए को। जागतु = सुचेत। जागत कउ = उसे जो प्रभु नाम में जुड़ के माया के हमलों से सुचेत हैं। मूआ = दुनिया के मतलब का गया गुजरा।4। अर्थ: माया की मोह की नींद में सोए हुए को जगत कहता है कि ये जागता है सुचेत है, पर जो मनुष्य (परमातमा की याद में) जागता है सुचेत है, उसको कहता है कि ये सोया हुआ है। प्रभु की भक्ति की इनायत से जीते आत्मिक जीवन वाले को जगत कहता है कि हमारे लिए तो मरा हुआ है। पर आत्मिक मौत मरे हुए को देख के कोई अफसोस नहीं करता।4। आवत कउ जाता कहै जाते कउ आइआ ॥ पर की कउ अपुनी कहै अपुनो नही भाइआ ॥५॥ पद्अर्थ: पर की कउ = उस माया को जो पराए की बन जानी है। भाइआ = भाया, अच्छा लगा।5। अर्थ: परमात्मा के रास्ते पर आने वाले को जगत कहता है कि ये गया गुजरा है, पर प्रभु की ओर से गए गुजरे को जगत समझता है कि इसी का जगत में आना सफल हुआ है। जिस माया ने दूसरे की बन जाना है उसे जगत अपनी कहता है, पर जो नाम-धन असल में अपना है वह अच्छा नहीं लगता।5। मीठे कउ कउड़ा कहै कड़ूए कउ मीठा ॥ राते की निंदा करहि ऐसा कलि महि डीठा ॥६॥ पद्अर्थ: राते की = नाम रंग में रंगे हुए की। करहि = करते हैं। कलि महि = जगत में।6। अर्थ: नाम-रस और सारे रसों से मीठा है, इसको जगत कड़वा कहता है। विषियों का रस (अंत को) कड़वा (दुखदाई साबत होता) है, इसे जगत स्वादिष्ट कह रहा है। प्रभु के नाम-रंग में रंगे हुए की लोग निंदा करते हैं। जगत में ये आश्चर्यजनक तमाशा देखने में आ रहा है।6। चेरी की सेवा करहि ठाकुरु नही दीसै ॥ पोखरु नीरु विरोलीऐ माखनु नही रीसै ॥७॥ पद्अर्थ: चेरी = परमात्मा की दासी, माया। दीसै = दिखता। पोखरु = छप्पड़। नीरु = पानी। विरोलीऐ = अगर मंथन करें। नही रीसै = नहीं निकलता।7। अर्थ: लोग परमात्मा की दासी (माया) की तो सेवा खुशामद कर रहे हैं, पर (माया का) मालिक किसी को दिखता ही नहीं। (माया में से सुख ढूँढना इस तरह है जैसे पानी मथ के उसमें से मक्खन ढूँढना)। यदि छप्पड़ को मथें, अगर पानी को मथें, उसमें से मक्खन नहीं निकल सकता।7। इसु पद जो अरथाइ लेइ सो गुरू हमारा ॥ नानक चीनै आप कउ सो अपर अपारा ॥८॥ पद्अर्थ: पद = आत्मिक दर्जा। अरथाइ लेइ = यत्न से हासिल कर ले। चीनै = परखे, पहचाने। अपर = माया के प्रभाव से परे। अपारा = जिसके गुणों का पार न पाया जा सके।8। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपनी अस्लियत को पहिचान लेता है, वह उस परमात्मा का रूप बन जाता है जो माया के प्रभाव से परे है और जिसके गुणों का परला छोर नहीं मिल सकता। स्वै-पहिचान के आत्मिक दर्जे को मनुष्य प्राप्त कर लेता है, मैं उसके आगे अपना सिर झुकाता हूँ।8। सभु आपे आपि वरतदा आपे भरमाइआ ॥ गुर किरपा ते बूझीऐ सभु ब्रहमु समाइआ ॥९॥२॥१८॥ पद्अर्थ: सभु = हर जगह। आपे = (प्रभु) स्वयं ही। भरमाइआ = भुलेखे में डाला। ते = से, साथ।9। अर्थ: (पर माया में और जीवों में) हर जगह परमात्मा स्वयं ही स्वयं व्यापक है, खुद ही जीवों को गलत राह पर डालता है। गुरु की मेहर से ही ये समझ पड़ती है कि परमातमा हरेक जगह मौजूद है।9।2।18। रागु गउड़ी गुआरेरी महला ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मन का सूतकु दूजा भाउ ॥ भरमे भूले आवउ जाउ ॥१॥ पद्अर्थ: सूतकु = किसी बालक के जन्म से किसी के घर में पैदा हुई अपवित्रता। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = परमात्मा को बिसार के माया आदि के साथ डाला हुआ प्यार। अवउ जाउ = जनम मरण का चक्कर।1। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा को भुला के माया आदि) के साथ डाला प्यार मन की अपवित्रता (का कारण बनता) है (इस अपवित्रता के कारण माया की) भटकना में गलत रास्ते पर पड़े हुए मनुष्य को जनम मरण का चक्र बना रहता है।1। मनमुखि सूतकु कबहि न जाइ ॥ जिचरु सबदि न भीजै हरि कै नाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सबदि = शब्द में। भीजै = भीगता है, पतीजता। नाइ = नाम में।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जब तक (मनुष्य गुरु के) शब्द में नहीं पतीजता, परमात्मा के नाम में नहीं जुड़ता (तब तक मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, और) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (के मन) की अपवित्रता कभी दूर नहीं होती।1। रहाउ। सभो सूतकु जेता मोहु आकारु ॥ मरि मरि जमै वारो वार ॥२॥ पद्अर्थ: सभो = सारा ही। जेता = जितना ही। आकारु = ये दिखाई देता जगत। वारो वार = बार बार।2। अर्थ: (हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के लिए) ये जितना ही जगत है, जितना ही जगत का मोह है ये सारा अपवित्रता (का मूल) है, वह मनुष्य (इस आत्मिक मौत में) मर मर के बारंबार पैदा होता रहता है।2। सूतकु अगनि पउणै पाणी माहि ॥ सूतकु भोजनु जेता किछु खाहि ॥३॥ पद्अर्थ: माहि = में। जेता किछु = जितना कुछ।3। अर्थ: (मनमुखों के वास्ते) आग में, हवा में, पानी में भी अपवित्रता ही है, जितना कुछ भोजन आदि वो खाते हैं वह भी (उनके मन के वास्ते) अपवित्रता (का कारण ही बनता) है।3। सूतकि करम न पूजा होइ ॥ नामि रते मनु निरमलु होइ ॥४॥ पद्अर्थ: सूतकि = अपवित्रता के कारण। नामि = नाम में।4। अर्थ: (हे भाई!) सूतक (के भ्रम में ग्रसे हुए मन को) कोई कर्म-कांड पवित्र नहीं कर सकते। कोई देव-पूजा पवित्र नहीं कर सकती। परमात्मा के नाम में रंगे जा के ही मन पवित्र होता है।4। सतिगुरु सेविऐ सूतकु जाइ ॥ मरै न जनमै कालु न खाइ ॥५॥ पद्अर्थ: सेविऐ = अगर सेवा की जाए, अगर शरण ली जाए। जाइ = दूर होता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत।5। अर्थ: (हे भाई!) अगर सतिगुरु का आसरा लिया जाए तो मन की अपवित्रता दूर हो जाती है, (गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य) ना मरता है ना पैदा होता है, ना ही उसे आत्मिक मौत खाती है।5। सासत सिम्रिति सोधि देखहु कोइ ॥ विणु नावै को मुकति न होइ ॥६॥ पद्अर्थ: सोधि देखहु = विचार के देख लो। को = कोई मनुष्य। मुकति = सूतक से खलासी।6। अर्थ: (हे भाई! बेशक) कोई स्मृतियों-शास्त्रों को भी विचार के देख लो। परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य मानसिक अपवित्रता से खलासी नहीं पा सकता।6। जुग चारे नामु उतमु सबदु बीचारि ॥ कलि महि गुरमुखि उतरसि पारि ॥७॥ पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। सबदु बीचारि = गुरु के शब्द को विचार के। कलि महि = इस समय में भी जिसे कलिजुग कह रहे हैं। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ा मनुष्य (ही)।7। अर्थ: (हे भाई!) चारों युगों में गुरु के शब्द को विचार के (परमात्मा का) नाम (जप के ही मनुष्य) उत्तम बन सकता है। इस युग में भी जिसे कलियुग कहा जा रहा है वही मनुष्य (विकारों के समुंद्रों से) पार लांघता है जो गुरु की शरण पड़ता है।7। साचा मरै न आवै जाइ ॥ नानक गुरमुखि रहै समाइ ॥८॥१॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। न आवै जाइ = आता जाता नहीं, पैदा होता मरता नहीं। गुरमुखि = गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य।8। अर्थ: हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य उस परमात्मा में सदा लीन रहता है जो सदा कायम रहने वाला है और जो कभी पैदा होता मरता नहीं (इस तरह उस मनुष्य को कोई अपवित्रता छू नहीं सकती)।8।1। गउड़ी महला ३ ॥ गुरमुखि सेवा प्रान अधारा ॥ हरि जीउ राखहु हिरदै उर धारा ॥ गुरमुखि सोभा साच दुआरा ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके। हिरदै = हृदय में। उर = हृदय। साच दुआरा = सदा स्थिर रहने वाले हरि के दर पर।1। अर्थ: (हे पंडित!) गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा की सेवा भक्ति को अपने जीवन का आसरा बना। परमात्मा को अपने हृदय में अपने मन में टिका के रख, (हे पंडित!) गुरु की शरण पड़ कर तू सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर आदर मान हासिल करेगा।1। पंडित हरि पड़ु तजहु विकारा ॥ गुरमुखि भउजलु उतरहु पारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पंडित = हे पण्डित! पढ़ = पढ़। भउजल = संसार समुंदर।1। रहाउ। अर्थ: हे पंडित! परमात्मा की महिमा पढ़ (और इसकी इनायत से अपने अंदर से) विकार छोड़। (हे पंडित!) गुरु की शरण पड़ कर तू संसार समुंदर से पार लांघ जाएगा।1। रहाउ। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |