श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अंतु न पावत देव सबै मुनि इंद्र महा सिव जोग करी ॥ फुनि बेद बिरंचि बिचारि रहिओ हरि जापु न छाड्यिउ एक घरी ॥

पद्अर्थ: सबै = सारे। जोग = जोग साधना। करी = की। फुनि = और। बिरंचि = ब्रहमा। न छाडिउ = नहीं छोड़ा।

अर्थ: इन्द्र और शिव जी ने जोग-साधना की, ब्रहमा बेद विचार के थक गया, उसने हरि का जाप एक घड़ी ना छोड़ा, पर इन सभी देवताओं और मुनियों ने (गुरु अरजुन का) अंत नहीं पाया।

मथुरा जन को प्रभु दीन दयालु है संगति स्रिस्टि निहालु करी ॥ रामदासि गुरू जग तारन कउ गुर जोति अरजुन माहि धरी ॥४॥

पद्अर्थ: को = का। करी = की है। रामदासि गुरू = गुरु रामदास ने। गुर जोति = गुरु वाली ज्योति।

अर्थ: दास मथुरा का प्रभु (गुरु अरजुन) दीनों पर दया करने वाला है, आपने संगत को और सृष्टि को निहाल किया है। गुरु रामदास जी ने जगत के उद्धार के लिए गुरु वाली ज्योति गुरु अरजुन में रख दी।4।

जग अउरु न याहि महा तम मै अवतारु उजागरु आनि कीअउ ॥ तिन के दुख कोटिक दूरि गए मथुरा जिन्ह अम्रित नामु पीअउ ॥

पद्अर्थ: अउरु न = कोई और नहीं। जग महा तम मै = जगत के बड़े अंधेरे में। तम = अंधेरा। मै = में। उजागरु = बड़ा, मशहूर। आनि = ला के। कोटिक = करोड़ों। जिन्ह = जिन्होंने।

अर्थ: जगत के इस घोर अंधेरे में (गुरु अरजुन के बिना) कोई और (रखवाला) नहीं है, उसी को (हरि ने) ला के उजागर अवतार बनाया है। हे मथुरा! जिन्होंने (उससे) नाम-अमृत पिया है उनके करोड़ों दुख दूर हो गए हैं।

इह पधति ते मत चूकहि रे मन भेदु बिभेदु न जान बीअउ ॥ परतछि रिदै गुर अरजुन कै हरि पूरन ब्रहमि निवासु लीअउ ॥५॥

पद्अर्थ: पधति = पद्धति, रास्ता। ते = से। मत = कहीं। चूकहि = चूक जाए। भेदु = फर्क, दूरी। बीअउ = दूसरा। रिदै = हृदय में।

अर्थ: हे मेरे मन! कहीं इस राह से भटक ना जाना, कहीं ये दूरी ना समझना, कि गुरु अरजुन (हरि से अलग) दूसरा है। पूरन ब्रहम हरि ने गुरु अरजन के हृदय में प्रत्यक्ष तौर पर निवास किया है।5।

जब लउ नही भाग लिलार उदै तब लउ भ्रमते फिरते बहु धायउ ॥ कलि घोर समुद्र मै बूडत थे कबहू मिटि है नही रे पछुतायउ ॥

पद्अर्थ: जब लउ = जब तक। लिलार भाग = माथे के भाग्य। उदै = उदय, जागे। बहु धायउ = बहुत दौड़ते। घोर = डरावना। बूडत थे = डूब रहे थे। पछुतायउ = पछताना। रे = हे भाई!

अर्थ: हे भाई! जब तक माथे के भाग्य नहीं थे जागे, तब तक बहुत भटकते फिरते और भागते फिरते थे, पछतावा किसी भी वक्त नहीं मिटता था।

ततु बिचारु यहै मथुरा जग तारन कउ अवतारु बनायउ ॥ जप्यउ जिन्ह अरजुन देव गुरू फिरि संकट जोनि गरभ न आयउ ॥६॥

पद्अर्थ: ततु बिचारु = सच्ची विचार। यहै = यही है। संकट = दुख।

अर्थ: पर, हे मथुरा! अब सच्ची विचार ये है कि जगत के उद्धार के लिए (हरि ने गुरु अरजुन) अवतार बनाया है, जिन्होंने गुरु अरजुन देव (जी) को जपा है, वे पलट के गर्भ जोनि और दुखों में नहीं आए।6।

कलि समुद्र भए रूप प्रगटि हरि नाम उधारनु ॥ बसहि संत जिसु रिदै दुख दारिद्र निवारनु ॥

पद्अर्थ: कलि = कलजुग। जिसु रिदै = जिस हृदय में।

अर्थ: कलजुग के समुंदर से तैराने के लिए गुरु अरजुन देव जी हरि का नाम-रूप प्रकट हुए हैं, आप के हृदय में संत (शांति के श्रोत प्रभु जी) बसते हैं, आप दुखों-दरिद्रों के दूर करने वाले हैं।

निरमल भेख अपार तासु बिनु अवरु न कोई ॥ मन बच जिनि जाणिअउ भयउ तिह समसरि सोई ॥

पद्अर्थ: भेख = स्वरूप। निरमल = पवित्र। अपार = बेअंत प्रभु का। जिनि = जिस ने। समसरि = जैसा।

अर्थ: उस (गुरु अरजुन) के बिना और कोई नहीं है, आप अपार हरि का निर्मल रूप हैं। जिस (मनुष्य) ने मन और वचनों से हरि को पहचाना है, वह हरि जैसा ही हो गया है।

धरनि गगन नव खंड महि जोति स्वरूपी रहिओ भरि ॥ भनि मथुरा कछु भेदु नही गुरु अरजुनु परतख्य हरि ॥७॥१९॥

पद्अर्थ: धरनि = धरती। गगन = आकाश। महि = में। भरि = व्यापक। परतख्य = प्रतक्ष्य, साक्षात तौर पर।

अर्थ: (गुरु अरजुन ही) ज्योति-रूप हो के धरती आकाश और नौ-खण्डों में व्याप रहा है। हे मथुरा! कह: गुरु अरजुन साक्षात अकाल पुरख है। कोई फर्क नहीं है।7।19।

(मथुरा भाट के 7 सवईऐ)

अजै गंग जलु अटलु सिख संगति सभ नावै ॥ नित पुराण बाचीअहि बेद ब्रहमा मुखि गावै ॥

पद्अर्थ: अजै = ना जीते जाने वाला, ईश्वरीय। गंग जलु = गंगा का जल। अटलु = सदा स्थिर रहने वाला। नावै = स्नान करती है। बाचीअहि = पढ़े जाते हैं। मुखि = मुँह से। गावै = गाता है। पुराण = ब्यास ऋषि की लिखी हुई अठारह धर्म पुस्तकें।

अर्थ: (गुरु अरजुन देव जी की दरगाह में) कभी ना खत्म होने वाला (नाम-रूप) गंगा जल (बह रहा है, जिसमें) सारी संगति स्नान करती है। (आपकी हजूरी में इतने महा ऋषि ब्यास की लिखी हुई धर्म पुस्तकें) पुराण सदा पढ़े जाते हैं और ब्रहमा (भी आपकी हजूरी में) मुँह से वेदों को गा रहा है (भाव, ब्यास और ब्रहमा जैसे बड़े-बड़े देवते और विद्वान ऋषि भी गुरु अरजुन के दर पर हाजिर रहने में अपने अच्छे भाग्य समझते हैं। मेरे लिए तो गुरु की वाणी ही पुराण और वेद है)।

अजै चवरु सिरि ढुलै नामु अम्रितु मुखि लीअउ ॥ गुर अरजुन सिरि छत्रु आपि परमेसरि दीअउ ॥

पद्अर्थ: ढुलै = झूल रहा है। गुरू अरजुन सिरि = गुरु अरजुन के सिर पर। परमेसरि = परमेश्वर ने।

अर्थ: (आप के) सिर पर ईश्वरीय चवर झूल रहा है, आप ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम मुँह से (सदा) उचारा है। गुरु अरजन देव जी के सिर पर यह छत्र परमेश्वर ने स्वयं बख्शा है।

मिलि नानक अंगद अमर गुर गुरु रामदासु हरि पहि गयउ ॥ हरिबंस जगति जसु संचर्यउ सु कवणु कहै स्री गुरु मुयउ ॥१॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। हरि पहि = हरि के पास। हरि बंस = हे हरिबंस कवि! जगति = संसार में। संचर्उ = पसरा हुआ है। मिलि गुर = गुरु को मिल के। मुयउ = मरा हुआ है।

अर्थ: गुरु नानक, गुरु अंगद और गुरु अमरदास जी को मिल के, गुरु रामदास जी हरि में लीन हो गए हैं। हे हरिबंस! जगत में सतिगुरु जी की शोभा पसर रही है। कौन कहता है, कि गुरु रामदास जी मर गए हैं?

देव पुरी महि गयउ आपि परमेस्वर भायउ ॥ हरि सिंघासणु दीअउ सिरी गुरु तह बैठायउ ॥

पद्अर्थ: देव पुरी = हरि का देश, सचखंड। भायउ = अच्छा लगा। हरि = हरि ने। सिंघासणु = तख़्त। तह = वहाँ।

अर्थ: (गुरु रामदास) सचखण्ड में गए हैं हरि को यही रज़ा ठीक लगी है। हरि ने (आप को) तख्त दिया है और उस पर श्री गुरु (रामदास जी) को बैठाया है।

रहसु कीअउ सुर देव तोहि जसु जय जय ज्मपहि ॥ असुर गए ते भागि पाप तिन्ह भीतरि क्मपहि ॥

पद्अर्थ: रहसु = खुशी, मंगल। सुरदेव = देवताओं ने। तोहि जसु = तेरा यश। असुर = दैत्य। ते = वह सारे।

अर्थ: देवताओं ने मंगलचार किया है, तेरा यश और जय-जयकार कर रहे हैं। वह (सारे) दैत्य (वहाँ से) भाग गए हैं, (उनके अपने) पाप उनके अंदर काँप रहे हैं।

काटे सु पाप तिन्ह नरहु के गुरु रामदासु जिन्ह पाइयउ ॥ छत्रु सिंघासनु पिरथमी गुर अरजुन कउ दे आइअउ ॥२॥२१॥९॥११॥१०॥१०॥२२॥६०॥१४३॥

पद्अर्थ: तिन नरहु के = उन मनुष्यों के। के आइअउ = दे के आ गया है।

अर्थ: उन मनुष्यों के पाप कट गए हैं, जिस को गुरु रामदास मिल गया है। गुरु रामदास धरती का छत्र और सिंहासन गुरु अरजुन साहिब जी को दे आया है।2।21।

नोट: ये दोनों सवईए ‘हरिबंस’ भाट के हैं। पहले सवईए में गुरु अरजन साहिब जी के दरबार की महिमा की है। हिन्दू मत में गंगा, पुराण और वेदों की महानता मानी गई है। भाट जी के हृदय पर सतिगुरु जी का दरबार देख के यह प्रभाव पड़ता है कि नाम अमृत, मानो, गंगा जल है। पुराण और वेद भी गुरु–दर की शोभा कर रहे हैं। उसी तरह का ख्याल है, जैसे बाबा लहणा जी ने वैश्णों देवी को गुरु नानक के दर पर झाड़ू लगाते हुए देखा। भाट हरिबंस के हृदय में पहले गंगा, पुराण और वेदों की इज्जत थी, गुरु का दर देख के प्रतीत हुआ कि इस दर के तो वो भी सेवक हैं।

(हरिबंस भाट के 2 सवईऐ)

सारा वेरवा:
कल्सहार-------------------12
मथुरा-----------------------07
हरिबंस----------------------02
कुल-------------------------21
आखिरी अंकों का वेरवा;
सवईए श्री मुख बाक्--------09
सवईए श्री मुख बाक्--------11
सवईए महले पहले के-------10
सवईए महले दूजे के--------10
सवईए महले तीजे के--------22
सवईए महले चौथे के--------60
सवईए महले पंजवे के--------21
कुल जोड़ --------------------143

अंक 122 में गुरु अरजुन साहिब की स्तुति में उचारे 21 सवईयों का जोड़ नहीं दिया गया है।

सारे भाटों का वेरवा;
महला१ म: २ म: ३ म: ४ म: ५
कल्सहार ...10...10..9...13...12....58
जालप--------5----------------5
कीरत--------4--------4-------8
भिखा--------2-----------------2
सल्य--------1--------2--------3
भल्य--------1-----------------1
नल्य--------6----------------16
गयंद--------13--------------13
मथुरा--------7--------7-----14
बल्य--------5-----------------5
हरिबंस----------------2--------2
.... 10...10..22..60..21..123

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh