श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुर रामदास घरि कीअउ प्रगासा ॥ सगल मनोरथ पूरी आसा ॥ तै जनमत गुरमति ब्रहमु पछाणिओ ॥ कल्य जोड़ि कर सुजसु वखाणिओ ॥

पद्अर्थ: गुर रामदास घरि = गुरु रामदास (जी) के घर में। कीअउ प्रगासा = प्रकट हुए। जनमत = जनम लेते ही, आदि से ही। गुरमति = गुरु की मति ले के। जोड़ि कर = हाथ जोड़ के। कर = हाथ (बहुवचन)।

अर्थ: (हे गुरु अरजुन!) कल्य कवि हाथ जोड़ के (आपकी) महिमा उचारता है, (आप ने) गुरु रामदास (जी) के घर में जनम लिया, (उनके) सारे उद्देश्य और आशाएं पूरी हुई। जनम से ही आप ने गुरु की मति के द्वारा ब्रहम को पहचाना है (परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली हुई है)।

भगति जोग कौ जैतवारु हरि जनकु उपायउ ॥ सबदु गुरू परकासिओ हरि रसन बसायउ ॥

पद्अर्थ: कौ = को। जैतवारु = जीतने वाला। रसन = जीभ पर।

अर्थ: आप ने भक्ति के जोग को जीत लिया है (भाव, आपने भक्ति का मिलाप पा लिया है)। हरि ने (आप को) ‘जनक’ पैदा किया है। (आप ने) गुरु शब्द को प्रकट किया है, और हरि को (आप ने) जीभ पर बसाया है।

गुर नानक अंगद अमर लागि उतम पदु पायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास भगत उतरि आयउ ॥१॥

अर्थ: गुरु नानक देव, गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी के चरणों में लग के, (गुरु अरजन साहिब जी ने) उत्तम पदवी पाई है; गुरु रामदास (जी) के घर में गुरु अरजुन भक्त पैदा हो गया है।1।

बडभागी उनमानिअउ रिदि सबदु बसायउ ॥ मनु माणकु संतोखिअउ गुरि नामु द्रिड़्हायउ ॥

पद्अर्थ: उनमानिअउ = पूरन खिलाव में है। रिदि = हृदय में है। गुरि = गुरु ने।

अर्थ: (गुरु अरजन) बहुत भाग्यशाली है, पूर्ण खिलाव में है। (आपने) हृदय में शब्द बसाया है; (आपने अपने) माणक-रूप मन को संतोख में टिकाया है; गुरु (रामदास जी) ने (आप को) नाम दृढ़ कराया है।

अगमु अगोचरु पारब्रहमु सतिगुरि दरसायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अनभउ ठहरायउ ॥२॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु (रामदास जी) ने। दरसायउ = दिखाया है। अनभउ = ज्ञान। ठहरायउ = स्थापित किया है। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।

अर्थ: सतिगुरु (रामदास जी) ने (आप को) अगम अगोचर पारब्रहम दिखा दिया है। गुरु रामदास (जी) के घर में अकाल-पुरख ने गुरु अरजुन (जी) को ज्ञान-रूप स्थापित किया है।2।

जनक राजु बरताइआ सतजुगु आलीणा ॥ गुर सबदे मनु मानिआ अपतीजु पतीणा ॥

पद्अर्थ: जनक राजु = जनक का राज (भाव, ज्ञान का राज)। आलीणा = समाया हुआ है, पसरा हुआ है। अपतीजु = ना पतीजने वाला मन।

अर्थ: (गुरु अरजन साहिब ने) ज्ञान का राज बरता दिया है, (अब तो) सतिगुरु बरत रहा है। (आप का) मन गुरु के शब्द में माना हुआ है, और यह ना पतीजने वाला मन पतीज गया है।

गुरु नानकु सचु नीव साजि सतिगुर संगि लीणा ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अपर्मपरु बीणा ॥३॥

पद्अर्थ: साजि = उसार के। सतिगुर संगि = गुरु (अरजन देव) में। अपरंपरु = बेअंत हरि। बीणा = बना हुआ है।

अर्थ: गुरु नानक देव स्वयं ‘सचु’-रूप नींव उसार के गुरु (अरजन देव जी) में लीन हो गया है। गुरु रामदास (जी) के घर में गुरु अरजुन देव अपरंपर-रूप बना हुआ है।3।

खेलु गूड़्हउ कीअउ हरि राइ संतोखि समाचरि्यओ बिमल बुधि सतिगुरि समाणउ ॥ आजोनी स्मभविअउ सुजसु कल्य कवीअणि बखाणिअउ ॥

पद्अर्थ: गूढ़उ = आश्चर्य। हरि राइ = अकाल-पुरख ने। समाचरि्यओ = विचारता है (गुरु अरजुन)। बिमल = निर्मल। सतिगुरि = गुरु (अरजुन) में। समाणउ = समाई है। आजोनी = जूनों से रहत। संभविअउ = (स्वयं भु) अपने आप से प्रकट होने वाला। कल्य कवीअणि = कल्य आदि कवियों ने।

अर्थ: अकाल पुरख ने (यह) आश्चर्य (भरी) खेल रची है, (गुरु अरजुन) संतोख में विचर रहा है। निर्मल बुद्धि गुरु (अरजुन) में समाई हुई है। आप जूनियों से रहित और स्वयंभु हरि का रूप हैं। कल्य आदि कवियों ने (आप का) सुंदर यश उचारा है।

गुरि नानकि अंगदु वर्यउ गुरि अंगदि अमर निधानु ॥ गुरि रामदास अरजुनु वर्यउ पारसु परसु प्रमाणु ॥४॥

पद्अर्थ: वर्उ = वर दिया है। निधानु = खजाना। परसु = परसना, छूना। पारसु प्रमाणु = पारस जैसा।

अर्थ: गुरु नानक (देव जी) ने गुरु अंगद को वर बख्शा; गुरु अंगद (देव जी) ने (सब पदार्थों के) खजाना (गुरु) अमरदास (जी) को दिया। गुरु रामदास जी ने (गुरु) अरजुन (साहिब जी) को वर दिया; और उन (के चरणों) को छूना पारस की छोह जैसा हो गया।4।

सद जीवणु अरजुनु अमोलु आजोनी स्मभउ ॥ भय भंजनु पर दुख निवारु अपारु अन्मभउ ॥

पद्अर्थ: पर दुख = पराए दुख। अनंभउ = ज्ञान रूप।

अर्थ: (गुरु) अरजन (साहिब) सद-जीवी हैं, (आपका) मूल्य नहीं आँका जा सकता, (आप) जूनियों से रहत और स्वयंभू हरि का रूप है; (गुरु अरजन) भय दूर करने वाले, पराए दुख हरने वाले, बेअंत और ज्ञान-स्वरूप है।

अगह गहणु भ्रमु भ्रांति दहणु सीतलु सुख दातउ ॥ आस्मभउ उदविअउ पुरखु पूरन बिधातउ ॥

पद्अर्थ: अगह = जो पहुँच से परे है। अगह गहणु = पहुँच से परे जो हरि है उस तक पहुँच वाला। आसंभउ = उत्पक्ति रहत, अजन्मा। अदविअउ = प्रकट हुआ है। बिधातउ = बिधाता, कर्तार।

अर्थ: (गुरु अरजन साहिब जी की) उस हरि तक पहुँच है जो (जीवों की) पहुँच से परे है, (गुरु अरजन) भ्रम और भटकना को दूर करने वाला है, सीतल है और सुखों को देने वाला है; (मानो) अजन्मा, पूरन पुरख विधाता प्रकट हो गया है।

नानक आदि अंगद अमर सतिगुर सबदि समाइअउ ॥ धनु धंनु गुरू रामदास गुरु जिनि पारसु परसि मिलाइअउ ॥५॥

पद्अर्थ: आदि = आरम्भ से ले के। सतिगुरि सबदि = सतिगुरु के शब्द में। समाइअउ = (गुरु अरजन) लीन हुआ है। जिनि = जिस (गुरु रामदास जी) ने। परसि = (गुरु अरजन को) परस के। पारसु = पारस (बना के)।

अर्थ: गुरु नानक, गुरु अंगद और गुरु अमरदास जी की इनायत से, (गुरु अरजन देव) सतिगुरु के शब्द में लीन है। गुरु रामदास जी धन्य हैं, जिसने गुरु (अरजन जी को) परस के पारस बना के अपने जैसा कर लिया है।5।

जै जै कारु जासु जग अंदरि मंदरि भागु जुगति सिव रहता ॥ गुरु पूरा पायउ बड भागी लिव लागी मेदनि भरु सहता ॥

पद्अर्थ: जासु = जिस (गुरु अरजन जी) का। मंदरि = (हृदय-रूप) घर में। सिव = कल्याण स्वरूप हरि। जुगति सिव रहता = हरि से जुड़ा हुआ रहता है। मेदनि = पृथ्वी। मेदनि भरु = धरती का भार।

अर्थ: जिस गुरु की महिमा जगत में हो रही है, जिसके हृदय के भाग्य जाग उठे हैं, जो हरि से जुड़ा रहता है, (जिसने) बड़े भाग्यों से पूरा गुरु पा लिया है, (जिसकी) तवज्जो (हरि में) जुड़ी रहती है, और जो धरती का भार सह रहा है;

भय भंजनु पर पीर निवारनु कल्य सहारु तोहि जसु बकता ॥ कुलि सोढी गुर रामदास तनु धरम धुजा अरजुनु हरि भगता ॥६॥

पद्अर्थ: तोहि = तेरा। बकता = कहता है। कुलि सोढी = सोढी कुल में। गुर रामदास तन = गुरु रामदास (जी) का पुत्र। धरम धुजा = धर्म के झण्डे वाला।

अर्थ: (हे गुरु अरजुन जी!) तू भय दूर करने वाला, पराई पीड़ा हरने वाला है, कवि कलसहार तेरा यश कहता है। गुरु अरजुन साहिब गुरु रामदास जी का पुत्र, सोढी कुल में धर्म के झण्डे वाला, हरि का भक्त है।6।

नोट: पहले सवईयों में भाट का नाम ‘कल्य’ आ रहा था, इस सवईऐ में नाम ‘कल्सहार’ आया है, अगले सवईयों में फिर ‘कल्य’ आएगा। सवईयों का क्रमांक भी उसी कड़ी में जारी है। सो, ‘कल्सहार’ और ‘कल्य’ एक ही कवि हैं।

ध्रम धीरु गुरमति गभीरु पर दुख बिसारणु ॥ सबद सारु हरि सम उदारु अहमेव निवारणु ॥

पद्अर्थ: ध्रंम = धरम। पर = पराए। सारु = श्रेष्ठ। उदारु = खुले दिल वाला। अहंमेव = अहंकार।

अर्थ: (गुरु अरजन देव जी ने) धैर्य को अपना धर्म बनाया हुआ है, (गुरु अरजन) गुरमति में गहरा है, पराए दुख दूर करने वाला है, श्रेष्ठ शब्द वाला है, हरि जैसा उदार-चिक्त है, और अहंकार को दूर करता है।

महा दानि सतिगुर गिआनि मनि चाउ न हुटै ॥ सतिवंतु हरि नामु मंत्रु नव निधि न निखुटै ॥

पद्अर्थ: न हुटै = नहीं खत्म होता। न निखुटै = खत्म नहीं होता। गिआनि = ज्ञानवान। मनि = मन में। नवनिधि = नौ खजाने।

अर्थ: (आप) बड़े दानी हैं, गुरु के ज्ञान वाले हैं, (आप के) मन में उत्साह कभी कम नहीं होता। (आप) सतिवंत हैं, हरि का नाम-रूप मंत्र (जो, मानो) नौ-निधियां (हैं, जो आप के खजाने में से) कभी खत्म नहीं होती।

गुर रामदास तनु सरब मै सहजि चंदोआ ताणिअउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै राज जोग रसु जाणिअउ ॥७॥

पद्अर्थ: तनु = पुत्र। सरब मै = सर्व मय, सरब व्यापक। सहजि = सहज अवस्था में। गुर अरजुन = हे गुरु अरजुन देव जी! कल्हुचरै = कल्य+उचरै, कल्य कहता है। तै = आप ने, तूने। राज जोग रसु = राज और जोग का आनंद।

अर्थ: गुरु रामदास जी का सपुत्र (गुरु अरजन जी) सर्व-व्यापक (का रूप) है; (आपने) आत्मिक अडोलता में (अपना) चँदोआ ताना हुआ है (भाव, आप सहज रूप में आनंद ले रहे हैं)। कल्य कवि कहता है, “हे गुरु अरजुन देव! तूने राज और जोग का आनंद समझ लिया है” (भोग रहा है)।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh