श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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किझु न बुझै किझु न सुझै दुनीआ गुझी भाहि ॥ सांईं मेरै चंगा कीता नाही त हं भी दझां आहि ॥३॥

पद्अर्थ: किझु = कुछ भी। बुझै = समझ आती, पता लगता। दुनीआ = दुनिया का मोह। गुझी = छुपी हुई। भाहि = आग। सांई मेरै = मेरे सांई ने। हंभी = मैंने भी। दझां आहि = जल जाता।

अर्थ: दुनिया (देखने में तो गुलज़ार है, पर इसका मोह असल में) छुपी हुई गुप्त आग है (जो अंदर ही अंदर मन में धुखती रहती है; इसमें पड़े हुए जीवों को जिंदगी के सही रास्ते की) कुछ सूझ-बूझ नहीं पड़ती। मेरे सांई ने (मेरे ऊपर) मेहर की है (और मुझे इससे बचा लिया है) नहीं तो (बाकी लोगों की तरह) मैं भी (इसमें) जल जाता (भाव, माया के मोह से प्रभु स्वयं ही मेहर करके बचाता है, हमारे अपने वश की बात नहीं कि यह ‘पोटली’ सिर से उतार के फेंक सकें)।3।

फरीदा जे जाणा तिल थोड़ड़े समलि बुकु भरी ॥ जे जाणा सहु नंढड़ा तां थोड़ा माणु करी ॥४॥

पद्अर्थ: तिल = (भाव,) साँसें। थोड़ड़े = बहुत कम। समंलि = संभल के, सोच समझ के। सहु = पति प्रभु। नंढड़ा = छोटा सा नढा, छोटा सा बालक (भाव, बालक स्वभाव वाला)।

अर्थ: हे फरीद! अगर मुझे पता हो कि (इस शरीर-रूपी बर्तन में) बहुत थोड़े से (श्वास रूप) तिल हैं तो मैं सोच-समझ के (इनकी) मुट्ठी भरूँ (भाव, बेपरवाही से जीवन की साँसें ना गुजारी जाऊँ)। अगर मुझे समझ आ जाए कि (मेरा) पति (-प्रभु) बाल-स्वभाव वाला है (भाव, भोले स्वभाव को प्यार करता है) तो मैं भी (इस दुनिया वाली ‘पोटली’ का) गुमान छोड़ दूँ।4।

नोट: ब्याह हो जाने पर जब नव–विवाहिता बधू ससुराल में आती है, तो वर वाले घर की औरतें परात आदि किसी खुले चौड़े बर्तन में बहुत सारे तिल लाती हैं। पहले दूल्हा अपनी मुट्ठी भर के दुल्हन की मुट्ठी में डालता है, फिर दुल्हन मुट्ठी भर के दुल्हे की मुट्ठी में डालती है। इस रस्म को ‘तिल भल्ले’ या ‘तिल वेतरे’ कहते हैं। पति के साथ ‘तिल वेतरे’ खेलने के बाद दुल्हन अपनी ननदों और जेठानियों के साथ ‘तिल वेतरे’ खेलती है। इस रस्म का भाव ये लिया जाता है कि नई आई वधू का दिल नए परिवार में सबके साथ रच–मिच जाए। लहिंदे पंजाब में इस रस्म का हिन्दू घरों में आम रिवाज़ था। फरीद जी इस रस्म की तरफ इशारा करके शलोक नं: 4 में फरमाते हैं कि जीव-स्त्री ने पति–प्रभु के सारे परिवार (ख़लकति) के साथ बाल–स्वभाव बन के प्यार करना है।

इसी तरह एक रस्म है जिसको ‘गंढ चित्रावा’ कहते हैं। जब नव-विवाहित वधू अपने पेके घर से विदा होने लगती है, तो पहले लड़की-लड़का दोनों को दहेज में दिए पलंघ पर बैठा के उनके दुपट्टों की गाँठ बाँध देते हैं। घर का परोहित उस वक्त कुछ शलोक पढ़ता है, इस रस्म का भाव ये होता है कि इस नव-ब्याही जोड़ी का आपस में उसी तरह पक्का प्यार रहे, जैसे इन दुपट्टों की पक्की गाँठ डाली गई है। इस रस्म की ओर बाबा फरीद जी शलोक नं: 5 में इशारा करते हैं।

जे जाणा लड़ु छिजणा पीडी पाईं गंढि ॥ तै जेवडु मै नाहि को सभु जगु डिठा हंढि ॥५॥

पद्अर्थ: लड़ु = पल्ला। छिजणा = टूट जाना है। पीडी = पक्की। तै जेवड = तेरे जितना। हंडि = फिर के।

अर्थ: (हे पति-प्रभु!) यदि मुझे समझ हो कि (इस पोटली के कारण तेरा पकड़ा हुआ) पल्ला छिज जाता है (भाव, तेरे से दूरी बन जाती है) तो मैं (तेरे पल्ले से ही) पक्की गाँठ डालूँ। (हे साई!) मैंने सारा जगत फिर के देख लिया है, तेरे जैसा (साथी) मुझे और कोई नहीं मिला।5।

फरीदा जे तू अकलि लतीफु काले लिखु न लेख ॥ आपनड़े गिरीवान महि सिरु नींवां करि देखु ॥६॥

पद्अर्थ: अकलि लतीफु = सुजान अकल वाला, बारीक समझ वाला, बुद्धिमान। काले लेखु = काले कर्मों का लेखा, औरों के बुरे कामों का लेखा पड़चोल। गिरीवान = गिरेबान।

अर्थ: हे फरीद! यदि तू बारीक बुद्धि वाला (समझदार) है, तो और लोगों के बुरे कर्मों की पड़ताल ना कर; अपने गिरेबान में झांक के देख (कि तेरे अपने कर्म कैसे हैं)।6।

फरीदा जो तै मारनि मुकीआं तिन्हा न मारे घुमि ॥ आपनड़ै घरि जाईऐ पैर तिन्हा दे चुमि ॥७॥

पद्अर्थ: तै = तुझे। मारे = मारि। न मारे = ना मार। घुंमि = घूम के, पलट के। आपनड़ै घरि = अपने घर में, स्वै स्वरूप में, शांत अवस्था में। चुंमि = चूम के। जाईऐ = पहुँच जाया जाता है।

नोट: ‘तिना’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है (तिन्हा)।

अर्थ: हे फरीद! जो (मनुष्य) तुझे मुक्के मारें (भाव, कोई दुख दें) उनको तू पलट के ना मारना (भाव, बदला ना लेना, बल्कि) उनके पैर चूम के अपने घर में (शांत अवस्था में) टिका रह।7।

नोट: फरीद जी इन सारे शलोकों में बता रहे हैं कि जिस व्यक्ति पर साई की मेहर हो वह इन ऊपर लिखी जुगतियों से दुनिया वाली ‘पोटली’ सिर से उतार देता है।

फरीदा जां तउ खटण वेल तां तू रता दुनी सिउ ॥ मरग सवाई नीहि जां भरिआ तां लदिआ ॥८॥

पद्अर्थ: तउ = तेरा। खटण वेल = कमाने का समय। रता = रंगा हुआ, मस्त। सिउ = साथ। मारग = मौत। सवाई = बढ़ती गई, पक्की होती गई। जां = जब। भरिआ = भरी गई, श्वास पूरे हो गए। नीहि = नींव।

नोट: ‘नीहि’ अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है।

अर्थ: हे फरीद! जब तेरा (असल कमाई) कमाने की बेला थी तब तूने दुनिया (की ‘पोटली’) के साथ मस्त रहा। (इसी तरह) मौत की नींव पक्की होती चली गई, (भाव, मौत का समय नजदीक आता चला गया) जब सारे श्वास पूरे हो गए, तब यहाँ से कूच करना पड़ा।8।

देखु फरीदा जु थीआ दाड़ी होई भूर ॥ अगहु नेड़ा आइआ पिछा रहिआ दूरि ॥९॥

पद्अर्थ: थीआ = हो गया है। जु = जो कुछ। भूर = सफेद। अगहु = आगे से। पिछा = पिछला पासा, जब से पैदा हुआ था।

अर्थ: हे फरीद! देख, जो कुछ (अब तक) हो चुका है (वह ये है कि) दाढ़ी सफेद हो गई है, मौत की तरफ से वक्त नजदीक आता जा रहा है, और पिछला पासा (जब से पैदा हुआ था) दूर (पीछे को) रह गया है, (सो, अब अंजान वाले काम ना कर, और आगे की तैयारी के लिए कमाई कर)।9।

देखु फरीदा जि थीआ सकर होई विसु ॥ सांई बाझहु आपणे वेदण कहीऐ किसु ॥१०॥

पद्अर्थ: जि थीआ = जो कुछ हुआ है। सकर = शक्कर, मीठे पदार्थ। विसु = जहर, दुखद। वेदण = वेदना, पीड़ा, दुखड़ा।

अर्थ: हे फरीद! देख, (अब तक) जो हुआ है (वह यह है कि ‘दाढ़ी भूरी’ हो जाने के कारण) दुनिया के मीठे पदार्थ (भी) दुख देते हैं (रास नहीं आते, कयोंकि अब शारीरिक इंद्रिय कमजोर पड़ जाने के कारण उन भोगों को अच्छी तरह भोग नहीं सकते) यह दुखड़ा अपने साई के अलावा किस को कहें? (भाव, प्रभु के नियमों के अनुसार हो रही इस तब्दीली में कोई रोक नहीं डाल सकता)।10।

फरीदा अखी देखि पतीणीआं सुणि सुणि रीणे कंन ॥ साख पकंदी आईआ होर करेंदी वंन ॥११॥

पद्अर्थ: पतीणीआं = पतली पड़ गई हैं, नीचे उतर गई हैं। रीणे = खाली, बहरे। साख = टहनी, शरीर। पकंदी आईआ = पक गई हैं। वंन = रंग।

अर्थ: हे फरीद! (‘सकर’ के ‘विसु’ हो जाने का कारण ये है कि) आँखें (जगत के रंग-तमाशे) देख के (अब) कमजोर हो गई हैं (जगत के रंग-तमाशे तो उसी तरह मौजूद हैं, पर आँखों में अब देखने की ताकत नहीं रही), कान (दुनिया के राग-रंग) सुन-सुन के (अब) बहरे हो गए हैं। (सिर्फ आँखें और कान ही नहीं, सारा) शरीर ही बिरध हो गया है, इसने और ही रंग बदल लिया है (अब भोग भोगने के लायक नहीं रहा, और इन आहों का कोई इलाज नहीं है)।11।

फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ ॥ करि सांई सिउ पिरहड़ी रंगु नवेला होइ ॥१२॥

पद्अर्थ: कालीं = जब केश काले थे, काले केशों के होते हुए। राविआ = भोगा। धउली = सफेद बाल आने पर। कोइ = कोई विरला। पिरहड़ी = प्यार। नवेला = नया। रंग = प्यार।

अर्थ: हे फरीद! काले केसों के होते हुए जिन्होंने पति-प्रभु के साथ प्यार नहीं किया, उनमें से कोई विरला ही धउले आने पर (भाव, विरध उम्र में) ईश्वर को याद कर सकता है। (हे फरीद!) तू साई प्रभु से प्यार कर, (यह) प्यार (नित्य) नया रहेगा (दुनिया की ‘पोटली’ वाला प्यार तो शरीर- ‘साख’ पकने पर टूट जाएगा)।12।

नोट: इस शलोक के प्रथाय अगले शलोक में गुरु अमरदास जी फरमाते हें कि जिस भागयशाली पर साई मेहर करे, उसको अपने चरणों का प्यार बख्शता है, उम्र चाहे जवानी की हो चाहे बुढ़ापे की।

मः ३ ॥ फरीदा काली धउली साहिबु सदा है जे को चिति करे ॥ आपणा लाइआ पिरमु न लगई जे लोचै सभु कोइ ॥ एहु पिरमु पिआला खसम का जै भावै तै देइ ॥१३॥

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। चिति करे = चिक्त में टिकाए, बँदगी करे। पिरमु = प्यार। सभ कोइ = हरेक जीव। जै = जिसको। तै = तिस को।

अर्थ: हे फरीद! अगर कोई बँदा बँदगी करे, तो जवानी में भी और बुढ़ापे में भी मालिक (मिल सकता) है। पर बेशक कोई चाह व कोशिश करके देख ले, ‘यह प्यार’ अपने आप नहीं लगाया जा सकता। यह प्यार-रूपी प्याला तो मालिक का (अपना) है, जिसको उसकी मर्जी होती है देता है।13।

नोट: ये शलोक ऊपर के शलोक की ही वयाख्या है। बुढ़ापे में क्यों प्रभु को मिलना मुश्किल हो जाता है? इसलिए कि जवानी में मायावी आदतें पक जाने के कारण बुढ़ापे में ‘बँदगी’ की तरफ पलटना मुश्किल होता है। पर जवानी हो या बुढ़ापा, ‘बँदगी’ सदा है ही प्रभु की ‘बख्शिश’।

फरीदा जिन्ह लोइण जगु मोहिआ से लोइण मै डिठु ॥ कजल रेख न सहदिआ से पंखी सूइ बहिठु ॥१४॥

पद्अर्थ: लोइण = आँखें। सूइ = बच्चे। बहिठु = बैठने की जगह।

अर्थ: हे फरीद! (इस दिखाई देती गुलजार, पर असल में, ‘गुझी भाहि’ अर्थात ‘गुप्त आग’ में मस्त जीव को कुछ सूझता-बूझता नहीं। खूब गुमान करता है। पर गुमान किस बात का?) जो (सुंदर) आँखों ने जगत को मोह रखा था, वह आँखें मैंने भी देखीं, (पहले तो इतनी नाजुक थीं कि) काजल की धार नहीं सह सकती थीं, फिर वे पंछियों के बच्चों का घोंसला बनीं (भाव, हमारे सामने शारीरिक सुंदरता आखिर नित्य नाश हो जाती है, इस पर गुमान झूठा है)।14।

फरीदा कूकेदिआ चांगेदिआ मती देदिआ नित ॥ जो सैतानि वंञाइआ से कित फेरहि चित ॥१५॥

पद्अर्थ: सैतानि = शैतान ने (भाव, मन ने) (फरीद जी इस्लामी विचारों के अनुसार शैतान को बदी का प्रेरक कह रहे हैं)। कूकेदिआ चांगेदिआ = बार बार पुकार के समझाने पर भी। से = वे लोग। वंञाइआ = बिगाड़ा है।

अर्थ: हे फरीद! (चाहे कितना ही) पुकार-पुकार के कहें (कितना ही) नित्य समझाते रहें; पर, जिस लोगों को (मन-) शैतान ने बिगाड़ा हुआ है, वह कैसे (‘दुनी’ की तरफ से) चिक्त फेर सकते हैं?।15।

फरीदा थीउ पवाही दभु ॥ जे सांई लोड़हि सभु ॥ इकु छिजहि बिआ लताड़ीअहि ॥ तां साई दै दरि वाड़ीअहि ॥१६॥

पद्अर्थ: थीउ = हो जा, बन जा। पवाही = पहे की, रास्ते की। दभु = दूब, कुशा, घास। जे लोड़हि = अगर तू ढूँढता है। सभु = हर जगह, सब में। इकु = एक को, किसी दूब के पौधे को। छिजहि = (लोग) तोड़ते हैं। बिआ = कोई और (दूब के पौधे)। लताडीअहि = लताड़े जाते हैं। माई कै दरि = मालिक के दर पे। वाड़ीअहि = तू अंदर भेजा जाएगा, (भाव,) स्वीकार होगा।

अर्थ: हे फरीद! अगर तू मालिक (-प्रभु) को हर जगह ढूँढता है (भाव, देखना चाहता है) तो रास्ते की दूब (जैसा) बन जा (जिसके) एक पौधे को (लोग) तोड़ते हैं, तो कई और पौधे (उनके पैरों तले) लिताड़े जाते हैं। (यदि तू ऐसा स्वभाव बना लें) तो तू मालिक के दर पर स्वीकार होगा।16।

फरीदा खाकु न निंदीऐ खाकू जेडु न कोइ ॥ जीवदिआ पैरा तलै मुइआ उपरि होइ ॥१७॥

पद्अर्थ: खाकु = मिट्टी। जेडु = जितना, जैसा।

नोट: ‘खाकु’ शब्द के आखिर में सदा ‘ु’ मात्रा होती है, इसी तरह और शब्द ‘खंडु, विसु, जिंदु। जब इन ‘ु’ अंत वाले शब्दों के साथ कोई ‘संबन्धक’ बरता जाता है अथवा इनको किसी ‘कारक’- रूप में प्रयोग किया जाता है तो ‘ु’ की जगह ‘ू’ हो जाता है, जैसे ‘खाकु’ से ‘खाकू’, जिंदु’ से ‘जिंदू’, ‘विसु’ से ‘विसू’।

अर्थ: हे फरीद! मिट्टी को बुरा नहीं कहना चाहिए, मिट्टी की बराबरी कोई नहीं कर सकता। (मनुष्य के) पैरों तले होती है, (पर मनुष्य के) मरने पर उसके ऊपर हो जाती है, (इसी तरह ‘गरीबी-स्वभाव’ की रीस नहीं हो सकती, ‘गरीबी स्वभाव’ वाला व्यक्ति जिंदगी में चाहे सबकी ज्यादती सहता है, पर मन को मारने के कारण आत्मिक अवस्था में सबसे ऊँचा होता है)।17।

फरीदा जा लबु ता नेहु किआ लबु त कूड़ा नेहु ॥ किचरु झति लघाईऐ छपरि तुटै मेहु ॥१८॥

पद्अर्थ: नेहु किआ = कैसा पयार? (भाव, असली पयार नहीं)। कूड़ा = झूठा। किचरु = कितना चिर? कब तक? झति = समय। छपरि = छप्पर पर। छपरि तूटे = टूटे हुए छप्पर पर। मेहु = बरसात।

अर्थ: हे फरीद! अगर (ईश्वर की बँदगी करते-करते बतौर इवज़ाने कोई दुनिया का) लालच है, तो (ईश्वर से) असल प्यार नहीं है। (जब तक) लालच है, तब तक पयार झूठा है। टूटे हुए छप्पर पर वर्षा होने पर कितना समय निकल सकेगा? (भाव, जब दुनिया वाली गरज़ पूरी ना हुई, पयार टूटेगा)।18।

फरीदा जंगलु जंगलु किआ भवहि वणि कंडा मोड़ेहि ॥ वसी रबु हिआलीऐ जंगलु किआ ढूढेहि ॥१९॥

पद्अर्थ: जंगलु जंगलु = हरेक जंगल में। किआ भवहि = भ्रमण का क्या लाभ? वणि = बन में, जंगल में। किआ मोड़ेहि = क्यों लिताड़ता है? वसी = बसता है। हिआलीऐ = हृदय में। किआ ढूढेहि = तलाशने का कया लाभ?

अर्थ: हे फरीद! हरेक जंगल को गाहने का क्या लाभ है? जंगल में काँटें क्यों लिताड़ता फिरता है? रब (तो तेरे) हृदय में बसता है, जंगल को तलाशने का क्या फायदा?।19।

फरीदा इनी निकी जंघीऐ थल डूंगर भविओम्हि ॥ अजु फरीदै कूजड़ा सै कोहां थीओमि ॥२०॥

पद्अर्थ: इनी जंघीऐ = इन लातों से। डूगर = पहाड़। भविओम्हि = मैंने ढूँढा, मैं घूम आया। अजु = (भाव,) बुढ़ापे में। फरीदै थीओमि = मैं फरीद को हो गया है। कूजड़ा = एक छोटा सा लोटा।

नोट: ‘भविओम्’ में अक्षर ‘म’ के तले आधा ‘ह’ है।

अर्थ: हे फरीद! इन छोटी-छोटी बातों से (जवानी के वक्त) मैं थल और पहाड़ फिर आता रहा, पर आज (बुढ़ापे में) मुझे फरीद को (यह थोड़ी सी दूर पड़ा हुआ) लोटा सौ कोसों पर हो गया है (सो, बँदगी का वक्त भी जवानी ही है जब शरीर काम दे सकता है)।20।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh