श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ब्रहमणह संगि उधरणं ब्रहम करम जि पूरणह ॥ आतम रतं संसार गहं ते नर नानक निहफलह ॥६५॥

पद्अर्थ: संगि = साथ, संगति में। उधरणं = उद्धरणं, उद्धार। ब्रहम = परमातमा। ब्रहम करम = हरि नाम स्मरण का कर्म। जि = जो। आतम = अपना आप, अपना मन (आत्मन्)। रतं = रति हुआ। गहंते = (गच्छन्नि) चले जाते हैं, जीवन गुजार जाते हैं। नर = वे मनुष्य, वे लोग। निहफल = (निष्फल = fruitless) असफल।

अर्थ: जो मनुष्य हरि-स्मरण के काम में पूरा है वह है असल ब्राहमण, उसकी संगति में (औरों का भी) उद्धार हो सकता है।

(पर) हे नानक! जिस मनुष्यों का मन संसार में रति होया हुआ है वह (जगत से) निष्फल ही जाते हैं।65।

भाव: परमात्मा के नाम-स्मरण वाला मनुष्य ही उच्च जाति का है, उसकी संगति में और लोग भी कुकर्मों से बच जाते हैं। माया के मोह में फसा हुआ (ऊँची जाति का भी) मनुष्य व्यर्थ जीवन गवा के जाता है।

पर दरब हिरणं बहु विघन करणं उचरणं सरब जीअ कह ॥ लउ लई त्रिसना अतिपति मन माए करम करत सि सूकरह ॥६६॥

पद्अर्थ: पर = पराया। दरब = (द्रव्यं) धन। हिरणं = (हृ = to steal) चुराना। कह = वासते, की खातिर। सरब = सारे, कई किस्मों के बोल। लउ = मैं ले लूँ। लई = मैं ले लूँ। माए = माया। सूकरह = (सुकर) सूअर। जीअ कह = जिंद की खातिर, जिंद पालने के लिए, उपजीविका के लिए। अतिपति = (अ+तिपति), भूख, असंतोष। स = वे लोग।

अर्थ: जो मनुष्य अपनी उपजीविका के लिए पराया धन चुराते हैं, औरों के कामों में रोड़ा अटकाते हैं, कई किस्मों के बोल बोलते हैं, जिनके मन में (सदा) माया की भूख है, तृष्णा के अधीन हो के (और माया) ले लूँ ले लूँ (ही सोचते रहते हैं), वे लोग सूअरों वाले काम करते हैं (सूअर सदा गंदगी ही खाते हैं)।66।

भाव: अपनी जिंद की खातिर औरों का नुक्सान करके पराया धन बरतने वाले मनुष्य की जिंदगी सदा बुरें कामों के गंद में ही गुजरती है।

मते समेव चरणं उधरणं भै दुतरह ॥ अनेक पातिक हरणं नानक साध संगम न संसयह ॥६७॥४॥

पद्अर्थ: समेव = लीन (सं+एव) साथ ही। समेव चरणं = चरणों के साथ ही। दुतरह = (दुस्तर) जिससे तैरना मुश्किल है। पातिक = पाप। (पातक = a sin)। संसयह = (संशय:) शक। साध संग = गुरमुखों की संगति। भै = डरावना, भयानक। मते = (मस्त)।

अर्थ: जो मनुष्य (प्रभु की याद में) मस्त हो के (प्रभु-चरणों में) लीन रहते हें, वे भयानक और दुस्तर (संसार) से पार लांघ जाते हें।

हे नानक! इसमें (रक्ती भर भी) शक नहीं कि ऐसे गुरमुखों की संगति अनेक पाप दूर करने में समर्थ है।67।4।

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, वह विकारों से बच जाता है, उस की संगति करने वाले मनुष्य भी विकारों के पँजे में से निकल जाते हैं।

नोट: दूसरे अंक 4 का भाव यह है कि यह पहले चार सलोकों की गिनती है। सारे सहसक्रिती सलोकों का जोड़ 71 है।


गाथा महला ५ का भाव:

सलोक-वार:

इस शरीर का मान करना मूर्खता है जिसके अंदर मैला ही मैला है और जिसके साथ छू के सुगन्धियां भी दुर्गन्धियाँ बन जाती हैं।

यह मनुष्य शरीर तब ही सफल है जब मनुष्य गुरु का आसरा ले के परमात्मा का नाम जपे। बड़ी बड़ी सिद्धियां हासिल की हुई भी किसी काम की नहीं।

इस नाशवान जगत में से मनुष्य के सदा साथ निभने वाली एक ही चीज़ है: परमात्मा की महिमा जो साधु-संगत में से मिलती है।

सुख भी इस महिमा में ही है, और, ये मिलती है गुरु की संगति में रहने से।

जो मनुष्य बाँस की तरह सदा अकड़ के रहता है उसको साधु-संगत में से कुछ भी नहीं मिलता।

महिमा में बहुत ताकत है, इसकी इनायत से मनुष्य के अंदर के कामादिक पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।

परमात्मा की महिमा की इनायत से मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करता है, मनुष्य जनम-मरण के चक्करों वाले राह पर नहीं पड़ता।

नाम से वंचित मनुष्य दुख सहता है और जीवन व्यर्थ गवा जाता है।

साधु-संगत के माध्यम से ही परमात्मा के नाम में श्रद्धा बनती है। मनुष्य की जिंदगी की बेड़ी संसार-समुंदर में से सही-सलामत पार लांघ जाती है।

साधु-संगत में टिक के कीर्तन करने से दुनिया की वासनाएं अपना जोर नहीं डाल सकतीं। महिमा की ताकत की किसी विरले को समझ पड़ती है।

गुरु के वचन करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं। इन वचनों पर चलके नाम स्मरण वाला मनुष्य अपने अनेक साथियों का उद्धार कर लेता है।

जिस जगह परमात्मा की महिमा होती रहे, वह जगह ही सोहावनी हो जाती है। महिमा करने वाले बंदे भी दुनिया के बंधनो से मुक्त हो जाते हैं।

परमात्मा ही मनुष्य का असल साथी असल मित्र है।

परमात्मा का स्मरण मनुष्य को दुनिया के विकारों से बचा लेता है। यह स्मरण मिलता है गुरु की वाणी से।

परमात्मा की महिमा मनुष्य के लिए आत्मिक जीवन है, यह दाति साधु-संगत में से मिलती है।

साधु-संगत में टिकने से मनुष्य के सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं।

गुरु की संगति करने से ही परमात्मा से प्यार बनता है।

महिमा की इनायत से मनुष्य का जीवन सुखी हो जाता है।

साधु-संगत में टिक के महिमा करने से विकारों से बचा जा सकता है।

धर्म-पुस्तकें पढ़ने से असल लाभ यही मिलना चाहिए कि मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करे।

परमात्मा के नाम की दाति साधु-संगत में से मिलती है।

उस मनुष्य के भाग्य जाग उठे समझो जो साधु-संगत में जाने लग जाता है। साधु-संगत में नाम स्मरण से सारे विकार दूर हो जाते हैं।

साधु-संगत के माध्यम से ही परमात्मा से प्यार बन सकता है।

माया के रंग-तमाशे कुसंभ के फूल जैसे ही हैं। इनमें फसे रहने पर सुख नहीं मिल सकता।

लड़ी-वार भाव:

(1 से 8) ये मानव शरीर तब ही सफल समझो जब मनुष्य गरीबी स्वभाव में रह के साधु-संगत का आसरा ले के परमात्मा का नाम स्मरण करता है। नाम-जपने की इनायत से मनुष्य विकारों से बचा रहता है और सुखी जीवन व्यतीत करता है।

(9 से 24) स्मरण और महिमा की दाति सिर्फ साधु-संगत में से मिलती है। साधु-संगत में रहने से ही परमात्मा की श्रद्धा बनती है, फिर विकार अपना जोर नहीं डाल सकते, जीवन इतना ऊँचा बन जाता है कि कि उस मनुष्य की संगति में और भी अनेक लोग विकारों से बच के जीवन-नईया को संसार-समुंद में से सही सलामत पार लंघा लेते हैं।

मुख्य भाव:

मनुष्य का शरीर तब ही सफल है अगर मनुष्य परमात्मा की महिमा करता रहे। और, यह दाति सिर्फ साधु-संगत में से ही मिलती है।

महला ५ गाथा    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

करपूर पुहप सुगंधा परस मानुख्य देहं मलीणं ॥ मजा रुधिर द्रुगंधा नानक अथि गरबेण अग्यानणो ॥१॥

पद्अर्थ: गाथा = एक प्राचीन प्राक्रित भाषा जिसमें संस्कृत पाली व अन्य बोलियों के शब्द लिखे हुए मिलते हैं। ‘ललित विसतर’ आदि बौध धर्म = ग्रंथ इसी भाषा में हैं।

करपूर = (कर्पूर) काफूर। पुहप = (पुष्प) फूल। परस = छूह के (स्पर्श = to touch)। देह = शरीर। मजा = मज्जा, शरीर की चिकनाई (मज्जन = marrow of the bones & flesh)। रुधिर = खून। द्रुगंध = दुर्गंध, बदबू। अथि = फिर भी, इसके ऊपर भी। अग्यानणो = अज्ञानी मनुष्य।

अर्थ: मुश्क कपूर, फूल व अन्य सुगंधियां मनुष्य के शरीर को छू के मैलियां हो जाती हैं। (मनुष्य के शरीर में) मज्जा लहू और-और दुर्गंन्धियां हैं; फिर भी, हे नानक! अज्ञानी मनुष्य (इस शरीर का) माण करता है।1।

भाव: इस शरीर का माण करना मूर्खता है जिसके अंदर मैला ही मैला है और जिससे छू के सुगंधियां भी दुर्गन्धियां बन जाती हैं।

परमाणो परजंत आकासह दीप लोअ सिखंडणह ॥ गछेण नैण भारेण नानक बिना साधू न सिध्यते ॥२॥

पद्अर्थ: परमाणो = (परमाणु = an atom) परम अणू, बहुत छोटा भाग, बारीक जर्रा जिसका हिस्सा ना हो सके। परजंत = (पर्यन्त) आखिरी हद, अन्तिम सीमा। दीप = द्वीप (an island)। लोअ = लोक। सिखंडणह = (शिखरिन्) पहाड़। गछेण = चलने से। नैण भारेण = आँख की झपक में। नैण भार = आँख के झपकने जितना समय, निमख। न सिध्यते = सफल नहीं होता।

अर्थ: हे नानक! अगर मनुष्य अति-छोटा अणु बन के आकाशों तक सारे द्वीपों लोकों और पहाड़ों पर आँख की एक झपक में ही हो आए, (इतनी सिद्धि होते हुए भी) गुरु के बिना उसका जीवन सफल नहीं होता।2।

भाव: यह मनुष्य शरीर तब ही सफल है अगर मनुष्य गुरु का आसरा ले के परमात्मा का नाम जपे। बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ हासिल करनी भी किसी काम की नहीं।

जाणो सति होवंतो मरणो द्रिसटेण मिथिआ ॥ कीरति साथि चलंथो भणंति नानक साध संगेण ॥३॥

पद्अर्थ: सति = सच, सत्य, अटल। मरणो = (मरणं) मौत। मिथिआ = नाशवान, झूठ, मिथ्या। कीरति = कीर्ति, महिमा। चलंथो = जाती है (चलति, चलत: , चलन्ति)। द्रिसटेण = जो कुछ दिख रहा है, ये दिखाई देता जगत। साध संगेण = (साधु संगेन) साधु-संगत से।

अर्थ: मौत का आना ही अटल समझो, ये दिखता जगत (अवश्य) नाश होने वाला है (इसमें से किसी ने साथ नहीं निभना)।

नानक कहता है: साधु-संगत के आसरे की हुई परमात्मा की महिमा ही (मनुष्य) के साथ जाती है।3।

भाव: इस नाशवान जगत में से मनुष्य के सदा साथ निभने वाली एक ही चीज है: परमात्मा की महिमा जो साधु-संगत में से मिलती है।

माया चित भरमेण इसट मित्रेखु बांधवह ॥ लबध्यं साध संगेण नानक सुख असथानं गोपाल भजणं ॥४॥

पद्अर्थ: इसट = (इष्ट) प्यारे। मित्रेखु = (मित्रेषु) मित्रों में। लबध्यं = ढूँढ सकता है, ढूँढने योग्य। सुख असथानं = (सुख स्थानं) सुख मिलने की जगह। चित = (चिक्तं)।

अर्थ: माया (मनुष्य के) मन को प्यारे मित्रों-संबन्धियों (के मोह) में भटकाती रहती है (और भटकना के कारण इसको सुख नहीं मिलता)।

हे नानक! सुख मिलने की जगह (केवल) परमात्मा का भजन ही है, जो साधु-संगत के द्वारा मिल सकता है।

भाव: सुख भी इस महिमा में ही है, और, यह मिलती है गुरु की संगति में रहने से।

मैलागर संगेण निमु बिरख सि चंदनह ॥ निकटि बसंतो बांसो नानक अहं बुधि न बोहते ॥५॥

पद्अर्थ: मैलागर = मलय पर्वत पर उगा हुआ पौधा, (मलयाग्र) चंदन। संगेण = (संगेन) संगत से। निकटि = (निकटे) नजदीक। अहंबुधि = (अहंबुद्धि) अहंकार वाली बुद्धि के कारण। बोहते = सुगंधित होता है। बिरख = (वृक्ष) पेड़।

अर्थ: चँदन की संगति से नीम का वृक्ष चंदन ही हो जाता है, पर, हे नानक! चँदन के नजदीक बसता बाँस अपनी अकड़ के कारण सुगन्धि वाला नहीं बनता।5।

भाव: जो मनुष्य बाँस की तरह सदा अकड़ के रहता है उसको साधु-संगत में से कुछ भी नहीं मिलता।

गाथा गु्मफ गोपाल कथं मथं मान मरदनह ॥ हतं पंच सत्रेण नानक हरि बाणे प्रहारणह ॥६॥

पद्अर्थ: गाथा = स्तुति, महिमा (गाथा = a religious verse, गै = to sing)। गुंफ = गूंदना, काव्य रचना करनी (गुंफ = to string together, to compose)। कथं = कथा। मथं = कुचल देना, नाम कर देना (मन्थ् = to crush, destroy)। मरदनह = (मर्दन) मला जाता है। हतं = नाश हो जाते हैं। बाण = तीर। प्रहारणह = चलाने से (प्रहरणं = striking, throwing)।

अर्थ: परमात्मा की महिमा की कहानियों का गुंदन मनुष्य के अहंकार को कुचल देता है।

हे नानक! परमात्मा (की महिमा) का तीर चलाने से (कामादिक) पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।6।

भाव: महिमा में बड़ी ताकत है, इसकी इनायत से मनुष्य के अंदर से कामादिक पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।

बचन साध सुख पंथा लहंथा बड करमणह ॥ रहंता जनम मरणेन रमणं नानक हरि कीरतनह ॥७॥

पद्अर्थ: पंथा = रास्ता। साध = (साधु) गुरु, गुरमुख। लहंथा = ढूँढते हैं। रहंता = रह जाते हैं, समाप्त हो जाता है। रमणं = स्मरण।

अर्थ: गुरु के (परमात्मा की महिमा के) वचन सुख का रास्ता हैं, पर ये वचन सौभाग्य से मिलते हैं।

हे नानक! परमात्मा की महिमा करने से जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।7।

भाव: परमात्मा की महिमा की इनायत से मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करता है, मनुष्य जनम-मरण के चक्कर वाले रास्ते पर नहीं पड़ता।

पत्र भुरिजेण झड़ीयं नह जड़ीअं पेड स्मपता ॥ नाम बिहूण बिखमता नानक बहंति जोनि बासरो रैणी ॥८॥

पद्अर्थ: भुरिजेण = भुर के। पेड = पेड़। संपता = (संपद् = wealth) संपत से। बिखमता = (विषमता) कठिनाई। बहंति = (वहन्तिावह् = to suffer experience) (दुख) सहते हैं, भटकते हैं। बासरो = (वासर:) दिन। रैणी = रात (रजनि, रजनी, रअणि, रैणि)। पेड संपता = वृक्ष की संपत से, वृक्ष की टहनियों से।

अर्थ: (जैसे वृक्ष के) पत्ते भुर-भुर के (वृक्ष से) झड़ जाते हैं, (और दोबारा) वृक्ष की शाखाओं के साथ जुड़ नहीं सकते, (वैसे ही) हे नानक! नाम से टूटे हुए मनुष्य दुख सहते हैं और, दिन-रात (और-और) जूनियों में पड़े भटकते हैं।8।

भाव: नाम से वंचित मनुष्य दुख सहता है और जीवन व्यर्थ गवा जाता है।

भावनी साध संगेण लभंतं बड भागणह ॥ हरि नाम गुण रमणं नानक संसार सागर नह बिआपणह ॥९॥

पद्अर्थ: भावनी = श्रद्धा (भावनी = feeling of devotion, faith)। सागर = समुंदर। बिआपणह = (व्याप् = to pervade) जोर डाल सकता। रमणं = स्मरण।

अर्थ: साधु-संगत से (परमात्मा के नाम में) श्रद्धा बहुत भाग्यों से मिलती है। हे नानक! परमात्मा के नाम और गुणों की याद से संसार-समुंदर (जीव पर) अपना जोर नहीं डाल सकता।9।

भाव: साधु-संगत से ही परमात्मा के नाम में श्रद्धा बनती है, मनुष्य के जिंदगी की बेड़ी संसार-समुंदर में से सही-सलामत पार लांघ जाती है।

गाथा गूड़ अपारं समझणं बिरला जनह ॥ संसार काम तजणं नानक गोबिंद रमणं साध संगमह ॥१०॥

पद्अर्थ: गूढ़ = गहरी (गुह = hidden, concealed गुह = to conceal)। काम = वासना। गाथा = महिमा (a religious verse)। अपार = बेअंत (प्रभु)। तजणं = (त्जय् = to give up)। साध संगमह = (साधु संगम) सत्संग।

अर्थ: बेअंत परमात्मा की महिमा करनी एक गहरी (रम्ज़ वाला) काम है, इसको कोई विरला मनुष्य समझता है।

हे नानक! सत्संग में रह के परमात्मा का स्मरण करने से दुनिया की वासनाएं त्यागी जा सकती हैं।10।

भाव: साधु-संगत में टिक के स्मरण करने से दुनिया की वासनाएं जोर नहीं डालतीं। पर महिमा की ताकत की किसी विरले को समझ पड़ती है।

सुमंत्र साध बचना कोटि दोख बिनासनह ॥ हरि चरण कमल ध्यानं नानक कुल समूह उधारणह ॥११॥

पद्अर्थ: सुमंत्र = श्रेष्ठ मंत्र। कोटि = करोड़। समूह = ढेर। दोख = दोष, पाप। ध्यानं = ध्यान। साध = साधु, गुरु।

अर्थ: गुरु के वचन (ऐसे) श्रेष्ठ मंत्र हैं (जो) करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं।

हे नानक! (उन वचनों से) प्रभु के कमल फूलों जैसे सुंदर चरणों का ध्यान सारी कुलों का उद्धार कर देता है।11।

भाव: गुरु के वचन करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं। इन वचनों पर चल के नाम स्मरण वाला मनुष्य अपने अनेक साथियों का उद्धार कर लेता है।

सुंदर मंदर सैणह जेण मध्य हरि कीरतनह ॥ मुकते रमण गोबिंदह नानक लबध्यं बड भागणह ॥१२॥

पद्अर्थ: मंदर = घर (मन्दिर = a dwelling)। जेण मध्य = (येनां मध्ये) जिन के अंदर। सैणह = सोना, बसना (स्वप् = to lie down, to rest)। मुकते = स्वतंत्र, आजाद, मुक्त। रमण = स्मरण।

अर्थ: उन घरों में ही बसना सुहावना है जिनमें परमात्मा की महिमा होती हो। जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करते हैं वे (दुनिया के बंधनो से) मुक्त हो जाते हैं। पर, हे नानक! (यह स्मरण) बड़े भाग्यों से मिलता है।

भाव: जिस जगह परमात्मा की महिमा होती रहे वही जगह सुहावनी हो जाती है। महिमा करने वाले लोग भी दुनिया के बंधनो से मुक्त हो जाते हैं।

हरि लबधो मित्र सुमितो ॥ बिदारण कदे न चितो ॥ जा का असथलु तोलु अमितो ॥ सुोई नानक सखा जीअ संगि कितो ॥१३॥

पद्अर्थ: सुमितो = (सुमि+त्र) श्रेष्ठ मित्र। बिदारण = (विदारण = breaking. वद् = to cut pieces) फाड़ना, तोड़ना। असथलु = (स्थ्लं = firmground)। अमितो = (अमित) अतोलवा, जो नापा ना जा सके। सुोई = (यहाँ असल पाठ ‘सोइ’ है, पर पढ़ना ‘सुई’ है)। कितो = (कृत:) किया है। चितो बिदारण = दिल को तोड़ना। लबधो = (लब्ध:) मिला है।

अर्थ: हे नानक! मैंने वह श्रेष्ठ मित्र परमात्मा पा लिया है, मैंने उस परमात्मा को अपनी जिंद (के साथ रहने वाला) साथी बनाया है जो कभी (मेरा) दिल नहीं तोड़ता, और जिसका ठिकाना असीम तोल वाला है।13।

भाव: परमात्मा ही मनुष्य का असल साथी असल मित्र है।

अपजसं मिटंत सत पुत्रह ॥ सिमरतब्य रिदै गुर मंत्रणह ॥ प्रीतम भगवान अचुत ॥ नानक संसार सागर तारणह ॥१४॥

पद्अर्थ: अपजस = बदनामी (अपयशस्)। सत पुत्रह = अच्छा पुत्र (सत्पुत्र)। सिमरतब्य = स्मरणा चाहिए (स्मृ = to remember स्मरति = remembers)। मंत्रणह = उपदेश। रिदै = हृदय में। अचुत = (अच्युत) अविनाशी।

अर्थ: (जैसे) सपुत्र के पैदा होने पर सारी कुल की (पिछली कोई) बदनामी धुल जाती है, (वैसे ही) हे नानक! अविनाशी प्यारे परमात्मा (का स्मरण) संसार-समुंदर (के विकारों) से बचा लेता है।

(इस वास्ते) गुरु का उपदेश हृदय में बसा के रखना चाहिए (और परमात्मा का स्मरण करना चाहिए)।14।

भाव: परमात्मा का स्मरण मनुष्य को दुनिया के विकारों से बचा लेता है। यह स्मरण मिलता है गुरु के द्वारा।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh