श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मंगल सूख कलिआण तिथाईं ॥ जह सेवक गोपाल गुसाई ॥ प्रभ सुप्रसंन भए गोपाल ॥ जनम जनम के मिटे बिताल ॥५॥

पद्अर्थ: मंगल = खुशियां। कलिआण = सुख शांत। तिथाई = उस जगह में ही। जह = जहाँ। सेवक गोपाल = गोपाल के सेवक। गोपाल = सृष्टि को पालने वाला प्रभु। बिताल = (जीवन-यात्रा में) ताल से भटके हुए।5।

अर्थ: हे भाई! जहाँ (साधु-संगत में) सृष्टि के रक्षक पति-प्रभु के भक्त-जन (रहते हैं), वहीं सारे सुख सारी खुशियाँ सारे आनंद होते हैं। (वहाँ साधु-संगत में जो मनुष्य टिकते हैं, उन पर) जगत-रक्षक प्रभु जी बहुत प्रसन्न होते हैं, (उनके) अनेक जन्मों के बेताले-पन समाप्त हो जाते हैं।5।

होम जग उरध तप पूजा ॥ कोटि तीरथ इसनानु करीजा ॥ चरन कमल निमख रिदै धारे ॥ गोबिंद जपत सभि कारज सारे ॥६॥

पद्अर्थ: उरध तप = उल्टे लटक के किए हुए तप। कोटि = करोड़ों। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। रिदै = हृदय में। जपत = जपते हुए। सभि = सारे। सारे = सँवार लेता है।6।

अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत की इनायत से जो मनुष्य) परमात्मा के सुंदर चरण निमख-निमख (हर वक्त) अपने हृदय में बसाए रखता है, वह मनुष्य गोबिंद का नाम जपते हुए (अपने) सारे काम सँवार लेता है, (उसने मानो,) करोड़ों तीर्थों का स्नान कर लिया, (उसने, मानो, अनेक) हवन-यज्ञ (कर लिए। उसने जैसे,) उल्टे लटक के तप (कर लिए। उसने, मानो, देव-) पूजा (कर ली)।6।

ऊचे ते ऊचा प्रभ थानु ॥ हरि जन लावहि सहजि धिआनु ॥ दास दासन की बांछउ धूरि ॥ सरब कला प्रीतम भरपूरि ॥७॥

पद्अर्थ: प्रभ थानु = प्रभु का ठिकाना। लावहि = लाते हें। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बाछउ = मैं माँगता हूं। कला = ताकत।7।

अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत की इनायत से ये समझ आ जाती है कि) परमात्मा का ठिकाना बहुत ही ऊँचा है (बहुत ही ऊँचा आत्मिक जीवन ही उसके चरणों के साथ मिला सकता है)। प्रभु के भक्त आत्मिक अडोलता में (उस प्रभु में) तवज्जो जोड़ी रखते हैं। हे भाई! जो प्रभु-प्रीतम सारी ताकतों का मालिक है जो सब जगह मौजूद है, उसके दासों के दासों की चरण-धूल मैं (भी) लोचता रहता हूँ।7।

मात पिता हरि प्रीतमु नेरा ॥ मीत साजन भरवासा तेरा ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ जपि जीवै नानकु गुणतास ॥८॥३॥२॥७॥१२॥

पद्अर्थ: नेरा = नजदीक। करु = हठ। गहि = पकड़ के। जपि = जप के। गुणतास = गुणों का खजाना है।8।

अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरी माँ है मेरा पिता है प्रीतम है मेरे हर वक्त नज़दीक रहता है। हे प्रभु! तू ही मेरा मित्र है, मेरा सज्जन है, मुझे तेरा ही सहारा है। हे प्रभु! अपने दासों को (उनका) हाथ पकड़ कर के तू अपने बना लेता है। हे गुणों के खजाने प्रभु! (तेरा दास) नानक (तेरा नाम) जप के (ही) आत्मिक जीवन हासिल कर रहा है।8।3।

बिभास प्रभाती बाणी भगत कबीर जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मरन जीवन की संका नासी ॥ आपन रंगि सहज परगासी ॥१॥

पद्अर्थ: संका = सहसा, फिक्र, शक। आपन रंगि = अपनी मौज में, अपनी रज़ा में। सहज = अडोल अवस्था का।1।

अर्थ: (उस मनुष्य का) की यह शंका समाप्त हो जाती है कि जनम-मरण के चक्कर में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि परमात्मा अपनी मेहर से (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता का प्रकाश कर देता है।1।

प्रगटी जोति मिटिआ अंधिआरा ॥ राम रतनु पाइआ करत बीचारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: करत बीचारा = विचार करते करते, तवज्जो जोड़ते जोड़ते।1। रहाउ।

अर्थ: (प्रभु के नाम में) तवज्जो जोड़ते-जोड़ते जिस मनुष्य को नाम-रत्न मिल जाता है (उसके अंदर) प्रभु की ज्योति जाग उठती है, और (उसके अंदर से विकारों आदि का) अंधेरा मिट जाता है।1। रहाउ।

जह अनंदु दुखु दूरि पइआना ॥ मनु मानकु लिव ततु लुकाना ॥२॥

पद्अर्थ: जह = जिस मन में। पइआना = चला जाता है। मानकु = मोती। ततु = सारे जगत का मूल प्रभु। लुकाना = छुपा लेता है, बसा लेता है। लिव = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।2।

अर्थ: जिस मन में (प्रभु के मेल का) आनंद बन जाए और (दुनिया वाला) दुख-कष्ट नाश हो जाए, वह मन (प्रभु-चरणों में) जुड़ने की इनायत से मोती (जैसा कीमती) बन के प्रभु को अपने अंदर बसा लेता है।2।

जो किछु होआ सु तेरा भाणा ॥ जो इव बूझै सु सहजि समाणा ॥३॥

पद्अर्थ: इव = इस तरह। इव बूझै = यह समझ आ जाती है। सहजि = सहज अवस्था में।3।

अर्थ: (हे प्रभु! तेरे नाम में तवज्जो जोड़ते-जोड़ते) जिस मनुष्य को यह सूझ पड़ जाती है कि जगत में जो कुछ हो रहा है तेरी रज़ा हो रही है, वह मनुष्य सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है (उसे कभी कोई शंका व संशय नहीं रहता)।3।

कहतु कबीरु किलबिख गए खीणा ॥ मनु भइआ जगजीवन लीणा ॥४॥१॥

नोट: ये शब्द विभास और प्रभाती दोनों मिश्रित रोगों में गाने के लिए हैं।

पद्अर्थ: खीणा = कमजोर। गए खीणा = कमजोर हो के नाश हो जाते हैं। भइआ लीणा = लीन हो जाता है, मगन हो जाता है।4।

अर्थ: कबीर कहता है: उस मनुष्य के पाप नाश हो जाते हैं, उसका मन जगत-के-जीवन प्रभु में मगन रहता है।4।1।

शब्द का भाव: मिलाप अवस्था-मन में से विकार दूर हो जाते हैं, जगत में जो कुछ हो रहा है प्रभु की रज़ा ही दिखती है।

प्रभाती ॥ अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥ हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥

पद्अर्थ: केरा = का। दुह महि = (हिन्दू और मुसलमान) दोनों में से। हेरा = देखा।1।

अर्थ: अगर (वह) ख़ुदा (सिर्फ) काबे में बसता है तो बाकी का मुल्क किस का (कहा जाए)? (सो, मुसलमानों का यह अकीदा ठीक नहीं है)। हिन्दू परमात्मा का निवास मूर्ति में समझता है; (इस तरह हिन्दू-मुसलमान) दोनों में से किसी ने परमात्मा को नहीं देखा।1।

अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥ तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीवउ = मैं जीऊँ। नाई = नाम की इनायत से, नाम स्मरण करके, नाम से।1। रहाउ।

अर्थ: हे अल्लाह! हे राम! हे साई! तू मेरे पर मेहर कर, (मैं तुझे एक ही जान के) तेरा नाम स्मरण करके जीऊँ (आत्मिक जीवन हासिल करूँ)।1। रहाउ।

दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥ दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥

पद्अर्थ: दखन देस = जगन्नाथपुरी जो कबीर जी के वतन बनारस से दक्षिण की ओर है। पछिमि = पश्चिम की ओर। अलह = अल्लाह का, रब का। दिलि = दिल में। दिलै दिलि = दिल ही दिल में। ठउर = जगह।2।

अर्थ: (हिन्दू कहता है कि) हरि का निवास दक्षिण देश में (जगन्नाथपुरी में) है, मुसलमान कहता है कि ख़ुदा का घर पश्चिम की ओर (काबे में) है। (पर, हे सज्जन!) अपने दिल में (ईश्वर को) तलाश, सिर्फ दिल में ही ढूँढ, यह दिल ही उसका निवास स्थान है, उसका मुकाम है।2।

ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥ गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥

पद्अर्थ: गिआस = एकादसी। चउबीसा = 24 (हर महीने दो एकादशियां, साल में चौबीस)। मह रमजाना = रमजान का महीना। मास = महीने। पास कै = अलग करके।3।

अर्थ: ब्राहमण चौबीस एकादशियों (के व्रत रखने की आज्ञा) करते हैं, काज़ी रमज़ान के महीने (रोज़े रखने की हिदायत) करते हैं। ये लोग (बाकी के) ग्यारह महीने एक तरफ़ ही रख देते हैं, और (कोई) खजाना एक ही महीने में से ढूँढते हैं।3।

कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥ दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥

पद्अर्थ: उडीसे = उड़ीसा प्रांत का तीर्थ जगन्नाथपुरी। मजनु = तीर्थ स्नान। नांऐं = झुकाया।4।

अर्थ: (दरअसल बात यह है कि) अगर दिल में ठगी-फरेब बसता है तो ना तो उड़ीसा जगन्नाथपुरी में स्नान करने का कोई लाभ है, ना ही मस्जिद में जा के सजदा करने का कोई फायदा है, ना नमाज़ पढ़ने का लाभ है, ना ही काबे का हज करने का कोई गुण है।4।

एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥ कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥

पद्अर्थ: अउरत = औरतें। मरदा = मर्दों। पूंगरा = छोटा सा बच्चा, अंजान बच्चा।5।

अर्थ: हे प्रभु! ये सारे स्त्री-मर्द जो तूने पैदा किए हैं, ये सब तेरा ही रूप हैं (तू ही स्वयं इनमें बसता है)। तू ही, हे प्रभु! अल्लाह है और राम है। मैं कबीर तेरा अंजान बच्चा हूँ, (तेरे भेजे हुए) अवतार पैग़ंबर मुझे सब अपने दिखते हैं।5।

कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥

पद्अर्थ: नरवै = हे नारियो! निहचै = निश्चय से, अवश्य।6।

अर्थ: कबीर कहता है: हे नर-नारियो! सुनो, एक परमात्मा की ही शरण पड़ो (वही अल्लाह है, वही राम है)। हे लोगो! सिर्फ नाम जपो, यकीन से जानो, तब ही (संसार-जगत से) तैर सकोगे।6।2।

शब्द का भाव: सर्व-व्यापक- ना विशेष तौर पर काबे में बैठा है, ना जगन्नाथपुरी में। उसको अपने हृदय में बसाओ, मज़हबी पक्ष-पात दूर हो जाएंगे।

प्रभाती ॥ अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥ एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥

पद्अर्थ: अवलि = सबसे पहले, शुरू में, सबका मूल। अलह नूर = अल्लाह का नूर, परमात्मा की ज्योति। उपाइआ = (जिसने जगत) पैदा किया। कुदरति के = खुदा की कुदरति के (पैदा किए हुए)। नूर = ज्योति। ते = से। का = कौन?।1।

अर्थ: सबसे पहले ख़ुदा का नूर ही है जिसने (जगत) पैदा किया है, यह सारे जीव-जंतु रब के ही बनाए हुए हैं। एक प्रभु की ही ज्योति से सारा जगत पैदा होया हुआ है। (तो फिर किसी जाति-मज़हब के भुलेखे में पड़ कर) किसी को अच्छा और किसी को बुरा ना समझो।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh