श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अंतरि अगनि सबल अति बिखिआ हिव सीतलु सबदु गुर दीजै ॥ तनि मनि सांति होइ अधिकाई रोगु काटै सूखि सवीजै ॥३॥

पद्अर्थ: सबल अति = बहुत बल वाली। बिखिआ अगनि = माया (की तृष्णा) की आग। हिव = बर्फ। सबदु गुर = गुरु का शब्द। तनि = तन में। मनि = मन में। अधिकाई = बहुत। सूखि = सुख में। सवीजै = सेवा की जा सके, लीनता हो जाए।3।

अर्थ: हे भाई! (जीवों के) अंदर माया (की तृष्णा) की आग बहुत भड़क रही है। बर्फ जैसे गुरु के शीतलता भरे शब्द दे, (ताकि) तन में मन में बहुत शांति पैदा हो जाए। (गुरु का शब्द जीवों के हरेक) रोग काट देता है, (गुरु के शब्द की इनायत से) आत्मिक आनंद में मगन रह सकते हैं।3।

जिउ सूरजु किरणि रविआ सरब ठाई सभ घटि घटि रामु रवीजै ॥ साधू साध मिले रसु पावै ततु निज घरि बैठिआ पीजै ॥४॥

पद्अर्थ: रविआ = व्यापक है। सरब ठाई = सब जगह। घटि घटि = हरेक शरीर में। रवीजै = व्यापक है। रसु = आनंद, स्वाद। पावै = पाता है, माणता है। ततु = निचोड़। निज = अपना। घरि = घर में। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।4।

अर्थ: हे भाई! जैसे सूरज (अपनी) किरण के द्वारा सब जगह पहुँचा हुआ है, (वैसे ही) परमात्मा सारी लुकाई में हरेक शरीर में व्यापक है। जिस मनुष्य को संत जन मिल जाते हैं, वह (मिलाप के) स्वाद को भोगता है। हे भाई! (संत जनों की संगति से) प्रभु-चरणों में लीन हो के नाम-रस पीया जा सकता है।4।

जन कउ प्रीति लगी गुर सेती जिउ चकवी देखि सूरीजै ॥ निरखत निरखत रैनि सभ निरखी मुखु काढै अम्रितु पीजै ॥५॥

पद्अर्थ: कउ = को। सेती = साथ। देखि = देख के, इन्तजार करके। सूरीजै = सूरज को। निरखत = देखते हुए। रैनि सभ = सारी रात। निरखी = देखती है, इन्तजार करती है। मुखु काढै = (जब सूर्य) मुँह दिखाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।5।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) भक्त को गुरु से (इस प्रकार) प्रीति बनी रहती है, जैसे सूरज (के उदय होने) का इन्तजार कर-कर के चकवी (विछोड़े की रात गुजारती है)। देखते-देखते (चकवी) सारी रात देखती रहती है, (जब सूरज) मुँह दिखाता है (तब चकवे का मिलाप हासिल करती है। इसी तरह जब गुरु दर्शन देता है, तब सेवक) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी सकता है।5।

साकत सुआन कहीअहि बहु लोभी बहु दुरमति मैलु भरीजै ॥ आपन सुआइ करहि बहु बाता तिना का विसाहु किआ कीजै ॥६॥

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। सुआन = कुत्ते। कहीअहि = कहे जाते हें। दुरमति = खोटी मति। सुआइ = स्वार्थ वश। करहि = करते हैं (बहुवचन)। विसाहु = ऐतबार। किआ कीजै = क्या किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता।6।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य बहुत लोभी होते हैं, कुत्ते (के स्वभाव वाले) कहे जाते हैं, (उनके अंदर) दुर्मति की मैल (सदा) भरी रहती है। (साकत मनुष्य) अपने स्वार्थ के लिए बहुत सारी बातें करते हैं, पर उनका ऐतबार नहीं करना चाहिए।6।

साधू साध सरनि मिलि संगति जितु हरि रसु काढि कढीजै ॥ परउपकार बोलहि बहु गुणीआ मुखि संत भगत हरि दीजै ॥७॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। जितु = जिस (संगति) में। पर उपकार = दूसरों की भलाई। बोलहि मुखि = मुँह से बोलते हैं। हरि = हे हरि! दीजै = दे। संत भगत = संतों भगतों की संगति।7।

अर्थ: हे हरि! (मुझे अपने) संतजनों की भक्ति दे। संत जन (अपने) मुँह से दूसरों की भलाई के वचन बोलते रहते हैं, संत जन अनेक गुणों वाले होते हैं। हे भाई! संत जनों की संगति में मिल के परमात्मा का नाम रस प्राप्त किया जा सकता है।7।

तू अगम दइआल दइआ पति दाता सभ दइआ धारि रखि लीजै ॥ सरब जीअ जगजीवनु एको नानक प्रतिपाल करीजै ॥८॥५॥

पद्अर्थ: दइआ पति = मेहर के मालिक, दयावान। दाता = दातें देने वाला। सभ = सारी लुकाई। जीअ = जीव। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभु। करीजै = कर।8।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, दया का श्रोत है, दया का मालिक है सब जीवों को दातें देने वाला है। मेहर कर के सब जीवों की रक्षा कर। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) सारे जीव तेरे हैं, तू ही सारे जगत का सहारा है। (सबकी) पालना कर।8।5।

कलिआनु महला ४ ॥ रामा हम दासन दास करीजै ॥ जब लगि सासु होइ मन अंतरि साधू धूरि पिवीजै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रामा = हे राम! हम = हम (जीवों) को। करीजै = बनाए रख। जब लगि = जब तक। सासु = साँस। साधू धूरि = संतजनों की चरण धूल। पिवीजै = पीनी चाहिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे राम! हमें (अपने) दासों का दास बनाए रख। हे भाई! जब तक शरीर में साँसें आ रही हैं, तब तक संतजनों की चरण-धूल पीते रहना चाहिए (निम्रता से संत जनों की संगति में रह के उनसे नाम-अमृत पीते रहना चाहिए)।1। रहाउ।

संकरु नारदु सेखनाग मुनि धूरि साधू की लोचीजै ॥ भवन भवन पवितु होहि सभि जह साधू चरन धरीजै ॥१॥

पद्अर्थ: संकरु = शिव। सेखनाग = शेषनाग। लोचीजै = तमन्ना रखनी चाहिए। होहि = हो जाते हैं (बहुवचन)। सभि = सारे। जह = जहाँ।1।

अर्थ: हे भाई! शिव, नारद, शेषनाग (आदि हरेक ऋषि-) मुनि संत जनों के चरणों की धूल की तमन्ना करता रहा है। हे भाई! जहाँ संत-जन चरण रखते हैं, वे सारे भवन सारी जगहें पवित्र हो जाती हैं।1।

तजि लाज अहंकारु सभु तजीऐ मिलि साधू संगि रहीजै ॥ धरम राइ की कानि चुकावै बिखु डुबदा काढि कढीजै ॥२॥

पद्अर्थ: तजि = त्याग के। सभु = सारा। तजीऐ = त्याग देना चाहिए। संगि = संगति में। मिलि = मिल के। कानि = अधीनता, सहम। चुकावै = खत्म कर लेता है। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाले जहरीले संसार समुंदर में।2।

अर्थ: हे भाई! लोक-सम्मान छोड़ के (अपने अंदर से किसी बड़प्पन का) सारा माण छोड़ देना चाहिए, और संत-जनों की संगति में मिल के रहना चाहिए। (जो मनुष्य संत जनों की संगति में रहता है, वह) धर्मराज का सहम खत्म कर लेता है। आत्मिक मौत लाने वाले जहरीले संसार-समुंदर में डूबते हुए को (संत-जन) निकाल लेते हैं।2।

भरमि सूके बहु उभि सुक कहीअहि मिलि साधू संगि हरीजै ॥ ता ते बिलमु पलु ढिल न कीजै जाइ साधू चरनि लगीजै ॥३॥

पद्अर्थ: भरमि = भटकना के कारण। सूके = सूखे हुए आत्मिक जीवन वाले। उभि सुक = खड़े हुए सूखे वृक्ष। कहीअहि = कहे जाते हैं। हरीजै = हरे हो जाते हैं। ता ते = इस वास्ते। बिलमु = (विलम्ब) देर। न कीजै = नहीं करनी चाहिए। जाइ = जा के।3।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य माया की) भटकना में पड़ कर आत्मिक जीवन की तरावट समाप्त कर लेते हैं, वे मनुष्य उन वृक्षों जैसे कहे जाते हैं, जो खड़े-खड़े सूख जाते हैं (पर ऐसे सूखे जीवन वाले मनुष्य भी) संत-जनों की संगति में मिल के हरे हो जाते हैं। इसलिए (हे भाई!) एक पल भर भी देर नहीं करनी चाहिए। (जल्दी) जा के संत जनों के चरणों में लगना चाहिए।3।

राम नाम कीरतन रतन वथु हरि साधू पासि रखीजै ॥ जो बचनु गुर सति सति करि मानै तिसु आगै काढि धरीजै ॥४॥

पद्अर्थ: रतन वथु = कीमती पदार्थ। रखीजै = रखा होता है। बचनु गुर = गुरु का वचन। सति करि = श्रद्धा से। माने = मानता है (एकवचन)। धरीजै = धरा जाता है, धर देता है।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम, परमात्मा की महिमा एक कीमती पदार्थ है। यह पदार्थ परमात्मा ने संत-जनों के पास रखा होता है। जो मनुष्य गुरु के उपदेश को पूरी श्रद्धा के साथ मानता है, (गुरु यह कीमती पदार्थ) उसके आगे निकाल के रख देता है।4।

संतहु सुनहु सुनहु जन भाई गुरि काढी बाह कुकीजै ॥ जे आतम कउ सुखु सुखु नित लोड़हु तां सतिगुर सरनि पवीजै ॥५॥

पद्अर्थ: जन = हे जनो! हे भाई! , हे भाईयो! गुरि = गुरु ने। काढी = ऊँची की हुई है। कूकीजै = कूक रहा है। आतम कउ = जिंद के लिए। सुखु सुखु = हर वक्त का सुख। पवीजै = पड़ना चाहिए।5।

अर्थ: हे संत जनो! हे भाईयो! गुरु ने (अपनी) बाँह ऊँची की हुई है और आवाज मार रहा है (उसकी बात) ध्यान से सुनो। हे संत जनो! अगर तुम अपनी जिंद के लिए सदा का सुख चाहते हो, तो गुरु की शरण पड़े रहना चाहिए।5।

जे वड भागु होइ अति नीका तां गुरमति नामु द्रिड़ीजै ॥ सभु माइआ मोहु बिखमु जगु तरीऐ सहजे हरि रसु पीजै ॥६॥

पद्अर्थ: वड भागु = बड़ी किस्मत। नीका = सुंदर। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का कर लेना चाहिए। बिखमु = मुश्किल। तरीऐ = तैरा जा सकता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में। पीजै = पीया जा सकता है।6।

अर्थ: हे भाई! अगर किसी मनुष्य की बहुत बड़ी किस्मत हो, तो वह गुरु की मति ले के (अपने अंदर) परमात्मा का नाम दृढ़ करता है। हे भाई! माया का मोह- यह सारा बहुत ही मुश्किल संसार-समुंदर है (नाम की इनायत से यह) तैरा जा सकता है। (इस वास्ते) आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा का नाम-रस पीना चाहिए।6।

माइआ माइआ के जो अधिकाई विचि माइआ पचै पचीजै ॥ अगिआनु अंधेरु महा पंथु बिखड़ा अहंकारि भारि लदि लीजै ॥७॥

पद्अर्थ: अधिकाई = बहुत (प्रेमी)। पचै पचीजै = हर वक्त जलता है। अगिआनु = अज्ञान, आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंनेरु = अंधेरा। पंथु = (जिंदगी का) रास्ता। बिखड़ा = मुश्किल। अहंकार = अहंकार से। भारि = भार से। अहंकारि भारि = अहंकार (रूपी) भार से। लदि लीजै = लादा जाता है।7।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सिर्फ माया के ही बहुत प्रेमी हैं (वे सदा दुखी होते हैं। माया का प्रेमी मनुष्य तो) हर वक्त माया (की तृष्णा की आग) में जलता रहता है। (ऐसे मनुष्य के लिए) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी एक घुप अंधेरा (बन जाता है, उस मनुष्य के लिए जिंदगी का) रास्ता मुश्किल हो जाता है (क्योंकि वह मनुष्य) अहंकार (-रूप) भार से लदा रहता है।7।

नानक राम रम रमु रम रम रामै ते गति कीजै ॥ सतिगुरु मिलै ता नामु द्रिड़ाए राम नामै रलै मिलीजै ॥८॥६॥ छका १ ॥

पद्अर्थ: रम = व्यापक। रमु = स्मरण कर। रामै ते = परमात्मा (के नाम) से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। कीजै = बना ली जाती है। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का कर देता है। नामै = नाम में ही। रलै = लीन हो जाता है। मिलीजै = मिला जाता है।8। छका = छक्का, छह अष्टपदियों का जोड़।

अर्थ: हे नानक! सदा व्यापक राम का नाम स्मरण करता रह। व्यापक राम के नाम से ही उच्च आत्मिक अवस्था हासिल की जा सकती है। जब गुरु मिलता है वह (वह मनुष्य के हृदय में परमात्मा का) नाम दृढ़ करता है। (मनुष्य) परमात्मा के नाम में सदा के लिए लीन हो जाता है।8।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh