श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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किआ तू सोइआ जागु इआना ॥ तै जीवनु जगि सचु करि जाना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किआ = क्यों? इआना = हे अंजान! जगि = जगत में। सचु = सदा कायम रहने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे अंजान! होश कर! तू क्यों सो रहा है? तू जगत में इस जीवन को सदा कायम रहने वाला समझ बैठा है।1। रहाउ।

जिनि जीउ दीआ सु रिजकु अ्मबरावै ॥ सभ घट भीतरि हाटु चलावै ॥ करि बंदिगी छाडि मै मेरा ॥ हिरदै नामु सम्हारि सवेरा ॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। जीउ = जिंद। अंबरावै = पहुँचाता है। भीतरि = अंदर। हाटु = दुकान। हाटु चलावै = रोजी का प्रबंध करता है। सवेरा = समय सिर, सुबह ही।2।

अर्थ: (तू हर वक्त रिजक की ही फिक्र में रहता है, देख) जिस प्रभु ने जिंद दी है, वह रिजक भी पहुँचाता है, सारे शरीरों में बैठा हुआ वह स्वयं रिजक के आहर पैदा कर रहा है। मैं (इतना बड़ा हूँ) मेरी (इतनी मल्कियत है) - छोड़ ये बातें, प्रभु की बंदगी कर, अब वक्त रहते उसका नाम अपने दिल में संभाल।2।

जनमु सिरानो पंथु न सवारा ॥ सांझ परी दह दिस अंधिआरा ॥ कहि रविदास निदानि दिवाने ॥ चेतसि नाही दुनीआ फन खाने ॥३॥२॥

पद्अर्थ: सिरानो = गुजर रहा है। पंथु = जिंदगी का रास्ता। सवारा = सुंदर बनाया। सांझ = शाम। दहदिस = दसों तरफ। कहि = कहे, कहता है। निदानि = अंत को। दिवाने = हे दिवाने! हे पागल! फनखाने = फनाह का घर, नाशवान।3।

अर्थ: उम्र बीतने पर आ रही है, पर तूने अपना राह सही नहीं बनाया; शाम पड़ रही है, हर तरफ अंधकार ही अंधकार छाने वाला है। रविदास कहता है: हे कमले मनुष्य! तू प्रभु को याद नहीं करता, दुनिया (जिससे तू मन जोड़े बैठा है) अंत में नाश हो जाने वाली है।3।2।

शब्द का भाव: जगत में सदा बैठे नहीं रहना। इसके मोह में मस्त हो के प्रभु की भक्ति के प्रति गाफिल ना होएं।

नोट: आम तौर पर शब्द ‘निदानि’ को फारसी के शब्द ‘नादान’ समझ के इसके अर्थ ‘मूर्ख’ किए जा रहे हैं। इसके साथ लगा हुआ शब्द ‘दिवाने’ भी कुछ इसी ही अर्थ में मन का झुकाव पैदा करता है। पर यह गलत है, क्योंकि गुरु ग्रंथ साहिब जी में जहाँ कहीं भी ये शब्द आया हैइसके अर्थ ‘अंत को, आखिर को’ किया जाता है। ये संस्कृत का शब्द ‘निदान’ है जिसका अर्थ है ‘आखीर, अंत (end, termination)। देखें;

‘बिनु नारवै पाजु लहगु निदानि ॥’ (बिलावल महला ३)
‘नानक एव न जापई कोई खाइ निदानि॥’ (सलोक म: १, बिलावल की वार)
‘कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना॥’ (बिलावलु)

बाकी रहा ये एतराज कि ये अर्थ करने के वक्त ‘निदानि’ को उठा के आखिर में शब्द ‘फ़नखाने’ के साथ मिलाना पड़ता है, इस ‘अनवय’ में खींच प्रतीत होती है। इसका उक्तर ये है कि हरेक कवि की कविता का अपना-अपना ढंग है; भक्त रविदास जी भी एक और जगह यही तरीका इस्तेमाल करते हैं;

‘निंदकु सोधि सोधि बीचारिआ ॥ कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ॥’ (गौंड)

इस प्रमाण में शब्द ‘निंदकु’ तुक का अर्थ करने के वक्त आखिर में शब्द ‘पापी’ के साथ बर्तना पड़ता है।

सूही ॥ ऊचे मंदर साल रसोई ॥ एक घरी फुनि रहनु न होई ॥१॥

पद्अर्थ: साल रसोई = रसोईशाला, रसोई घर। फुनि = दोबारा (भाव, मौत आने पर)।1।

अर्थ: (अगर) ऊँचे-ऊँचे पक्के घर व रसोईखाने हों (तो भी क्या हुआ?) मौत आने से (इनमें) एक घड़ी भी (ज्यादा) रहने को नहीं मिलता।1।

इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी ॥ जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: टाटी = छप्पर।1। रहाउ।

अर्थ: (पक्के घर आदि तो कहाँ रहे) ये शरीर (भी) घास के छप्पर की तरह ही है, घास जल जाती है, और मिट्टी में मिल जाती है (यही हाल शरीर का होता है)।1। रहाउ।

भाई बंध कुट्मब सहेरा ॥ ओइ भी लागे काढु सवेरा ॥२॥

पद्अर्थ: भाई बंध = रिश्तेदार। सहेरा = साथी, यार मित्र। लागे = कहने लग जाते हैं। सवेरा = सुबह, जल्दी।2।

अर्थ: (जब मनुष्य मर जाता है तब) रिश्तेदार, परिवार, सज्जन, साथी - ये सभी कहने लग जाते हैं कि इसे अब जल्दी बाहर निकालो।2।

घर की नारि उरहि तन लागी ॥ उह तउ भूतु भूतु करि भागी ॥३॥

पद्अर्थ: घर की नारि = अपनी पत्नी। उरहि = छाती से। भूतु = गुजर गया है, मर गया है। भागी = परे हट जाती है।3।

अर्थ: अपनी पत्नी (भी) जो सदा (मनुष्य) के साथ लगी रहती थी, ये कह के परे हट जाती है ये तो अब मर गया है, मर गया।3।

कहि रविदास सभै जगु लूटिआ ॥ हम तउ एक रामु कहि छूटिआ ॥४॥३॥

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। लूटिआ = ठगा जा रहा है। तउ = तो।4।

अर्थ: रविदास कहता है: सारा जगत ही (शरीर को, जायदाद को, संबन्धियों को अपना समझ के) ठगा जा रहा है, पर मैं एक परमात्मा का नाम स्मरण करके (इस ठगी से) बचा हूँ।4।3।

शब्द का भाव: यहाँ। कुछ दिन का ठिकाना है। असल साथी परमात्मा ही है।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सूही बाणी सेख फरीद जी की ॥

तपि तपि लुहि लुहि हाथ मरोरउ ॥ बावलि होई सो सहु लोरउ ॥ तै सहि मन महि कीआ रोसु ॥ मुझु अवगन सह नाही दोसु ॥१॥

पद्अर्थ: तपि तपि = खप खप के, दुखी हो हो के। लुहि लुहि = तड़प तड़प के। हाथ मरोरउ = मैं हाथ मलती हूँ, मैं पछताती हूँ। बावलि = कमली, झल्ली। लोरउ = मैं तलाशती हूँ। सहि = पति ने। रोसु = गुस्सा। सह = पति का।1।

अर्थ: बड़ी दुखी हो के, बड़ी तड़फ के अब मैं हाथ मल रही हूँ, पागल हो के अब मैं उस पति को तलाशती फिरती हूँ। हे पति प्रभु! तेरा कोई दोष (मेरी इस बुरी हालत के लिए) नहीं है, मेरे में ही अवगुण थे, तभी तूने अपने मन में मेरे साथ रोष किया।1।

तै साहिब की मै सार न जानी ॥ जोबनु खोइ पाछै पछुतानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सार = कद्र। खोइ = गवा के।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मालिक! मैंने तेरी कद्र नहीं जानी, जवानी का समय गवा के अब बाद में मैं झुर रही हूँ।1। रहाउ।

काली कोइल तू कित गुन काली ॥ अपने प्रीतम के हउ बिरहै जाली ॥ पिरहि बिहून कतहि सुखु पाए ॥ जा होइ क्रिपालु ता प्रभू मिलाए ॥२॥

पद्अर्थ: कित गुन = किन गुणों के कारण। हउ = मैं। बिरहै = बिछोड़े में। जाली = जली।2।

अर्थ: (अब मैं कोयल को पूछती फिरती हूँ-) हे काली कोयल! (भला, मैं तो अपने कर्मों की मारी दुखी जली सड़ी हुई हूँ) तू भी क्यों काली (हो गई) है? (कोयल भी यही उक्तर देती है) मुझे मेरे प्रीतम के विछोड़े ने जला डाला है। (ठीक है) पति से विछुड़ के कहीं कोई सुख पा सकी है? (पर, जीव-स्त्री के वश की भी बात नहीं) जब प्रभु खुद मेहरवान होता है तो खुद ही मिला लेता है।2।

विधण खूही मुंध इकेली ॥ ना को साथी ना को बेली ॥ करि किरपा प्रभि साधसंगि मेली ॥ जा फिरि देखा ता मेरा अलहु बेली ॥३॥

पद्अर्थ: विधण = (विधून) कंपाने वाली, डरावनी, भयानक। मुंध = स्त्री। प्रभि = प्रभु ने। साध संगि = सत्संग में। बेली = मददगार।3।

अर्थ: (इस जगत रूप) डरावने कूएं में मैं जीव-स्त्री अकेली (गिर गई थी, यहाँ) कोई मेरा साथी नहीं (मेरे दुखों में) कोई मेरा मददगार नहीं। अब जब प्रभु ने मेहर करके मुझे सत्संग में मिलाया है, (सत्संग में आ के) जब मैं देखती हूँ तो मुझे मेरा रब बेली दिख रहा है।3।

वाट हमारी खरी उडीणी ॥ खंनिअहु तिखी बहुतु पिईणी ॥ उसु ऊपरि है मारगु मेरा ॥ सेख फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: वाट = जीवन सफर। उडीणी = दुखद, चिंतातुर करने वाली। खंनिअहु = खंडे से। पिइणी = तेज धार वाली, पतली। समारि = संभाल के। सवेरा = सुबह।4।

अर्थ: हे भाई! हमारा यह जीवन-पथ बहुत भयावह है, खंडे से भी तीखा है, बड़ी तेज धार वाला है; इसके ऊपर से हमें गुजरना है। इस वास्ते, हे फरीद! सुबह-सुबह रास्ता संभाल।4।1।

सूही ललित ॥ बेड़ा बंधि न सकिओ बंधन की वेला ॥ भरि सरवरु जब ऊछलै तब तरणु दुहेला ॥१॥

पद्अर्थ: बेड़ा = नाम स्मरण रूपी बेड़ा, ‘जप तप’ का बेड़ा। बंधि न सकिओ = (कसुंभ को ही हाथ डाले रखने से जीव) तैयार ना कर सका। बंधन की वेला = (बेड़ा) तैयार करने की उम्र में। भरि = (विकारों से लबालब) भर के। दुहेला = मुश्किल।1।

अर्थ: (जिस मनुष्य ने माया से ही मन लगाए रखा) वह (बेड़ा) तैयार करने की उम्र में नाम-रूप बेड़ा तैयार ना कर सका, और, जब सरोवर (लबालब) भर के (बाहर) उछलने लग पड़ता है तब इसमें तैरना मुश्किल हो जाता है (भाव, जब मनुष्य विकारों की अति कर देता है तो इनके चस्के में से निकलना दुश्वार हो जाता है)।1।

हथु न लाइ कसु्मभड़ै जलि जासी ढोला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ढोला = हे मित्र! जलि जासी = (कसुंभ) जल जाएगा, मुरझा जाएगा, कसुंभ का रंग बहुत देर तक रहने वाला नहीं, माया की मौज थोड़े दिन ही रहती है। हथु न लाइ कसुंभड़ै = बुरे कसुंभ को हाथ मत लगा, मन को दगाबाज माया के साथ ना जोड़े रख। रहाउ।

अर्थ: हे सज्जन! दगाबाज माया के साथ ही अपने मन को ना जोड़े रख, ये माया चार दिन की खेल है।1। रहाउ।

इक आपीन्है पतली सह केरे बोला ॥ दुधा थणी न आवई फिरि होइ न मेला ॥२॥

पद्अर्थ: इक = कई (जीव-) स्त्रीयां। आपीनै = अपने आप में। पतली = कमजोर आत्मिक जीवन वाली। रे बोला = निरादरी के वचन। दुधाथणी = वह अवस्था जब स्त्री के थनों से दूध आता है, पति मिलाप। फिरि = कि ये वक्त हाथ से निकल जाने पर।2।

नोट: गुरु नानक साहिब के अपने शब्द को छोड़ कर विलायत वाली साखी का आसरा लेते फिरना, फिर उसके भी गलत पाठ का आसरा लेना, समझदारी वाली बात नहीं, शब्द ‘इक’ बहुवचन ही है, पर है यह ‘स्त्रीलिंग’; पुलिंग में आमतौर पर बहुवचन शब्द ‘इक’ से ‘इकि’ होता है। शब्द ‘दुधाथणी’ के दो हिस्से ‘दुधा’ और ‘थणी’ कर देने भी गलत हैं। ये शब्द एक ही और ‘समासी’ शब्द है। सारे गुरु ग्रंथ साहिब में सिर्फ दो बार आया है, दूसरी बार गुरु नानक साहिब ने प्रयोग किया है।

अर्थ: जो जीव-सि्त्रयाँ (माया से मोह डालने के कारण) अपने आप में कमजोर आत्मिक जीवन वाली हो जाती हैं, उनको (प्रभु-) पति के दर से निरादरी के बोल नसीब होते हैं; उनपे पति के मिलाप की अवस्था नहीं आती और मानव जन्म का समय हाथ से छूट जाने पर (जब नाम-स्मरण का बेड़ा तैयार हो सकता था) प्रभु से मेल नहीं हो सकता।2।

कहै फरीदु सहेलीहो सहु अलाएसी ॥ हंसु चलसी डुमणा अहि तनु ढेरी थीसी ॥३॥२॥

पद्अर्थ: सहु = पति प्रभु। अलाएसी = बुलाएगा। हंसु = जीवात्मा। डुंमणा = (डुं+मणा) दोचिता (हो के)। अहि तनु = ये शरीर। थीसी = हो जाएगा।3।

अर्थ: फरीद कहता है: हे सहेलियो! जब पति-प्रभु का बुलावा (इस जगत में से चलने के लिए) आएगा, तो (माया में ही ग्रसी रहने वाली जीव-स्त्री का) आत्मा-हंस दुबिधा में (दुचिती में यहाँ से) जाएगा (भाव, माया से विछुड़ने का चिक्त नहीं करेगा)।3।2।

नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के हरेक शब्द में ‘रहाउ’ की एक व दो तूकें आती हैं। ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘टिकाव’, ‘ठहरना’। सो, सारे शब्द को समझने के लिए पहले उस पंक्ति पर ठहरना है, जिसके साथ ‘रहाउ’ लिखा है। गुरु ग्रंथ साहिब जी के शबदों को समझने का मूल नियम यही है कि पहले ‘रहाउ’ की पंक्ति को अथवा पद को अच्छी तरह समझ लिया जाए। मुख्य भाव इसी पंक्ति में ही होता है, बाकी के पद इस मुख्य-भाव का विस्तार होते हैं।

हथु न लाइ कसुंभड़ै, जलि जासी ढोला॥१॥ रहाउ॥

‘कसुंभा’ एक फूल का नाम है, जिसका रंग देखने में तो बड़ा चटक और भड़कीला होता है, पर जल्दी ही खराब हो जाता है इसके मुकाबले पर ‘मजीठ’ है; इसका रंग पक्का होता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में ये दोनों ही पदार्थों के मुकाबले में ‘माया’ और ‘नाम’ के लिए बरते गए हैं, क्योंकि माया का साथ चार दिन का है, और, नाम-धन इसका साथ निभने वाला है। ‘कसुंभड़ै’ फूल के साथ ‘जलि’ जाने का शब्द का इस्तेमाल भी पंजाबी मुहावरे के मुताबिक ही है। हम आम तौर पर कहते हैं, ‘फूल जल गया’। शब्द ‘जलि’ का संबंध ‘कसुंभड़ै’ से है। इसे और ज्यादा स्पष्ट करने के लिए इसी राग के आरम्भ में गुरु नानक साहिब का एक शब्द काफी है इन दोनों शबदों को आमने-सामने रख के एक-एक पद मिला के पढ़ें तो ऐसा प्रतीत होता है कि शेख फरीद जी के भाव को स्पष्ट करने के लिए साहिब गुरु नानक देव जी ने ये शब्द उचारा है। शब्द यूँ है;

सूही महला १॥ जप तप का बंधु बेड़ुला जितु लंघहि वहेला॥ ना सरवरु ना ऊछलै ऐसा पंथु सुहेला॥१॥ तेरा एको नामु मंजीठड़ा रता मेरा चोला सद रंग ढोला॥१॥ रहाउ॥ साजन चले पिआरिआ किउ मेला होई॥ जे गुण होवहि गंठड़ीऐ मेलेगा सोई॥२॥ मिलिआ होइ न वीछुड़ै जे मिलिआ होई॥ आवा गउणु निवारिआ है साचा सोई॥३॥ हउमै मारि निवारिआ सीता है चोला॥ गुर बचनी फलु पाइआ सह के अंम्रित बोला॥४॥ नानकु कहै सहेलीहो सहु खरा पिआरा॥ हम सह केरीआ दासीआ साचा खसम हमारा॥५॥२॥४॥   (पन्ना 729)

इस शब्द का एक-एक पद फरीद जी के शब्द के एक-एक पद के भाव को खोल रहा है। यही हाल ‘रहाउ’ की तुक का है। ‘कुसंभै’ के मुकाबले में ‘मजीठ’ शब्द बरता है। इस तरह ‘कसुंभड़ै’ का अर्थ ‘कसुंभ’ का फूल ही है जो ‘माया’ के प्रथाय प्रयोग किया गया है।

अर्थ: हे मित्र! कसुंभ-रूपी माया को हाथ ना लगा, यह कसुंभ जल जाएगा, भाव इस माया का साथ जल्दी ही नष्ट होने वाला है। रहाउ।

मूल: बेड़ा बंधि न सकिओ, बंधन की वेला॥

(प्र:) कौन सा बेड़ा?

(उ:) जप तप का बंधु बेड़ुला॥

मूल: इकि आपीनै, पतली सहके रे बोला॥

इस तुक का ठीक पाठ करने के लिए ठीक अर्थ समझने के लिए गुरु नानक देव जी के उपरोक्त दिए शब्द का आठवाँ पद पढ़ें:

‘गुर बचनी फलु पाइआ, सह के अंम्रित बोला॥’

जिन्होंने कसुंभ को हाथ लगाया वह ‘आपीनै पतली’ रहीं और उन्हें प्राप्त क्या हुआ? ‘सह के रे बोला’। पर जिनका चोला नाम-मजीठ से रंगा गया, उन्होंने फल पाया ‘सह के अम्रित बोला’।

इन दोनों तुकों के सारे शब्दों को आपस में मेल करके देखें। शब्द ‘सह’, ‘के’, ‘बोला’; ये तीनों ही दोनों में सांझे हैं। गुरु नानक साहिब वाले शब्द की तुक में शब्द ‘रे’ रह गया।

इस तरह पाठ ‘सह के रे बोला’ है, भाव, ‘के’ और ‘रे’ अलग-अलग हैं। ‘रे’ अनादर भाव में बोले वचन हैं। जैसे: ‘रे रे दरगह कहै न कोऊ’

अर्थ: कई जीव सि्त्रयाँ (जिन्होंने कसुंभ को हाथ लगाया है) अपने आप में पतलियाँ हैं उन्हें पति के अनादरी वाले वचन ही मिलते हैं।

पतलीआं = नाज़क, अहंकारनें, चतुर बुद्धि, कमजोर आत्मिक जीवन वाली।

मूल: दुधाथणी न आवई फिरि होइ न मेला॥2।

इस तुक को समझने के लिए भी उपरोक्त शब्द के पद् 2 और 3 देखें;

(प्र:) किस मिलाप का जिक्र है?

(उ:) हरि से मिलाप का। मनुष्य के जनम के मिलने की ओर इशारा नहीं है। इस तरह ‘फिरि होइ न मेला’ का भाव है (अगर कसुंभे को हाथ लगाया) तो पति-परमात्मा के साथ मेल नहीं होगा।

बाकी रह गई पहली आधी तुक ‘दुधाथणी न आवई’।

(प्र:) स्त्री के थनों में दूध कब आता है?

(उ:) कुदरत के नियम अनुसार जब उसके पति से मिलाप होता है और पुत्र-वती बनती है, जब सोहाग-भाग वाली होती है।

डस सारी तुक का अर्थ इस प्रकार है: अगर कसुंभ को हाथ लगाया तो स्त्री सोहागवती नहीं हो सकेगी, और पति से मिलाप नहीं हो सकेगा।

इस अर्थ की प्रोढ़ता के लिए साहिब श्री गुरु नानक देव जी का निम्न-लिखित शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है;

रागु गउड़ी पूरबी छंत महला १॥ मुंध रैणि दुहेलड़ीआ जीउ नीद न आवै॥ सा धन दुबलीआ जीउ पिर कै हावै॥ धन थीई दुबलि कंत हावै केव नैणी देखए॥ सीगार मिठ रस भोग भोजन सभु झूठु कितै न लेखए॥ मै मत जोबनि गरबि गाली दुधा थणी न आवए॥ नानक साधन मिलै मिलाई बिनु पिर नीद न आवए॥१॥ (पन्ना २४२)

इस छंत में केवल जीव-स्त्री और पति-परमात्मा के मिलाप का ही वर्णन है, मानव जनम की ओर कहीं इशारा नहीं है। यह अनुमान लग सकता है कि फरीद जी ने और साहिब गुरु नानक देव जी ने एक ही मुहावरा जीव-स्त्री के सोहाग-वती होने के लिए बरता है। ‘रहाउ’ की तुक को सामने रख के सारे शब्द को पढ़ने से यही प्रत्यक्ष दिखता है कि कसुंभ को हाथ लगाने से भयानक निर्णय बताए गए हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh