श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला १ घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

उजलु कैहा चिलकणा घोटिम कालड़ी मसु ॥ धोतिआ जूठि न उतरै जे सउ धोवा तिसु ॥१॥

पद्अर्थ: चिलकणा = चमकीला। घोटिम = मैंने घोटा, घिसा के। कालड़ी = काली सी, थोड़ी थोड़ी काली। मसु = स्याही। सउ = सौ बार। तिसु = उस कांसे (के बर्तन) को।1।

अर्थ: मैंने कांसे (का) साफ और चमकीला (बर्तन) घिसाया (तब उसमें से) थोड़ी-थोड़ी काली स्याही (लग गई)। अगर मैं सौ बार भी उस कांसे के बर्तन को धोऊँ (साफ करूँ) तो भी (बाहर से) धोने से उसके (अंदर की) जूठ (कालिख़) दूर नहीं होती।1।

सजण सेई नालि मै चलदिआ नालि चलंन्हि ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै खड़े दिसंनि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सेई = वह ही। मै नालि चलंन्हि = मेरे साथ चलते हैं। मंगीऐ = मांगा जाता है। खड़े = खड़े हुए। दसंन्हि = बताते हैं, लेखा समझाते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: मेरे असल मित्र वही हैं जो (हमेशा) मेरे साथ रहें, और (यहाँ से) चलने के वक्त भी मेरे साथ ही चलें, (आगे) जहाँ (किए कर्मों का) हिसाब माँगा जाता है वहाँ बेबाकी से (बेझिझक हो के) हिसाब दे सकें (भाव, हिसाब देने में कामयाब हो सकें)।1। रहाउ।

कोठे मंडप माड़ीआ पासहु चितवीआहा ॥ ढठीआ कमि न आवन्ही विचहु सखणीआहा ॥२॥

पद्अर्थ: मंडप = मंदिर। पासहु = तरफ से, चौतरफे से। चितवीआहा = चितरी हुई। कंमि = काम में। आवनी = आती हैं। विचहु = अंदर से।2।

अर्थ: जो घर-मन्दिर-महल चारों तरफ़ से चित्रे हुए हों (सजे धजे हों), पर अंदर से ख़ाली हों, (वे गिर जाते हैं और) गिरे हुए किसी काम नहीं आते।2।

बगा बगे कपड़े तीरथ मंझि वसंन्हि ॥ घुटि घुटि जीआ खावणे बगे ना कहीअन्हि ॥३॥

पद्अर्थ: बगा कपड़े = बगुलों के पंख। बगे = सफेद। मंझि = में। घुटि घुटि = (गला) घोट घोट के। खावणे = खाने वाले। कहीअन्हि = कहे जाते हैं।3।

अर्थ: बगलों के पंख सफेद होते हैं, बसते भी वे तीर्थों पर ही हैं। पर जीवों को (गले से) घोट-घोट के खाने वाले (अंदर से) साफ-सुथरे नहीं कहे जाते।3।

सिमल रुखु सरीरु मै मैजन देखि भुलंन्हि ॥ से फल कमि न आवन्ही ते गुण मै तनि हंन्हि ॥४॥

पद्अर्थ: सरीरु मै = मेरा शरीर। मैजनु = (मेधाविन्) तोते। भूलंन्हि = भुलेखा खा जाते हैं। ते गुण = वही गुण, वैसे ही गुण। मै तनि = मेरे शरीर में। हंन्हि = हैं।4।

अर्थ: (जैसे) सिंबल का वृक्ष (है, वैसे) मेरा ये शरीर है, (सिंबल के फलों को) देख के तोते भुलेखा खा जाते हैं, (सिंबल के) वे फल (तोतों के) काम नहीं आते, वैसे ही गुण मेरे शरीर में हैं।4।

अंधुलै भारु उठाइआ डूगर वाट बहुतु ॥ अखी लोड़ी ना लहा हउ चड़ि लंघा कितु ॥५॥

पद्अर्थ: अंधुलै = अंधे (मनुष्य) ने। डूगर वाट = पहाड़ी रास्ता। अखी = आँखों से। लोड़ी = तलाशता है। ना लहा = मैं ढूँढ नहीं सकता। हउ = मैं। कितु = किस तरीके से?।5।

अर्थ: मुझ अंधे ने (सिर पर विकारों का) भार उठाया हुआ है, (आगे मेरा जीवन-राह) बहुत ही पहाड़ी रास्ता है। आँखों से तलाश के मैं राह-ठिकाना नहीं तलाश सकता (क्योंकि आँखें हैं ही नहीं। इस हालत में) किस तरीके से (पहाड़ी पर) चढ़ कर मैं पार लांघूँ?।5।

चाकरीआ चंगिआईआ अवर सिआणप कितु ॥ नानक नामु समालि तूं बधा छुटहि जितु ॥६॥१॥३॥

पद्अर्थ: चाकरीआ = लोगों की खुशामदें। चंगिआईआ = बाहरी दिखावे। कितु = किस काम के? जितु = जिस तरह।6।

अर्थ: हे नानक! (पहाड़ी रास्ते जैसे बिखड़े जीवन-राह में पार लंघने के लिए) दुनिया के लोगों की खुशामदें, लोक-दिखावे और चालाकियाँ किसी काम नहीं आ सकतीं। परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) संभाल के रख। (माया के मोह में) बँधा हुआ तू इस नाम (-स्मरण) के द्वारा ही (मोह के बंधनो से) खलासी पा सकेगा।6।1।3।

नोट: अंक1 बताता है कि ‘घर ६’ का ये पहला शब्द है। सूही में अब तक गुरु नानक देव जी के 3शबद आ चुके हैं।

सूही महला १ ॥ जप तप का बंधु बेड़ुला जितु लंघहि वहेला ॥ ना सरवरु ना ऊछलै ऐसा पंथु सुहेला ॥१॥

पद्अर्थ: जप तप का बेड़ुला = जप तप का सुंदर बेड़ा। जपु तपु = नाम स्मरण।

बंधु = बाँध, तैयार कर। जितु = जिस बेड़े से। वहेला = जल्दी। पंथु = रास्ता, जीवन-पंथ। सुहेला = आसान।1।

अर्थ: (हे जीवन-सफ़र के राही!) प्रभु-स्मरण का सुंदर सा बेड़ा तैयार कर, जिस (बेड़े) में तू (इस संसार-समुंदर में से) जल्दी पार लांघ जाएगा। (नाम-जपने की इनायत से) तेरा जीवन-रास्ता इतना आसान हो जाएगा कि (तेरे रास्ते में) ना ये (संसार-) सरोवर आएगा और ना ही (इसका मोह) उछाले मारेगा।1।

(नोट: ‘रहाउ’ की तुक सदा सारे शब्द का केन्द्रिय भाव बताती है। यहाँ ‘रहाउ’ में’नाम’ को ही महानता दी गई है।) और प्रमाण भी हैं;

भनति नानकु करे वीचार॥ साची बाणी सिउ धरे पिआरु॥
ता को पावै मोख दुआरु॥ जपु तपु सतु इहु शबद है सारु॥४॥२॥४॥ (धनासरी महला १, पंना 661)

ऐ जी जपु तपु संजमु सचु अधार॥
हरि हरि नामु देहि सुख पाईऐ तेरी भगति भरे भंडार॥१॥ रहाउ॥ (गुजरी महला १, पंना 503)

तेरा एको नामु मंजीठड़ा रता मेरा चोला सद रंग ढोला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मंजीठड़ा = सुंदर मजीठ। रता = रंगा हुआ। सद रंग = सदा रहने वाला रंग, पक्का रंग। ढोला = हे मित्र! हे प्यारे!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मित्र! (-प्रभु!) तेरा नाम ही सुंदर मजीठ है जिसके पक्के रंग से मेरे (आत्मिक जीवन का) चोला रंगा गया है।1। रहाउ।

साजन चले पिआरिआ किउ मेला होई ॥ जे गुण होवहि गंठड़ीऐ मेलेगा सोई ॥२॥

पद्अर्थ: साजन = हे सज्जन! चले पिआरिआ = हे चले जा रहे प्यारे! हे जीवन-यात्रा के प्यारे पथिक! गंठड़ीऐ = गठड़ी में, पल्ले, राह के सफर के लिए बँधी हुई गाँठ में। सोई = वह परमात्मा।2।

अर्थ: हे सज्जन! जीवन-सफ़र के प्यारे पथिक! (क्या तुझे पता है कि) प्रभु के साथ मिलाप कैसे होता है? (देख!) अगर पल्ले गुण हों तो वह खुद ही (अपने साथ) मिला लेता है।2।

मिलिआ होइ न वीछुड़ै जे मिलिआ होई ॥ आवा गउणु निवारिआ है साचा सोई ॥३॥

पद्अर्थ: आवागउणु = आना और जाना, जनम और मरन का चक्कर। निवारिआ = खत्म कर दिया। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। सोई = वह प्रभु।3।

अर्थ: जो जीव प्रभु-चरणों में जुड़ जाए अगर वह सचमुच दिल से जुड़ा हुआ है तो फिर कभी वह (इस) मिलाप से नहीं विछुड़ता। उसके जनम-मरन का चक्कर समाप्त हो जाता है, उसको हर जगह वह सदा-स्थिर प्रभु ही दिखाई देता है।3।

हउमै मारि निवारिआ सीता है चोला ॥ गुर बचनी फलु पाइआ सह के अम्रित बोला ॥४॥

पद्अर्थ: मारि = मार के। सीता है चोला = अपने लिए कुर्ता तैयार किया है, अपने आप को श्रृंगारा है, खुद को सुंदर बनाया है। सह के = पति प्रभु के। अंम्रित बोला = अमर करने वाले बोल, आत्मिक जीवन देने वाले वचन।4।

अर्थ: जिस जीव ने अहंकार मार के स्वै भाव दूर किया है और (इस तरह) अपना आप सँवार लिया है, सतिगुरु के वचन पर चल के फल के तौर पर उसे पति-प्रभु की महिमा के बोल प्राप्त होते हैं जो आत्मिक जीवन देने के समर्थ हैं।4।

नानकु कहै सहेलीहो सहु खरा पिआरा ॥ हम सह केरीआ दासीआ साचा खसमु हमारा ॥५॥२॥४॥

पद्अर्थ: खरा = बहुत। केरीआ = की। साचा = सदा स्थिर।5।

अर्थ: नानक कहता है: हे सत्संगी सहेलियो! (नाम-जपने की इनायत से) पति-प्रभु बहुत प्यारा लगने लगता है, (फिर ऐसा यकीन बना रहता है कि) हम पति की दासियाँ हैं, और वह पति-प्रभु हमेशा हमारे सिर पर कायम है।5।2।4।

नोट: अंक 2 बताता है कि ‘घरु ६’ का ये दूसरा शब्द है। सूही राग में गुरु नानक देव जी का ये चौथा शब्द है।

सूही महला १ ॥ जिन कउ भांडै भाउ तिना सवारसी ॥ सूखी करै पसाउ दूख विसारसी ॥ सहसा मूले नाहि सरपर तारसी ॥१॥

पद्अर्थ: जिन कउ = जिस (जीवों) को। भांडै = बर्तन में, हृदय में। भाउ = प्रेम। सवारसी = सवारेगा, सुंदर बनाएगा। सूखी = सुखों की। पसाउ = प्रसाद, कृपां। विसारसी = बिसार देगा, भुला देता है। सहसा = सहम, शक। सरपर = जरूर।1।

अर्थ: (प्रभु) जिस (जीवों) के (हृदय-रूपी) बर्तन में प्रेम (की भिक्षा देता है), (उस प्रेम की इनायत से प्रभु) उनका जीवन सुंदर बना देता है। उन पर सुख की कृपा करता है, उनके दुख भुला देता है। इस बात में रक्ती भर भी शक नहीं कि ऐसे जीवों को प्रभु जरूर (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।1।

तिन्हा मिलिआ गुरु आइ जिन कउ लीखिआ ॥ अम्रितु हरि का नाउ देवै दीखिआ ॥ चालहि सतिगुर भाइ भवहि न भीखिआ ॥२॥

पद्अर्थ: लीखिआ = (बख्शिश का) लेखा। दीखिआ = शिक्षा। सतिगुर भाइ = गुरु के प्रेम में, गुरु के अनुसार। भीखिआ = भिक्षा के लिए।2।

अर्थ: जिस लोगों को (धुर से लिखा बख्शिश का) लेख मिल जाता है, उन्हें गुरु आ के मिल जाता है। गुरु उन्हें परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम शिक्षा के तौर पर देता है, वह लोग (जीवन-यात्रा में) गुरु के बताए हुए अनुसार चलते हैं, और (दूसरी तरफ) भटकते नहीं फिरते।2।

जा कउ महलु हजूरि दूजे निवै किसु ॥ दरि दरवाणी नाहि मूले पुछ तिसु ॥ छुटै ता कै बोलि साहिब नदरि जिसु ॥३॥

पद्अर्थ: महलु = ठिकाना। हजूरि = प्रभु की हजूरी में। दरि = दरवाजे पर। दरवाणी = दरबानों की। नाहि मूले = बिल्कुल नहीं। ता कै बोलि = उस (गुरु) के वचन से।3।

अर्थ: (गुरु के बताए राह पर चलके) जिस आदमी को परमात्मा की हजूरी में जगह मिल जाती है वह किसी और के आगे तरले नहीं करता फिरता; परमात्मा के दरवाजे पर (पहुँचे हुए यम आदिक) दरबानों द्वारा कोई रक्ती भर भी पूछ-ताछ नहीं की जाती, क्योंकि जिस गुरु पर मालिक प्रभु की मेहर की नजर है उस गुरु के वचन में (चल के) वह सख्श (विकारों से) मुक्त हो जाता है।3।

घले आणे आपि जिसु नाही दूजा मतै कोइ ॥ ढाहि उसारे साजि जाणै सभ सोइ ॥ नाउ नानक बखसीस नदरी करमु होइ ॥४॥३॥५॥

पद्अर्थ: आणे = लाता है, वापस बुला लेता है। दूजा कोइ मतै नाहि = कोई दूसरा सलाह नहीं दे सकता, दूसरा कोई मति नहीं दे सकता। साजि जाणै = पैदा करना जानता है। करमु = कृपा। नदरी = मेहर की नजर करने वाला प्रभु।4।

अर्थ: जिस मालिक प्रभु को कोई और दूसरा कोई मतें नहीं दे सकता (समझा नहीं सकता, सलाह नहीं दे सकता) वह खुद ही जीवों को जगत में भेजता है और खुद ही वापस बुला लेता है, प्रभु स्वयं ही जगत-रचना को गिराता-बनाता है, वह सब कुछ खुद ही पैदा करना जानता है।

हे नानक! जिस मनुष्य पर मेहर की नजर करने वाले प्रभु की निगाह हो जाती है उसे बतौर बख्शिश उसका नाम मिलता है।4।3।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh