श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भाहि बलंदड़ी बुझि गई रखंदड़ो प्रभु आपि ॥ जिनि उपाई मेदनी नानक सो प्रभु जापि ॥२॥

पद्अर्थ: भाहि = आग। जिनि = जिस प्रभु ने। मेदनी = धरती, सृष्टि।2।

अर्थ: हे नानक! जिस प्रभु ने सारी दुनिया रची है उसका स्मरण कर, (स्मरण करने से) वह प्रभु खुद जीव का रखवाला बनता है और उसके अंदर जलती हुई (तृष्णा की) आग बुझ जाती है।2।

पउड़ी ॥ जा प्रभ भए दइआल न बिआपै माइआ ॥ कोटि अघा गए नास हरि इकु धिआइआ ॥ निरमल भए सरीर जन धूरी नाइआ ॥ मन तन भए संतोख पूरन प्रभु पाइआ ॥ तरे कुट्मब संगि लोग कुल सबाइआ ॥१८॥

पद्अर्थ: न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती। कोटि अघा = करोड़ों पाप। निरमल = पवित्र। जन धूरी = संत जनों की चरण धूल में। नाइआ = नहाने से। कुटंब = परिवार। सबाइआ = सारी।

अर्थ: जब (जीव पर) प्रभु जी मेहरवान हों तो माया जोर नहीं डाल सकती। एक प्रभु को स्मरण करने से करोड़ों ही पाप नाश हो जाते हैं, स्मरण करने वाले बँदों की चरण-धूल में नहाने से शरीर पवित्र हो जाते हैं, (संतों की संगति में) पूर्ण प्रभु मिल जाता है और मन व तन दोनों को संतोष प्राप्त होता है। ऐसे मनुष्यों की संगति में उनके परिवार के लोग और सारी ही कुलों का उद्धार हो जाता है।18।

सलोक ॥ गुर गोबिंद गोपाल गुर गुर पूरन नाराइणह ॥ गुर दइआल समरथ गुर गुर नानक पतित उधारणह ॥१॥

पद्अर्थ: पूरन = सर्व व्यापक। पतित उधारणह = विकारियों का उद्धार करने वाला।1।

अर्थ: हे नानक! गुरु गोबिंद रूप है, गोपाल रूप है, सर्व व्यापक नारायण का रूप है। गुरु दया का घर है, सामर्थ्य वाला है और विकारियों का भी तारनहार है।1।

भउजलु बिखमु असगाहु गुरि बोहिथै तारिअमु ॥ नानक पूर करम सतिगुर चरणी लगिआ ॥२॥

पद्अर्थ: भउजल = संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल, डरावना। असगाहु = अथाह। गुरि = गुरु ने। बोहिथै = जहाज ने। गुरि बोहिथै = गुरु जहाज ने। तारिअमु = मुझे तैरा लिया है। पूर करंम = पूरे भाग्य, अच्छे भाग्य।1।

अर्थ: संसार-समुंदर बड़ा भयानक और अथाह है, पर गुरु जहाज ने मुझे इसमें से बचा लिया है। हे नानक! जो मनुष्य सतिगुरु के चरणों में लगते हैं, उनके भाग्य अच्छे होते हैं।2।

पउड़ी ॥ धंनु धंनु गुरदेव जिसु संगि हरि जपे ॥ गुर क्रिपाल जब भए त अवगुण सभि छपे ॥ पारब्रहम गुरदेव नीचहु उच थपे ॥ काटि सिलक दुख माइआ करि लीने अप दसे ॥ गुण गाए बेअंत रसना हरि जसे ॥१९॥

पद्अर्थ: धंनु गुरदेव = सदके हूँ गुरु से। जिसु संगि = जिसकी संगति में। सभि अवगुण = सारे ऐब। छपे = दूर हो जाते हैं। नीचहु = नीचे से। उच थपे = ऊँचा स्थापित कर देता है। सिलक = (अरबी में) फासी, रस्सी। अप दसे = अपने दास। रसना = जीभ (से)। जसे = यश।

अर्थ: सदके हूँ उस गूरू से जिसकी संगति में रहने से प्रभु का भजन किया जा सकता है, जब सतिगुरु मेहरवान होता है तो सारे अवगुण दूर हो जाते हैं, प्रभु का रूप गुरु नीच से उच्च श्रेणी का बना देता है, माया और दुखों की फाँसी काट के अपने सेवक बना लेता है, (गुरु की संगति में रहने से) जीभ से बेअंत प्रभु के गुण गाए जा सकते हैं, प्रभु की महिमा की जा सकती है।19।

सलोक ॥ द्रिसटंत एको सुनीअंत एको वरतंत एको नरहरह ॥ नाम दानु जाचंति नानक दइआल पुरख क्रिपा करह ॥१॥

पद्अर्थ: एको = एक प्रभु ही। द्रिसटंत = दिखता है। वरतंत = मौजूद है। नरहरह = नरों का मालिक, खलकत का मालिक। जाचंति = जो मांगते हैं। दानु = खैर।1।

अर्थ: हे नानक! जिस पर दयालु प्रभु मेहर करता है वह उसके पास से बँदगी की ख़ैर माँगते हैं, उन्हें हर जगह वह सृष्टि का मालिक ही दिखता है, सुनाई देता है, व्यापक प्रतीत होता है।1।

हिकु सेवी हिकु समला हरि इकसु पहि अरदासि ॥ नाम वखरु धनु संचिआ नानक सची रासि ॥२॥

पद्अर्थ: सेवी = मैं स्मरण करूँ। संमला = मैं हृदय में संभाल के रखूँ। वखरु = सौदा। संचिआ = जोड़ा है। रासि = राशि, पूंजी।2।

अर्थ: मेरी एक प्रभु के पास ही आरजू है कि मैं प्रभु को ही स्मरण करूँ और प्रभु को ही हृदय में संभाल कर रखूँ। हे नानक! जिस लोगों ने नाम-रूप सौदा नाम-रूप धन जोड़ा है, उनकी ये पूंजी सदा ही कायम रहती है।2।

पउड़ी ॥ प्रभ दइआल बेअंत पूरन इकु एहु ॥ सभु किछु आपे आपि दूजा कहा केहु ॥ आपि करहु प्रभ दानु आपे आपि लेहु ॥ आवण जाणा हुकमु सभु निहचलु तुधु थेहु ॥ नानकु मंगै दानु करि किरपा नामु देहु ॥२०॥१॥

पद्अर्थ: पूरन = हर जगह व्यापक। इक एहु = सिर्फ एक बेअंत प्रभु। कहा केहु = कौन सा बताऊँ? (भाव, कोई और बता नहीं सकता)। आपे = खुद ही। आवण जाणा = पैदा होना और मरना। निहचल = अटल। थेहु = ठिकाना। तुधु = तेरा।

अर्थ: सिर्फ ये दयालु और बेअंत प्रभु ही हर जगह मौजूद है, वह खुद ही खुद सब कुछ है, और दूसरा कौन सा कहूँ? (जो उस जैसा हो)?

हे प्रभु! तू खुद ही दान करने वाला है और खुद ही वह दान लेने वाला है। (जीवों का) पैदा होना और मरना - ये तेरा हुक्म है (भाव तेरी खेल है), तेरा अपना ठिकाना सदा अटल है। नानक (तुझसे) खैर माँगता है, मेहर कर और नाम बख्श।20।1।

जैतसरी बाणी भगता की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

नाथ कछूअ न जानउ ॥ मनु माइआ कै हाथि बिकानउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नाथ = हे नाथ! हे प्रभु! न जानउ = मैं नहीं जानता। कछूअ न जानउ = मैं कुछ भी नहीं जानता, मेरी कोई पेश नहीं चलती। बिकानउ = मैंने बेच दिया है।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मैं अपना मन माया के हाथ में बेच चुका हूँ, मेरी इसके आगे (अब) कोई पेश नहीं चलती।1। रहाउ।

तुम कहीअत हौ जगत गुर सुआमी ॥ हम कहीअत कलिजुग के कामी ॥१॥

पद्अर्थ: कहीअत हौ = तू कहलवाता है। कामी = विषयी।1।

अर्थ: हे नाथ! तू जगत का पति कहलवाता है, हम विवाद वाले विषई जीव हैं (मेरी सहायता कर)।1।

इन पंचन मेरो मनु जु बिगारिओ ॥ पलु पलु हरि जी ते अंतरु पारिओ ॥२॥

पद्अर्थ: पंचन = कामादिक पाँच विकारों ने। जु = इतना सा। ते = से। अंतरु = दूरी।2।

अर्थ: (कामादिक) इन पाँचों ने ही मेरा मन इतना बिगाड़ दिया है कि हर दम मेरी परमात्मा से दूरियाँ डलवा रहे हैं।2।

जत देखउ तत दुख की रासी ॥ अजौं न पत्याइ निगम भए साखी ॥३॥

पद्अर्थ: जत = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। रासी = खान, समान। न पतिआइ = पतीजता नहीं, मानता नहीं। निगम = वेद आदि धर्म पुस्तक। साखी = गवाह।3।

अर्थ: (इन्होंने जगत को बहुत दुखी किया हुआ है) मैं जिधर देखता हूँ, उधर दुखों की राशि-पूंजी बनी हुई है। ये देख के भी (कि विकारों का नतीजा है दुख) मेरा मन नहीं माना, वेदादिक धर्म-पुस्तकें भी (कथाओं के माध्यम से) यही गवाही दे रहे हैं।3।

गोतम नारि उमापति स्वामी ॥ सीसु धरनि सहस भग गांमी ॥४॥

पद्अर्थ: गोतम नारि = गौतम की पत्नी, अहिल्या। उमापति = पार्वती का पति, शिव। सीसु धरनि = (ब्रहमा का) सिर धारने वाला शिव।

सहस = हजार। भग = और के गुप्तांग। सहस भग गामी = हजारों भगों के निशान वाला।4।

अर्थ: गौतम की पत्नी अहिल्या, पार्वती का पति शिव, ब्रहमा, हजारों भगों वाला इन्द्र - (इन सभी को इन पाँचों ने ही ख्वार किया)।4।

(नोट: जब ब्रहमा अपनी ही पुत्री पर मोहित हो गया, तो जिधर वह जाए उधर ब्रहमा अपना मुँह बनाए जाए; वह आकाश की ओर उड़ के खड़ी हो गई, ब्रहमा ने पाँचवां मुँह ऊपर की ओर बना लिया। ये अति देख के शिव ने ब्रहमा का सिर ही काट दिया। पर, ब्रहम-हत्या का पाप हो जाने के कारण ये सिर शिव के हाथों से ही चिपक गया)।

नोट: जब इन्द्र ने गौतम की पत्नी के साथ व्यभचार किया, तो गौतम के श्राप से उसके शरीर पर हजारों भगें बन गई।

इन दूतन खलु बधु करि मारिओ ॥ बडो निलाजु अजहू नही हारिओ ॥५॥

पद्अर्थ: दूतन = दूतों ने। खलु = मूर्ख। बधु = मार कुटाई। बधु करि मारिओ = मार मार के मारा है, बुरी तरह मारा है।5।

अर्थ: इन दुष्टों ने (विकारों ने) (मेरे) मूर्ख (मन) को बुरी तरह से मार रखा है, पर ये मन बड़ा बेशर्म है, अभी भी विकारों की ओर से नहीं मुड़ा।5।

कहि रविदास कहा कैसे कीजै ॥ बिनु रघुनाथ सरनि का की लीजै ॥६॥१॥

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। कहा = कहाँ (जाऊँ)? रघुनाथ = परमात्मा।6।

अर्थ: रविदास कहता है: और कहाँ जाऊँ? और क्या करूँ? (इन विकारों से बचने के लिए) परमात्मा के बिना और किसी का आसरा लिया नहीं जा सकता।6।1।

नोट: इस शब्द में जिस शब्द को ‘रघुनाथ’ के नाम से याद किया है उसके लिए शब्द ‘जगत गुर सुआमी’ भी बरता है। शब्द ‘रघुनाथ’ सतिगुरु जी ने स्वयं भी कई जगह इस्तेमाल किया है, परमात्मा के अर्थों में।

शब्द का भाव: विकारों की मार से बचने के लिए परमात्मा का आसरा लेना ही एकमात्र तरीका है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh